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व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 103
मसीही जीवन और व्यवस्था का पालन (8)
प्रेरितों 15 अध्याय में दी गई व्यवहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों का अध्ययन करते हुए हमने देखा है कि परमेश्वर से पापों की क्षमा तथा उद्धार पाने के लिए केवल सुसमाचार के मूल स्वरूप (1 कुरिन्थियों 15:1-4) को स्वीकार करना, उसी पर विश्वास करना है। इसके साथ अन्य कुछ भी जोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है, न तो खतना, न व्यवस्था की बातों का पालन, और न किसी मत अथवा डिनॉमिनेशन की बातों का निर्वाह। सुसमाचार में इनमें से किसी भी बात का जोड़ा जाना, सुसमाचार को भ्रष्ट करता है, क्योंकि इससे वह विश्वास द्वारा धर्मी ठहरने की बजाए, कर्मों द्वारा धर्मी बनने के प्रयासों पर ले जाता है, जो व्यर्थ हैं (फिलिप्पियों 3:8-9। परमेश्वर की दृष्टि में कर्मों द्वारा धर्मी और स्वीकार्य बनने का प्रयास करने वाला, सुसमाचार में कुछ भी परिवर्तन करने वाला, परमेश्वर द्वारा स्वीकार्य नहीं वरन श्रापित होता है (गलातियों 1:6-9; 3:10)। साथ ही हमने प्रेरितों 15:20, 29 से यह भी देखा था कि मसीही विश्वासियों के लिए चार बातें, मूरतों को बलि किए हुए पशुओं का मांस, गला घोंटे हुओं का मांस, लहू और लहू के साथ मांस का खाना और व्यभिचार वर्जित हैं; और जो अन्यजातियों से, जहाँ ये चारों बातें पाई जाती हैं, मसीही विश्वास में आए हैं उन्हें मसीही बनने के बाद इन्हें छोड़ना है। इसी सन्दर्भ में हमने विस्तार से देखा, समझा, और सीखा कि क्यों इन चार बातों का पालन करना व्यवस्था का पालन करना नहीं है। हम पहले के लेखों में देख चुके हैं कि गला घोंटे हुओं का मांस, तथा लहू और लहू के साथ वाले मांस को खाना क्यों मना किया गया। पिछले दो लेखों में हमने देखा, समझा, और सीखा था कि मूरतों को बलि चढ़ाए हुए पशुओं के मांस को खाना क्यों मना किया गया है। आज हम शेष चौथी बात, व्यभिचार के मसीही विश्वासियों को मना किए जाने के बारे में वचन की बातों से समझते और सीखते हैं।
परमेश्वर के वचन बाइबल में सृष्टि के आरम्भ से ही वैवाहिक सम्बन्ध को परिवार का सर्वोच्च सम्बन्ध दिखाया गया, जिसके लिए पति और पत्नी अपने-अपने माता-पिता से भी अलग होकर, एक तन बनकर रहें (उत्पत्ति 2:22-24)। यहेजकेल 16 अध्याय में और होशे 2 अध्याय में, तथा अन्य स्थानों पर भी परमेश्वर ने इस्राएल के प्रति अपने प्रेम को, उसे अपनाने को, पति और पत्नी के सम्बन्ध के समान दिखाया है; तथा इस्राएल के बारम्बार परमेश्वर और उसके वचन को छोड़कर अन्यजातियों के समान व्यवहार करने, मूर्तिपूजा तथा अन्य देवी-देवताओं की उपासना में पड़ने को पत्नी के अपने पति को छोड़कर अन्य पुरुषों के साथ अनुचित, अनैतिक, और अस्वीकार्य सम्बन्ध बनाने, व्यभिचारी हो जाने के समान दिखाया है। नए नियम में, प्रभु यीशु और उसकी कलीसिया, उसके समस्त विश्वासियों के विश्वव्यापी समूह के मध्य के सम्बन्ध को एक दूल्हे और उसकी एक दुल्हन, एक पति और उसकी एक पत्नी के मध्य सम्बन्ध के समान दिखाया गया है (इफिसियों 5:22-33)। इसीलिए पति-पत्नी के समान “एक-तन” होने, यौन सम्बन्ध रखने को परमेश्वर और उसके लोगों के मध्य के सबसे घनिष्ठ प्रेम की अभिव्यक्ति दिखाया गया है। इसीलिए परमेश्वर ने अपने वचन में इस अभिव्यक्ति के स्वरूप और अर्थ को बदलने की कोई अनुमति नहीं दी है, इस सम्बन्ध के पवित्र और अनूठे होने को हर हाल में बनाए रखने को कहा है। इसीलिए परमेश्वर के वचन बाइबल में पुरुष और स्त्री के मध्य केवल विवाह के साथ, विवाहित जोड़ों में ही यौन सम्बन्ध होना वैध, स्वीकार्य और उचित है। इसके अतिरिक्त जो और जैसे भी यौन सम्बन्ध हों, बाइबल उनकी अनुमति नहीं देती है, उन्हें स्वीकार्य नहीं मानती है, वे परमेश्वर की ओर से वर्जित हैं।
बाइबल में व्यभिचार शब्द का अर्थ है परमेश्वर की दृष्टि में अनुचित, अस्वीकृत, या अप्राकृतिक यौन सम्बन्ध रखना, जिस में विवाह से पूर्व या विवाह से बाहर यौन सम्बन्ध रखना भी सम्मिलित हैं। हम उत्पत्ति में दी गई सदोम और अमोरा की घटना से जानते हैं कि वहाँ के व्यभिचार के पाप के कारण परमेश्वर को उन स्थानों को नष्ट करना पड़ा था (उत्पत्ति 18:20-21; 19:13)। लैव्यव्यवस्था 18 अध्याय में एक विस्तृत सूची है कि परमेश्वर किन को अनुचित या अप्राकृतिक यौन सम्बन्ध मानता है, उन्हें अवैध और अस्वीकार्य यौन सम्बन्ध मानता है, और ऐसे सभी सम्बन्धों को मना करता है। यहाँ तक कि यदि परमेश्वर के लोगों के मध्य कोई परदेशी भी रहे तो उसे भी इनकी