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गुरुवार, 24 अक्टूबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 230

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 75


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (17) 


प्रार्थना में परमेश्वर के साथ निरन्तर जुड़े रहना, अर्थात, हर समय, हर बात के लिए, परमेश्वर से वार्तालाप करते रहना; परमेश्वर को अपनी बात बताना, तथा परमेश्वर से उसकी बात सुनना, व्यावहारिक मसीही जीवन का एक अनिवार्य और अभिन्न भाग है। ऐसा करने से ही मसीही विश्वासी शैतान द्वारा बहकाए और पाप में गिराए जाने से सुरक्षित रह सकते हैं। प्रथम कलीसिया और आरम्भिक मसीही विश्वासी, प्रेरितों 2:42 में दी गई चार बातों, जिनमें से चौथी बात थी प्रार्थना करना, में लौलीन रहते थे। पिछले कुछ लेखों से हम प्रार्थना को लेकर मसीहियों में व्याप्त गलत धारणाओं और गलत शिक्षाओं के बारे में परमेश्वर के वचन बाइबल से देखते आ रहे हैं, ताकि उनके सही स्वरूप और उपयोगिता को, तथा व्यक्तिगत जीवन में उनका पालन करने को समझ सकें। इस सन्दर्भ में हम वर्तमान में “विश्वास से” तथा “यीशु के नाम में” माँगने के बारे में वचन से देख और सीख रहे हैं। हमने इन दोनों वाक्यांशों के अर्थ और लागू किए जाने के बारे में वास्तविकता को बाइबल से देखा और समझा है, कि प्रभु ने ये वाक्यांश हर किसी की हर तरह की प्रार्थना के लिए नहीं कहे थे। वरन इन्हें प्रभु ने अपने सच्चे, समर्पित, आज्ञाकारी शिष्यों की उन प्रार्थनाओं के लिए कहा था जो वे परमेश्वर की इच्छा में तथा वचन से सुसंगत बातों के लिए माँगते हैं। पिछले लेख से हमने इसी बात से सम्बन्धित वचन के एक और तथ्य पर विचार करना आरंभ किया था - प्रभु के शिष्यों द्वारा आश्चर्यकर्म करना। हमने बाइबल के हवालों से देखा था कि प्रभु की पृथ्वी की सेवकाई के दौरान, प्रभु के शिष्य सुसमाचार प्रचार, दुष्टात्माओं को निकालना, चंगा करना, आदि केवल तब ही करने पाए थे, जब प्रभु ने उन्हें इस सेवकाई को करने की अनुमति और सामर्थ्य प्रदान की थी। इन कुछ अवसरों के अतिरिक्त, पृथ्वी की उसकी सेवकाई के शेष समय में, ये सभी अद्भुत काम प्रभु ने स्वयं ही किए थे। आज इसी विचार को, वचन में प्रभु यीशु की कही अन्य बातों के आधार पर और आगे बढ़ाते हैं।


पिछले लेख के हवालों और सन्दर्भ से यह प्रकट है कि प्रभु यीशु के वे सच्चे, समर्पित, और आज्ञाकारी शिष्य भी, प्रभु की अनुमति और इच्छा के बाहर, अपनी मन-मर्ज़ी से उन कामों को भी नहीं कर सके थे, जिन्हें उन्होंने प्रभु के निर्देश, आज्ञाकारिता, और सामर्थ्य से किया था। इसी सन्दर्भ में प्रभु के एक और निर्देश पर ध्यान करें, अपने स्वर्ग पर उठाए जाने से पहले, मत्ती 28:19-20 में प्रभु यीशु ने शिष्यों से कहा “इसलिये तुम जा कर सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ और उन्हें पिता और पुत्र और पवित्रआत्मा के नाम से बपतिस्मा दो। और उन्हें सब बातें जो मैं ने तुम्हें आज्ञा दी है, मानना सिखाओ: और देखो, मैं जगत के अन्‍त तक सदैव तुम्हारे संग हूं।” लेकिन साथ ही प्रेरितों 1:4, 8 में प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों से यह आज्ञा भी दी कि “और उन से मिलकर उन्हें आज्ञा दी, कि यरूशलेम को न छोड़ो, परन्तु पिता की उस प्रतिज्ञा के पूरे होने की बाट जोहते रहो, जिस की चर्चा तुम मुझ से सुन चुके हो।” और “परन्तु जब पवित्र आत्मा तुम पर आएगा तब तुम सामर्थ्य पाओगे; और यरूशलेम और सारे यहूदिया और सामरिया में, और पृथ्वी की छोर तक मेरे गवाह होगे।” जैसा हमने पिछले लेख में देखा था, प्रभु के ये शिष्य, इन बातों को, प्रभु द्वारा सेवकाई पर भेजे जाने के समय कर चुके थे। किन्तु अभी, यद्यपि प्रभु ने उनके लिए यह ठहराया है कि उसके जाने के बाद उन्हें यरूशलेम से लेकर संसार के छोर तक यही काम करना है, लेकिन तुरन्त नहीं, वरन पवित्र आत्मा और उसकी सामर्थ्य को प्राप्त करने के बाद।

 

