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रविवार, 7 जुलाई 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 123

 

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आरम्भिक बातें – 84


अन्तिम न्याय – 5

 
    हम ने पिछले लेख में इब्रानियों 6:1-2 में दी गई अन्तिम आरम्भिक बात “अन्तिम न्याय” के बारे में देखा था कि परमेश्वर ने मानवजाति को बहुत पहले, आज से लगभग 2000 वर्ष पहले से ही इस के बारे में चेतावनी दे दी है, बता दिया है; और इस प्रकार से उसने मानवजाति को समय, अवसर, और सँसाधन उपलब्ध करवा दिए हैं कि लोग इस न्याय के लिए अपने आप को तैयार कर लें। परमेश्वर बड़े धैर्य से प्रतीक्षा कर रहा है कि लोग अपने पापों से पश्चाताप करें, उस की ओर मुड़ें, और बच जाएँ। उस ने उन्हें अपना वचन दिया है कि वे इस न्याय के बारे में सीखें और अपने बचाए जाने के लिए उपयुक्त कदम उठा लें। उस ने उन्हें, जिन्होंने नया-जन्म पाया है, जिन्होंने अपने आप को उसे समर्पित कर दिया है, और जो उस की आज्ञाकारिता में जीवन जीते हैं, अपना पवित्र आत्मा दिया है। पवित्र आत्मा मसीही विश्वासियों को उन की सहायता के लिए तथा उन्हें वचन को सिखाने के लिए दिया जाता है, वचन भी पवित्र आत्मा की प्रेरणा से ही लिखा गया है (2 तीमुथियुस 3:16-17)। किन्तु यह एक दुर्भाग्य पूर्ण और दुखद तथ्य है कि जो लोग अपने आप को ईसाई या मसीही कहते हैं, उन में से अधिकाँश या तो बाइबल का अध्ययन करते ही नहीं हैं, या उसे हल्के में ऊपरी तौर से मात्र औपचारिकता पूरी करने के लिए पढ़ लेते हैं, न कि उसका अध्ययन करते हैं।

    जो लोग परमेश्वर के वचन को सीखने में कुछ रुचि दिखाते हैं, वे भी सामान्यतः पवित्र आत्मा की सहायता और मार्गदर्शन से नहीं, परन्तु मनुष्यों से तथा मनुष्यों की लिखी पुस्तकों से और बाइबल की सहायक पुस्तकों से सीखने का प्रयास करते हैं। मनुष्यों द्वारा लिखी ये पुस्तकें और बाइबल की सहायक पुस्तकें परमेश्वर के वचन को सीखने का प्राथमिक नहीं वरन सहायक स्त्रोत हैं, जिन्हें तब उपयोग किया जाना चाहिए जब पवित्र आत्मा के द्वारा परमेश्वर के वचन की सच्चाइयों में दृढ़ता से स्थापित हो चुके हैं और बाइबल की शिक्षाओं के सम्बन्ध में सच तथा झूठ में भेद करना सीख गए हैं। लेकिन अधिकाँश ईसाई या मसीही अपने आप को पवित्र आत्मा से सीखने के अनुशासन के अन्तर्गत लाने की बजाए, मनुष्य से सीखने का आसान तरीका चुनते हैं, और फिर परमेश्वर के वचन में दृढ़ और स्थापित नहीं हो पाने से अपने आत्मिक जीवन में बढ़ने से वंचित रह जाते हैं। परिणाम यही होता है कि परमेश्वर के वचन तथा पवित्र आत्मा की सहायता के द्वारा आने वाले न्याय के लिए तैयार होने के स्थान पर, वे केवल मनुष्य के वचनों, मनुष्यों के प्रचार, और मनुष्यों की शिक्षाओं को सीखने और पालन करने वाले बन जाते हैं, और न्याय का सामना करने के लिए तैयार नहीं होने पाते हैं। इसी लिए इन लेखों में बारम्बार पाठकों के लिए यह दोहराया जा रहा है कि वे, बजाए मनुष्यों तथा मनुष्यों के वचनों के पीछे जाने के, परमेश्वर और उस के वचन की ओर मुड़ें जो बहुधा डिनॉमिनेशनों की शिक्षाओं, नियमों, और रीतियों के रूप में, स्थानीय मण्डलियों द्वारा पालन करने के लिए दिए जाते हैं।

    इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छठी आरम्भिक बात केवल “न्याय” के बारे में ही नहीं है, किन्तु पवित्र आत्मा ने परमेश्वर के वचन में “न्याय” के साथ एक विशेषण, “अन्तिम” भी लिखवाया है। सभी मसीहियों के लिए इस विशेषण का और उस के निहितार्थों का ध्यान रखना भी बहुत आवश्यक है। इस विशेषण “अन्तिम” का अर्थ है कि न्याय एक ही बार और सदा काल के लिए किया जाएगा; अन्तिम होगा, इसे कभी बदला नहीं जाएगा कभी किसी पर से हटाया नहीं जाएगा। कुछ मत और डिनॉमिनेशन यह प्रचार करते और सिखाते हैं कि स्वर्ग और नरक के मध्य एक बीच का स्थान है, जहाँ मृतकों की आत्माएं कुछ समय के लिए रखी जाती हैं, और, यदि उन के लिए पृथ्वी पर लोगों के द्वारा कुछ काम किए जाएँ तो उन्हें वहाँ से छुटकारा दिला कर स्वर्ग पहुंचाया जा सकता है। कुछ अन्य यह गलत धारणा रखते हैं कि लोगों ने पृथ्वी पर जिस प्रकार का जीवन व्यतीत किया है, उस के अनुसार और अनुपात में उनकी आत्माओं को कुछ समय दुःख उठाना पड़ेगा, लेकिन फिर अन्ततः परमेश्वर सभी को स्वर्ग में ले लेगा। अगले लेख से हम न्याय के अंतिम और अनन्त होने के निहितार्थों पर विचार करना आरंभ करेंगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 
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English Translation


The Elementary Principles – 84


Eternal Judgment – 5

 

   In the last article on “Eternal Judgment,” the final elementary principle given in Hebrews 6:1-12, we had seen that God has forewarned mankind about it, about 2000 years ago from today; and He has given all of mankind the time, opportunity, and resources to prepare for this judgment. God is patiently waiting for people to repent from their sins and turn to him to be saved. He has given them His Word, so that they can learn about it and take the necessary steps to be saved. He has given His Holy Spirit to all who are Born-Again, those who submit their lives to Him, to live in obedience to Him. The Holy Spirit is given to help the Christian Believers, and teach them His Word, which has been written through His inspiration (2 Timothy 3:16-17). But the unfortunate and sad fact prevalent amongst those who call themselves “christians” is that most of the people instead of learning God’s Word, either do not study the Bible, or merely read the Bible casually and cursorily, not really studying it.

Those who do show some interest in learning God’s Word, usually learn it not through the help and guidance of the Holy Spirit, but from men and through various books and helps written by men – these are the secondary sources for learning God’s Word, after first being grounded by the Holy Spirit in God’s Word and having learnt how to discern between true and false Biblical teachings. But most “christians” instead of subjecting themselves to the discipline of learning from the Holy Spirit, take the easy way out of learning from man, and fail to be established and grow in God’s Word and their spiritual lives. The result is that instead of preparing for the coming judgment through God’s Word and the help of the Holy Spirit, they end up learning and following man’s words, man’s preaching, and man’s teachings; and therefore, being ill-prepared for facing the judgment. Hence it is being repeatedly emphasized in these articles for readers to turn back to God and His Word, instead of going after and following men and their words, usually given as denominational teachings, rules and practices for the local congregations to follow.

This sixth elementary principle given in Hebrews 6:1-2, is not just about “judgment,’ but there is an adjective “eternal” that the Holy Spirit has had written with it, in God’s Word. It is equally necessary for the Christians to keep in mind the implications of this adjective. The adjective “eternal” means that this judgment will be once and for all; the final judgement, which will never ever be altered or revoked. Some sects and denominations preach and teach of an intermediate place between heaven and hell, where the souls of the dead stay for some time, and from where they can be redeemed and taken to heaven through some deeds done on their behalf by people on earth. Some others are under the misconception that after a period of time of suffering, proportionate to the kind of lives people have lived on earth, eventually God will receive every one into heaven. We will ponder over the implications of judgment being eternal from the next article.

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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