अनुमति नहीं है “इस कारण तुम लोग मेरी विधियों और नियमों को निरन्तर मानना, और चाहे देशी चाहे तुम्हारे बीच रहनेवाला परदेशी हो तुम में से कोई भी ऐसा घिनौना काम न करे” (लैव्यव्यवस्था 18:26), साथ ही परमेश्वर ने इसे ‘घिनौना काम’ कहा है। इससे हम समझ सकते हैं कि क्यों यरूशलेम की कलीसिया के अगुवों ने अन्यजातियों से मसीही विश्वास में आने वालों को उद्धार से पहले के अपने यौन-व्यवहार को बदलने के लिए कहा। लैव्यव्यवस्था 18 में इन अस्वीकार्य यौन सम्बन्धों का परिणाम भी दिखाया गया है “क्योंकि ऐसे सब घिनौने कामों को उस देश के मनुष्य तो तुम से पहिले उस में रहते थे वे करते आए हैं, इसी से वह देश अशुद्ध हो गया है। अब ऐसा न हो कि जिस रीति से जो जाति तुम से पहिले उस देश में रहती थी उसको उसने उगल दिया, उसी रीति जब तुम उसको अशुद्ध करो, तो वह तुम को भी उगल दे” (लैव्यव्यवस्था 18:27-28)। अर्थात, व्यभिचार का पाप भूमि को अशुद्ध करता है, और भूमि ऐसे लोगों को सहन नहीं कर सकती है, उगल देती है; जो आलंकारिक भाषा में यह कहना है कि परमेश्वर धरती के उपजाऊ और आशीषित होने को रोक देता है, जिस कारण फिर लोगों को जीविका और जीवन यापन के लिए बेघर तथा परदेशी होकर इधर-उधर भटकना पड़ता है, तकलीफ़ें उठानी पड़ती हैं।
विवाह सम्बन्धों के आत्मिक अभिप्रायों, उनकी गम्भीरता और पवित्रता, तथा व्यभिचार के दुष्परिणामों के कारण परमेश्वर ने अपनी दस आज्ञाओं में व्यभिचार को वर्जित किया है। इसी सन्दर्भ में यरूशलेम की कलीसिया के अगुवों ने अन्यजातियों से मसीही विश्वास में आने वालों को परमेश्वर के आज्ञाकारी जन होने, उद्धार से पूर्व के जीवन के व्यवहार को छोड़ने के लिए कहा है।
व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित अन्य बातें, बाइबल में स्थान-स्थान पर दी गई हैं। जैसा हम पहले भी कह चुके हैं, हमने प्रेरितों 2 और 15 अध्याय की इन बातों को इसलिए चर्चा के लिए लिया, क्योंकि वचन में इन्हें मसीही विश्वासियों की आत्मिक उन्नति तथा कलीसियाओं की बढ़ोतरी के साथ जुड़ा हुआ दिखाया गया है। अर्थात, इन बातों को जानने, समझने, और पालन करने वाले, स्वतः ही वचन में दी गई अन्य बातों को समझने और मानने वाले भी बन जाएंगे। ये बातें आत्मिक जीवन की बुनियाद हैं, आत्मिक परिपक्वता की ओर उठाया गया आरम्भिक कदम हैं, जो वचन की अन्य बातों में बढ़ने का आधार बनती और उन्नति तथा बढ़ोतरी करती हैं।
अगले लेख से हम एक भिन्न विषय पर विचार आरम्भ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Practical Christian Living – 103
Christian Living and Observing the Law (8)
While studying the things related to practical Christian living from Acts chapter 15 we have seen that to have God’s forgiveness for sins and receive salvation, only accepting and believing in the original gospel (1 Corinthians 15:14) is required. There is no need for adding anything else to it, neither circumcision, nor following the things of the Law, nor following the things of any sect or denomination. Adding any of these things to the gospel corrupts it, since it changes it into being righteous by works instead of being righteous by faith, which is vain (Philippians 3:8-9). The person who tries to be righteous in the sight of God and be acceptable to Him through his works, who in any way alters anything in the gospel, does not become righteous, but becomes cursed (Galatians 1:6-9; 3:10). We had also seen from Acts 15:20, 29 that the Christian Believers have been forbidden four things, i.e., eating the meat of animals sacrificed to idols, meat of strangled animals, blood, and meat with blood, and adultery; and these are things that are found amongst the Gentiles, therefore, those coming to the Christian faith from the Gentiles, were instructed to leave these things. In this context we had seen, understood, and learnt in detail why leaving these things was not obeying the Law. In earlier articles we have seen why eating the meat of strangled animals, blood, and meat with blood has been forbidden. In the last two articles we have seen, understood, and learnt why the eating of meat of animals sacrificed to idols has been forbidden. Today we will consider why the remaining fourth thing, adultery, has been forbidden for Christian Believers.