तात्पर्य प्रकट है कि पवित्र आत्मा और उसकी सामर्थ्य प्राप्त होने तक, प्रभु के उन वास्तविक शिष्यों में भी अपनी सामर्थ्य से, अपने पिछले अनुभवों के आधार पर, प्रभु द्वारा उनके लिए निर्धारित सेवकाई को करने की सामर्थ्य नहीं थी; उन्हें वह सामर्थ्य पुनः प्राप्त होने के बाद ही इस सभी को करना था। और शिष्यों ने यही किया। वे लगातार मन्दिर जाकर परमेश्वर की स्तुति करते थे (लूका 24:53), और प्रभु के अन्य शिष्यों के साथ एकत्रित होकर प्रार्थना करते रहे (प्रेरितों 1:13-15)। किन्तु उन्होंने सुसमाचार प्रचार या प्रभु के नाम में उनकी निर्धारित सेवकाई का कोई और काम तब तक नहीं किया जब तक कि पिन्तेकुस्त के दिन पवित्र आत्मा और उसकी सामर्थ्य को प्राप्त नहीं कर लिया। और उसके बाद पतरस के पहले ही प्रचार से तीन हजार भक्त यहूदियों ने उद्धार पाया, शिष्य निडर होकर प्रचार करने लगे, आश्चर्यकर्म करने लगे। उनके विरुद्ध भीषण सताव और विरोध के बावजूद मसीही विश्वासियों तथा कलीसियाओं की सँख्या बढ़ती चली गई; और थोड़े ही समय में, उन्हें “ये लोग जिन्होंने जगत को उलटा पुलटा कर दिया है” कहा जाने लगा (प्रेरितों 17:6)।


हमारे इस वर्तमान अध्ययन के विषय के सन्दर्भ में, प्रश्न उठता है कि जब ये शिष्य पहले भी यही सब कार्य, प्रभु द्वारा सेवकाई पर भेजे जाने के समय कर चुके थे, तो फिर प्रभु के स्वर्ग पर उठाए जाने के बाद, पवित्र आत्मा के उनपर उतरने तक, उन्हीं कार्यों को फिर से करने के लिए उन्हें प्रतीक्षा क्यों करनी पड़ी? इस बात को तथा प्रेरितों द्वारा किए जाने वाले आश्चर्यकर्मों पर हम अगले लेख में विचार करेंगे।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Things Related to Christian Living – 75


The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (17)


To be continually joined with God in prayer, i.e., to keep conversing with God about everything, at all times; speak to Him about our things, and listen to what He has to say, is an essential and inseparable part of practical Christian living. It is by doing this that the Christian Believers can stay safe from being misled by Satan and falling into sin. The initial Christian Believers and the first churches continued steadfastly in four things given in Acts 2:42, of which prayer was the fourth one. For the past few articles, we have been considering about and checking out the prevalent wrong concepts and false teachings prevalent amongst the Christians about prayer from the Bible, so as to understand their correct Biblical form, application, and following them in personal lives. In this context, presently we are considering and learning about asking prayers “in faith” and asking them “in the name of Jesus.” We have seen the actual meaning and application of these two phrases from the Bible, that the Lord had not said these phrases about any kind of prayer made by anyone. Rather, the Lord had spoken them for those prayers made by His true, surrendered, and obedient disciples, which were in the will of God and consistent with the Word of God. From the last article we have started to consider another related fact from the Bible - the disciples of the Lord doing miracles. We saw through references from the Bible, that during the earthly ministry of the Lord, the disciples of the Lord could do the gospel preaching, casting out evil spirits, healings, etc., only when the Lord had given them the permission and power to do these things. Except for these few occasions when the disciples did them, during His earthly ministry, it was the Lord who had done these things Himself. Today we will look further about this on the basis of what the Lord has said in His Word.


On the basis of the references and context mentioned in the previous article, it is evident that those true, surrendered, and obedient disciples of the Lord, could not do on their own and outside of the will and permission of the Lord, even the things they had done in obedience to the Lord after being instructed and empowered by Him. In this context, take note of another instruction given by the Lord. At the time of His ascension to heaven, the Lord had instructed His disciples in Matthew 28:19-20 “Go therefore and make disciples of all the nations, baptizing them in the name of the Father and of the Son and of the Holy Spirit, teaching them to observe all things that I have commanded you; and lo, I am with you always, even to the end of the age." Amen.” Along with this, the Lord had also instructed in Acts 1:4, 8 that “And being assembled together with them, He commanded them not to depart from Jerusalem, but to wait for the Promise of the Father, "which," He said, "you have heard from Me;” and “But you shall receive power when the Holy Spirit has come upon you; and you shall be witnesses to Me in Jerusalem, and in all Judea and Samaria, and to the end of the earth."” As we have seen in the previous article, these disciples of the Lord had already done these things, when the Lord had sent them out for ministry. But now, although the Lord had kept it for them that after He had gone, they had to go and do it again from Jerusalem to the end of the earth, but not immediately; only after receiving the Holy Spirit and His power.


The implication is evident, till they had received the Holy Spirit and His power, even those true disciples of the Lord, on the basis of their earlier experiences, did not have the power to do their Lord assigned ministry. They were to go and do the assigned ministry only after they had received the power once again. And that is what the disciples did. They continually went to the Temple to praise and worship God (Luke 24:53), and they gathered with the other disciples to pray (Acts 1:13-15). But they neither preached the gospel, nor did anything else related to their ministry, till on the day of Pentecost, they received the Holy Spirit and His power. Once that happened, with the first sermon Peter preached, three thousand devout Jews received salvation, the disciples started to preach fearlessly and do miracles. Despite severe persecution and opposition, the numbers of the Christian Believers and churches continued to increase; and within a short span of time, they were being called “These who have turned the world upside down” (Acts 17:6).


In context of our current study, a question that arises is, when these disciples had already done these same things earlier, when the Lord had sent them for their ministry, then after the ascension of the Lord to heaven, why did they have to wait to do them, till they received the Holy Spirit and His power? We will look into it and about the miracles done by the Apostles, in the next article.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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