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बुधवार, 2 अक्टूबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 208

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 53


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 3 - प्रभु-भोज (28) 

भाग लेने से ज़िम्मेदारी (1) 


पिछले कुछ लेखों से हम प्रभु की मेज़ में भाग लेने से संबंधित बातों को देखते आ रहे हैं, और अब हम 1 कुरिन्थियों 10:16-22 से कुछ बातों को देख रहे हैं। हम इस खण्ड से देख चुके हैं कि न केवल यह परमेश्वर की आशा है कि उसके प्रभु भोज में भाग लेने वाले, संसार के लोगों से भिन्न रीति से जीवन जीएंगे और व्यवहार करेंगे; बल्कि परमेश्वर का वचन उनके लिए ऐसा करना अनिवार्य बताता है। यह खण्ड दिखाता है कि प्रभु की मेज़ में भाग लेने वाले के लिए इस भाग लेने के दो अभिप्राय और एक ज़िम्मेदारी है। दो अभिप्राय यह हैं कि भाग लेने वाला प्रभु के साथ निरंतर सहभागिता में अर्थात निकट संगति में बना रहेगा, तथा अन्य विश्वासियों के साथ एकता में रहेगा। पिछले लेखों में हम इन दोनों अभिप्रायों को देख चुके हैं, और इस बात का ध्यान किया था कि प्रभु भोज में भाग लेने के द्वारा, भाग लेने वाला इन बातों की पुष्टि करता है, इन्हें दोहराता है कि वह प्रभु के साथ निकट संगति में रहने तथा अन्य विश्वासियों के साथ एकता में रहने के लिए प्रतिबद्ध है। मसीही विश्वासी के लिए संसार से पृथक होकर रहने की ज़िम्मेदारी बहुत महत्वपूर्ण है, और इस ज़िम्मेदारी का निर्वाह न करने के परिणाम बहुत हानिकारक हैं। परंतु जैसे कि उपरोक्त अभिप्रायों को मण्डलियों में शायद ही कभी बताया और सिखाया जाता है, उसी प्रकार से, इस ज़िम्मेदारी और उसके निर्वाह के बारे में भी शायद ही कभी बताया और सिखाया जाता है। इसका मुख्य कारण यही है कि अधिकांश ईसाई या मसीही, यहाँ तक कि विश्वासी भी, प्रभु की मेज़ को एक रीति के समान लेते हैं, और उसमें भाग लेने से संबंधित बातों के बारे में या तो अनभिज्ञ हैं अथवा भाग लेने वाले के लिए मेज़ से संबंधित बातों और उनके अभिप्रायों के बारे में गंभीर नहीं हैं।


आगे बढ़ने से पहले एक निवेदन है - बेहतर समझने के लिए कृपया 1 कुरिन्थियों 8 अध्याय पढ़ लीजिए। इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि यह है कि मूर्तियों को बलि चढ़ाए गए पशुओं को लोगों द्वारा भोजन के समान उपयोग करने के लिए लाया जाता था, और जन-सामान्य उन्हें उस देवी या देवता के प्रति अपनी श्रद्धा दिखाने के लिए भोजन के रूप में उपयोग करते थे। इस प्रकार से अप्रत्यक्ष रीति से वे न केवल उस देवी या देवता के अस्तित्व का अंगीकार करते थे वरन साथ ही उस देवी या देवता के साथ जुड़ी हुई जो भी शक्तियाँ मानी जाती थीं, उन्हें भी स्वीकार करते थे। किन्तु मसीही विश्वासी उसे केवल एक भोजन वस्तु के समान लेते थे, किसी देवी या देवता के प्रति श्रद्धा दिखने या उसकी शक्ति को मानने के लिए नहीं। किन्तु इससे कुछ नए मसीही विश्वासियों के लिए समस्या उत्पन्न होने लगी थी। ये नए विश्वासी समझने लगे थे कि बलि किए हुए पशु को खाने का तात्पर्य था कि वरिष्ठ मसीही विश्वासी भी उन देवी-देवताओं को तथा उनकी शक्तियों कुछ महत्व और अस्तित्व प्रदान कर रहे हैं, और इस कारण ये नए विश्वासी, दोनों - प्रभु यीशु तथा किसी देवी या देवता को आदर देने के द्वारा, अनजाने में, न चाहते हुए भी, मूर्ति पूजा, तथा एक से अधिक ईश्वरों की उपासना में फंस रहे थे। इसीलिए पौलुस 8 अध्याय का अंत इस घोषणा के साथ करता है कि “इस कारण यदि भोजन मेरे भाई को ठोकर खिलाए, तो मैं कभी किसी रीति से मांस न खाऊंगा, न हो कि मैं अपने भाई के ठोकर का कारण बनूं” (1 कुरिन्थियों 8:13)। पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस 1 कुरिन्थियों 10:19-20 में, मूर्तियों को बलि चढ़ाई हुई वस्तुओं में भाग लेने के अभिप्रायों को समझाने के द्वारा, मसीही विश्वासी की ज़िम्मेदारी को बताता है, कि वह संसार और उपासना के सांसारिक तरीकों से अलग रहे। और यह बात परमेश्वर अपने लोगों, इस्राएलियों, को बहुत पहले ही बता चुका था (व्यवस्थाविवरण 12:1-4, 29-32)।