In God’s Word the Bible, since the time of creation, the marital relationship has been shown as the foremost of all familial relationships, for which the husband and wife should even separate from their parents, to live as one flesh (Genesis 2:22-24). In Ezekiel chapter 16 and Hosea chapter 2, and at other places as well, God has expressed His love for Israel, His accepting an taking Israel to Him as a relationship between husband and wife; and Israel’s repeatedly leaving God and His Word to behave like the Gentiles, to get involved in idolatry and worship of Gentile deities, as adultery. In the New Testament, the relationship between the Lord Jesus and the corporate world-wide group of Believers is the relationship between one husband and one wife (Ephesians 5:22-33). Therefore, the sexual relationship, the husband and wife being “one flesh,” has been shown as an expression of the most intimate and deepest possible love between God and His people. Hence, there is no permission to change the form or meaning of this relationship in any manner, and the sanctity and uniqueness of this relationship has to be always preserved at all costs. For this reason, in God’s Word the Bible, the sexual union between man and woman is only permitted with marriage, and is considered legal, acceptable and appropriate only between a married couple. Besides this, any sexual relationships of any kind, with anyone, are forbidden by God, are unacceptable, and have not been allowed.
In the Bible, the word adultery means having sexual relationships that are inappropriate, unacceptable, or unnatural in the eyes of God, and this includes such relationships before, and outside of marriage. We know from the incidence of Sodom and Gomorrah, that because of their sin of adultery, God had to destroy these places (Genesis 18:20-21; 19:13). In Leviticus chapter 18 we find a detailed list of relationships that God considers inappropriate or unnatural sexual relationships, considers them illegal and unacceptable, and forbids any such relationships. So much so, that if any foreigner is residing amongst God’s people, even he does not have the permission for them “You shall therefore keep My statutes and My judgments, and shall not commit any of these abominations, either any of your own nation or any stranger who dwells among you” (Leviticus 18:26), God has also called these as abomination. From this we can understand why the leaders of the Church in Jerusalem instructed those coming into the Christian faith, to change their former practices before their salvation, and leave their former sexual behavior. In Leviticus 18, the consequence of these unacceptable sexual relationships is also given “for all these abominations the men of the land have done, who were before you, and thus the land is defiled, lest the land vomit you out also when you defile it, as it vomited out the nations that were before you” (Leviticus 18:27-28). In other words, the sin of adultery defiles the land, the land is unable to tolerate such people, and vomits them out; which is a figurative way of saying that God stops that land from being fruitful and blessed, therefore the people, to earn a living and sustain themselves, have to leave their homes, go out as foreigners and face many difficulties.
Because of the spiritual implications of the marital relationship, its sanctity and its seriousness, and the consequences of adultery, God has forbidden adultery in the Ten Commandments. In this context the leaders of the Church in Jerusalem, instructed those coming into the Christian faith from the Gentiles, to leave their former practices, the things they did prior to salvation.
Other things related to Christian living are given at many places in the Bible. But, as we have said before, we have taken the things given in Acts chapters 2 and 15 for discussion, since they have been associated with spiritual edification of the Christian Believers, and the growth of the Church. In other words, those who know, understand, and obey these things, will automatically be able to understand and obey the other things as well. These things are the foundation of spiritual things, the initial step taken towards spiritual maturity, and they become the foundation for growing and being edified in other things of God’s Word.
From the next article, we will start a different topic.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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