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व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 102
मसीही जीवन और व्यवस्था का पालन (7)
हम पिछले कुछ लेखों से व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों को प्रेरितों 15 अध्याय से देख रहे हैं। हमने देखा है कि परमेश्वर से पापों की क्षमा और उद्धार पाने के लिए केवल सुसमाचार के मूल स्वरूप (1 कुरिन्थियों 15:1-4) को स्वीकार करना, उसी पर विश्वास करना अनिवार्य है। सुसमाचार के इस मूल स्वरूप में किसी भी अन्य बात का जोड़ा जाना, चाहे वह पवित्र शास्त्र से ली गई खतना करवाने और मूसा की व्यवस्था का पालन करने की बातें हों, अथवा वर्तमान में मतों और डिनॉमिनेशनों द्वारा बनाए और लागू किए गए नियम, रीतियाँ, और परम्पराएं हों, किसी को भी परमेश्वर की दृष्टि में न तो धर्मी बनाता है और न स्वीकार्य, वरन सुसमाचार में विश्वास के स्थान पर कर्मों द्वारा धर्मी बनने की धारणा डालकर उसे भ्रष्ट करता है, तथा परमेश्वर के वचन का उल्लंघन करता है। साथ ही हमने यह भी देखा था कि अन्य जातियों से मसीही विश्वास में आने वालों को प्रेरितों 15:20, 29 में मना की गई चार बातें, यद्यपि दस आज्ञाओं का पालन करने से सम्बन्धित थीं, किन्तु व्यवस्था का पालन करने के समान नहीं थीं। इन बातों का वचन के आधार पर विश्लेषण और उनके सही सन्दर्भ में उनकी उचित व्याख्या करने के द्वारा हमने देखा था कि दस आज्ञाएँ मूसा की व्यवस्था से पहले दी गई थीं, व्यवस्था का भाग नहीं थीं, और परमेश्वर ने भी उन आज्ञाओं को व्यवस्था से भिन्न दिखाया था; इसलिए दस आज्ञाओं का पालन करना, मूसा की व्यवस्था का पालन करना नहीं है।
पिछले लेख में हमने उन चार में से पहली बात, मूर्तियों को बलि चढ़ाए हुए मांस के खाना, इसको वर्जित करने के एक कारण को 1 कुरिन्थियों 8 अध्याय के आधार पर देखा और समझा था। आज इसी सन्दर्भ में, 1 कुरिन्थियों 10 अध्याय से हम मूर्तियों को बलिदान की गई वस्तुओं से सम्बन्धित और बातों को देखेंगे और समझेंगे, कि क्यों मसीही विश्वासियों को उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए, उनसे दूर रहना चाहिए। आज की चर्चा की बातों को समझने के लिए, पाठक कृपया परमेश्वर के वचन बाइबल में से 1 कुरिन्थियों 10:14 से आगे के लेख को पढ़ लें। पद 14 में पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस स्पष्ट और दो टूक मूर्ति पूजा से बचे रहने के लिए कहता है, जो दस आज्ञाओं में से पहली दो आज्ञाओं का पालन करना है। पद 15 से वह उन्हें मसीही विश्वासियों द्वारा निभायी जाने वाली बातों को समझाता है, किन्तु साथ ही, इसी पद 15 में, उन से अपने द्वारा कही हुई बातों को परखने के लिए भी कहता है। पद 16-17 में, विश्वासियों द्वारा प्रभु भोज की रोटी और कटोरे में सम्मिलित होने को प्रभु की देह और लहू में भागी होने के समान बताने के बाद, पौलुस पद 18 में इस्राएलियों की उपासना से संबंधित एक व्यावहारिक बात के उदाहरण से समझाता है, कि वेदी पर चढ़ाए गए बलिदानों को खाने वाला, वेदी का भी सहभागी होता है। फिर इसी व्यावहारिक बात के उदाहरण को मूर्तिपूजा पर भी लागू करते हुए कहता है कि यद्यपि मूर्तियाँ अपने आप में कुछ नहीं हैं, किन्तु उनकी उपासना के कारण दुष्टात्माएं उनके साथ सम्बन्धित हो जाती हैं, इसलिए मूर्तियों को चढ़ाए गए बलिदानों में भागी होने के द्वारा, व्यक्ति दुष्टात्माओं के साथ सहभागी हो जाता है; अर्थात उनकी उपासना का भागी हो जाता है। इस आधार पर वह पद 21 और 22 में कहता है कि मसीही विश्वासी अब दुष्टात्माओं के साथ सहभागी, अर्थात उनकी उपासना का भागी नहीं हो सकता है। जो भी ऐसा करता है, वह परमेश्वर को रीस दिलाता है; तात्पर्य यह, कि उसे परमेश्वर को रीस दिलाने के दुष्परिणामों को भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। तो मूर्तियों को चढ़ाए गए बलिदानों को स्वीकार करने और उनमें सहभागी होने से सम्बन्धित जो आज, अभी तक की जो बातें हमने देखी और समझी हैं, वे हैं, यह करना मूर्तियों की उपासना के साथ भागी बनाता है, और परमेश्वर को रीस दिलाता है; इसलिए मसीही विश्वासी को इससे दूर रहना चाहिए।