यह निर्देश देने और समझाने के द्वारा, पौलुस यहाँ पर मूर्तियों और गैर-मसीही देवी-देवताओं को चढ़ाई हुई भोजन वस्तुओं को खाने के बारे में एक और बहुत महत्वपूर्ण बात सामने लेकर आता है। संभवतः वो मसीही विश्वासी या तो अभी तक इस बात से अनभिज्ञ थे, या उन्होंने इस पर कभी गंभीरता से विचार नहीं किया था। पौलुस पद 19 में, आलंकारिक प्रश्नों को पूछने के द्वारा, मसीही विश्वासियों के लिए किसी मूर्ति या देवी-देवता के अस्तित्व और महत्व के होने, या उसे चढ़ाए हुए किसी बलिदान का कोई महत्व होने के विषय किसी भी गलत धारणा को नकारने के साथ बात आरंभ करता है। फिर वह अपनी मुख्य बात पर आता है, कि वे देवी-देवता, जिनका प्रतीक वे मूर्तियाँ थीं, ईश्वर नहीं दुष्टात्माएँ हैं। इसलिए उन देवी-देवताओं को चढ़ाए गए बलिदान ईश्वर को नहीं दुष्टात्माओं को चढ़ाए गए हैं। और फिर पद 18 में कही गई अपनी बात के आधार पर वह समझाता है कि जिस प्रकार इस्राएल के बलिदानों में भाग लेने वाले परमेश्वर की वेदी के भी भागीदार होते थे, उसी प्रकार, मूर्तियों या उन देवी-देवताओं, अर्थात दुष्टात्माओं को चढ़ाए गए बलिदानों में भाग लेने वाले भी स्वतः ही अपने आप को दुष्टात्माओं के साथ सहभागी कर लेते हैं। और पौलुस, जो उनका शिक्षक और आत्मिक मार्गदर्शक था, नहीं चाहता था कि वे किसी भी प्रकार से इस अपवित्र संबंध में जुड़ें। मसीही विश्वासियों को, अपने आप को दुष्टात्माओं की उपासना से संबंधित अथवा प्रभावित और दूषित किसी भी बात से बिल्कुल पृथक रखना है। क्योंकि पौलुस ने यह पत्री पवित्र आत्मा की अगुवाई में लिखी है, पौलुस द्वारा मसीही विश्वासियों के लिए किसी बात का न चाहना, परमेश्वर द्वारा उनके लिए उस बात के न चाहने के तुल्य है।


एक प्रकार से यह उसी बात को चित्रित करता और उसकी पुष्टि करता है जो हाग्गै 2:11-14 में कही गई है, कि किस प्रकार किसी अशुद्ध वस्तु के साथ संपर्क में आने से अशुद्ध शुद्ध नहीं हो जाता है, बल्कि शुद्ध ही अशुद्ध होता है। इसी बात को पौलुस ने भी इसी पत्री में थोड़ा और आगे कहा है, “धोखा न खाना, बुरी संगति अच्छे चरित्र को बिगाड़ देती है” (1 कुरिन्थियों 15:33)। यह हमें दिखाता है कि कैसे शैतान सीधी, सरल और महत्वहीन दिखने वाली बातों के द्वारा भी बहका देता है, हमें लगता है कि हम विश्वास में स्थिर और दृढ़ खड़े हैं, और इस पर घमण्ड भी करते हैं, किन्तु शैतान हमें बहका कर हमसे परमेश्वर के प्रतिकूल करवा रहा होता है (1 कुरिन्थियों 10:12)। इसी लिए प्रत्येक मसीही विश्वासी को बहुत चौकन्ना होकर, और बहुत जाँच-परख कर कुछ भी करने वाला होना चाहिए, विशेषकर जब बात किसी भी रीति से किसी अन्य-जाति उपासना या मूर्ति पूजा से संबंधित होती है। परमेश्वर ने इसके विषय इस्राएलियों को पहले ही चिता दिया था, जब उन्हें मिस्र के दासत्व से छुड़ाकर लाया था, कि वे किसी भी रीति से अन्य-जातियों के साथ संबंध न रखें, विशेषकर वैवाहिक संबंध तो कदापि नहीं (निर्गमन 34:12-16)। इस्राएल का इससे आगे का इतिहास इस बात का चित्रण और प्रमाण है कि जब भी उन्होंने परमेश्वर के इस निर्देश की अवहेलना की, वे हमेशा ही अनेकों प्रकार से गंभीर समस्याओं में पड़ गए। समझदारी और सुरक्षा हमेशा ही अन्य-जातियों की उपासना और मूर्तिपूजा से बचकर और अलग रहने में ही है, नहीं तो हम भी अपने विश्वास के साथ समझौता कर बैठने की स्थिति में आ सकते हैं। अगले लेख में हम मसीही विश्वासियों द्वारा अपने आप को संसार और सांसारिक उपासना के तरीकों से अलग रखने के कुछ और उदाहरणों और निर्देशों के बारे में देखेंगे।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Things Related to Christian Living – 53