इसके बाद पौलुस पद 23-24 में, 1 कुरिन्थियों 8 अध्याय में मूर्तियों से सम्बन्धित बातों के आधार पर समझाता है कि बात केवल उचित-अनुचित होने की नहीं है। मसीही विश्वासियों को बात के औरों पर प्रभाव का ध्यान रखना भी अनिवार्य है; और इस आधार पर औरों की भलाई करने का ध्यान रखना भी आवश्यक है। इसके बाद पद 25-30 में, पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस ने एक महत्वपूर्ण बात लिखी है; ऊपर हमने देखा है कि उसने स्पष्ट किया है कि जिसके बारे में पता है कि वह मूर्तियों को बलिदान किये हुए में से है, उसे स्वीकार नहीं करना है, उसका भागी नहीं होना है। यहाँ, इन पदों में इस बात को लेकर अनुचित रीति से कट्टर और हठधर्मी होने; शैतान द्वारा, इस बात को लेकर, कर्मों के आधार पर धर्मी-अधर्मी बनाने की बात में फँसाने से बचने के लिए वह रास्ता देता है - जिसके बारे में पता नहीं है, जो सामान्य सामग्री के समान बाजार में बेचा जा रहा है, या भोजन के रूप में परोसा गया है उसके विषय नाहक पूछताछ न करो, उसे साधारण भोजन के समान प्रार्थना के साथ ग्रहण कर लो; परमेश्वर वास्तविकता को जानता है। किन्तु यदि परोसते समय परोसने वाला बता देता है कि यह मूर्तियों को बलि किया हुआ है, तो क्योंकि बात अब खुल गई है, वास्तविकता प्रकट हो गई है, इसलिए ऐसी स्थिति में यह ऊपर वाले पद 14-22 वाली श्रेणी में आ गया है, और अब उससे उसी स्थिति के समान व्यवहार करना चाहिए, उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। और पद 31-33 में एक महत्वपूर्ण निर्देश देता है कि मसीही विश्वासी चाहे खाएं या पीएं, जो भी करें परमेश्वर की महिमा के लिए करें। इस अध्याय की समाप्ति पर पौलुस फिर से याद दिलाता है, अपने उदाहरण से दिखाता है कि कोई भी विश्वासी किसी के लिए भी ठोकर का कारण न बने, बल्कि सभी के लाभ और प्रसन्नता का कारण हो।
यरूशलेम की कलीसिया के अगुवों द्वारा अन्यजातियों में से मसीही विश्वास में आए लोगों को मूर्तियों को बलि की गई वस्तुओं से दूर रहने के निर्देश के बारे में देखने, समझने, और सीखने के बाद, अगले लेख में हम व्यभिचार से दूर रहने से सम्बन्धित बातों के बारे में परमेश्वर के वचन से देखेंगे, समझेंगे, और सीखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Practical Christian Living – 102
Christian Living and Observing the Law (7)
For the past few articles, we have been considering things related to practical Christian living from Acts chapter 15. We have seen that to receive the forgiveness of sins and salvation from God, we only need to accept the gospel in its original form (1 Corinthians 15:1-4) and believe in it. There is no need to add anything to this original form of the gospel, whether it be circumcision and following the things of the Law of Moses from the Scriptures, or the present-day tendency of obeying the rules, rituals, and practices of the sects and denominations. Neither of these make anyone righteous and acceptable in the eyes of God. Rather, by replacing righteousness by faith in the gospel with righteousness by works, it corrupts the gospel and goes against God’s Word. We had also seen that to the Christian Believers, coming into faith from the Gentiles, four things given in Acts 15:20, 29 had been forbidden. Though these are related to obeying the Ten Commandments, they are not the same as following the Law. By analyzing these things on the basis of the Word and interpreting them in their proper context, we had seen that the Ten Commandments had been given prior to the Law of Moses, they were not a part of the Ten Commandments, and even God had shown them to be different from the Law. Therefore, obeying the Ten Commandments is not the same as obeying the Law of Moses.