The Four Pillars of Christian Living - 3 - Breaking of Bread (28)

Responsibility Because of Participation (1)

 

For the past few articles, we have been considering some matters related to participation in the Lord’s Table, and have now been looking at this from 1 Corinthians 10:16-22. We have seen from this passage that not only does God expect that the participants in His Holy Communion will live life and behave differently than the people of the world; but God’s Word states this is mandatory for them. This passage shows that for those who partake of the Lord’s Table, doing so has two implications and one responsibility. The implications are that the participant lives a life of continual communion or close fellowship with the Lord, and of unity with the other participants; and one responsibility is that the participant lives a life of separation from the world. We have considered both the implications in the previous articles, and noted that through participation in the Holy Communion, the participants affirm and renew their commitment of remaining in, and living in close fellowship with the Lord Jesus, and of living in unity with the other Believers. The responsibility of living a life of separation from the world is of great importance for the Christian Believer, and not fulfilling it has grave consequences. But just as the implications are hardly, if ever, told and taught to the congregation, similarly emphasizing the responsibility and its fulfillment too are usually neglected. The main reason is because most Christians, even Believers, take the Lord’s Table like a ritual, and are either unaware or not serious about what participating in it means and implies for the participant.


       Before we proceed further, a request – please read 1 Corinthians chapter 8 here, for a better understanding. The historical background here is that the animals sacrificed to idols were made available for consumption by the public, and the public ate them as an act of reverence towards the deity, thereby quietly not only acknowledging the deity’s existence but also accepting as fact whatever powers were believed to be associated with that deity. But the Christian Believers were taking and eating that meat, not in reverence to the deity, but merely as a food item. But this was causing some problems for the new Believers. These new Believers assumed that eating that meat of the sacrifice, implied that the senior Believers were giving some recognition and weightage to the Pagan deities, and thus the new Believers were inadvertently, indirectly falling into the trap of polytheism and idol worship, by honoring both, the Lord Jesus as well as the Pagan deities. Therefore, Paul concludes chapter 8 with the declaration that “Therefore, if food makes my brother stumble, I will never again eat meat, lest I make my brother stumble” (1 Corinthians 8:13). In 1 Corinthians 10:19-20, Paul, through the Holy Spirit, states the responsibility of the Christian Believer, of staying separate from the world and its ways of worship, by explaining the implications of their partaking in things sacrificed to idols. God had already forbidden His people, the Israelites, to fall for this tendency of worshiping like the Gentiles worship their deities, much earlier (Deuteronomy 12:1-4, 29-32).


In explaining and instructing in this manner, Paul here brings up another very important aspect of eating the food items that had been sacrificed to idols and non-Christian deities. Probably those Christian Believers were still not aware of this point, or had not considered it seriously enough. Paul, using rhetorical questions, starts with a clarification in verse 19, negating any possible misconceptions the Believers may have about the importance of an idol or anything sacrificed to it having any bearing on their lives. Then, he comes to his main point, the deities physically represented by those idols, are demons, not God. Therefore, the sacrifices made to those deities are made not to God but to demons. Drawing upon his earlier statement of verse 18, he explains his point, that just as the partakers of Israel’s sacrifices are also automatically partakers of the altar of God; similarly, the partakers of these sacrifices to the idols, i.e., to demons, automatically bring themselves into fellowship with demons. And Paul, as their mentor, their spiritual guide, does not want them to get into this unholy alliance, even inadvertently. They, the Christian Believers, have to keep themselves aloof from anything tainted by any demonic worship or influence. Since Paul is writing this letter under the guidance of the Holy Spirit, Paul’s not wanting the Christian Believers to do a thing is tantamount to actually God not wanting them to do it.


This, in a way, serves to illustrate the point made in Haggai 2:11-14, how coming in contact with unholy things defiles the holy, and not vice-versa; i.e., the holy does not make the unholy holy, but the holy becomes unholy. This same thing is stated by Paul in this very letter a little later, in 1 Corinthians 15:33, “Do not be deceived: Evil company corrupts good habits.” This shows how Satan tricks us through seemingly simple, straightforward and inconsequential activities, and while we may think and even take pride in standing firm in our faith, Satan has actually tricked us into acting contrary to God (1 Corinthians 10:12). Therefore, a Christian Believer needs to be very wary, very discerning about whatever he does, especially when it comes to coming in any contact with Pagan worship in any manner. God had warned the Israelites about this soon after bringing them out of Egypt, while they were on their way to Canaan, to not mingle with the Gentiles, and not to make any matrimonial alliances with them (Exodus 34:12-16). The subsequent history of Israel amply demonstrates that by disregarding this instruction from God, they always fell into serious trouble in more ways than one. The safe thing is to always avoid and stay away from anything related to or involving Pagan worship, lest we be misled and inadvertently end up compromising our Faith. We will look into some other examples and instructions about the responsibility of the Believers to keep themselves separate from the world, particularly anything related to worldly ways of worship, in the next article.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


 

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