In the previous article, we had seen about the first of those four, i.e., the eating of meat of animals sacrificed to idols, from 1 Corinthians chapter 8 and learnt one reason for forbidding it. Today, in the same context, we will see some more things from 1 Corinthians chapter 10 about the eating the meat of animals sacrificed to idols, and understand further, why Christian Believers should not accept such things, should stay away from them. To understand the things we will see today, the readers are requested to please read from 1 Corinthians 10:14 till the end of the chapter.
In verse 14, the Holy Spirit through Paul clearly and categorically says to flee idolatry, which is obeying the first two of the Ten Commandments. From verse 15 he starts explaining to them the things observed by the Christian Believers, but in this verse, he also asks them to judge what he is saying to them. In verses 16-17, he calls the Believers participating in the bread and cup of the Holy Communion as communing with the blood and body of the Lord Jesus. Then, in verse 18 he explains a common practice in the worship of the Jews through a practical example, that those who eat of what was offered on the altar, become the partakers of the altar. Then by applying this practical thing to idolatry, he says that though by themselves the idols are not anything, but because of their being worshiped, evil spirits become associated with them, thereby through eating of things offered to idols, people commune with the evil spirits, i.e., become associated with the worship of demons. On this basis, he says in verses 20 and 21 that the Christian Believers cannot commune with demons, i.e., cannot be a part of their worship. Whoever does so, provokes the Lord to jealousy, implying that they should then be ready to suffer the consequences of provoking the Lord to jealousy. So, the two things that we have seen so far today about eating things offered or sacrificed to idols are that it makes the person a worshiper of idols, and provokes the Lord to jealousy; therefore the Christian Believers should stay away from them.
After this, on the basis of what he had said in chapter 8 about things related to idolatry, Paul explains that it is not simply a matter of being correct or incorrect. The Christian Believers must also pay attention to the effect it will have on others. Then, in verses 25-30, under the guidance of the Holy Spirit writes something very important. We have seen above that Paul says to stay away from things known to have been sacrificed to idols, they are not to be accepted or partaken from. Here, in these verses, to keep safe from becoming legalistic and dogmatic about them, and to prevent Satan from entangling people in arguments of being righteous-unrighteous by their works i.e., eating or not eating, Paul gives the way. Paul says that if nothing is known about what is being sold in the meat-market, or is being served as food, do not unnecessarily enquire about it; just accept it with prayer as any other food item, since God knows the facts about everything. But, if while serving food, the person serving it says that it has been offered to idols, then, because now the matter is out in the open, the reality is known, therefore it has now come into the same category as that of verses 14-22 above. Therefore, it should be dealt with in the same manner, and should be refused. Then in verses 31-33, Paul gives a very important instruction, that the Christian Believers, whether they eat, or drink, or whatever they do, it should be done for the glory of God. At the end of this chapter, Paul once again reminds them, and uses himself as an example to show that no Believer should ever be a reason for offending others, but should always be a reason of pleasing others, and the profit of many.
Having seen, understood, and learnt about the reasons why the leaders of the Church in Jerusalem forbade the eating the things offered or sacrificed to idols, in the next article we will see and learn from the Word of God why we should stay away from adultery.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.