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बुधवार, 12 जून 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 98

 

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आरम्भिक बातें – 59

हाथ रखना – 7

 

इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छः आरंभिक बातों में से चौथी, “हाथ रखना” पर ज़ारी हमारे अध्ययन में हम ने पिछले लेख में देखा था कि कुछ समुदायों और डिनॉमिनेशनों के लोगों ने बाइबल के कुछ पदों को उन के सन्दर्भ से बाहर ले कर उन की गलत व्याख्या की है और उन का दुरुपयोग यह झूठी शिक्षा देने के लिए किया है कि पवित्र आत्मा कलीसिया के अगुवों या प्राचीनों के हाथ रखने के द्वारा दिया जाता है। साथ ही हम ने वाक्यांश “हाथ रखना” को, व्यक्ति के किसी विशेष उद्देश्य, कार्य, अथवा सेवकाई के लिए नियुक्त किए जाने या विधिवत निर्धारित किए जाने के सन्दर्भ में भी देखा था, और किसी की ओर संगति या सहभागिता का हाथ बढ़ाने के बारे में भी देखा था, कि किसी को इस प्रकार से छूने या उस पर हाथ रखने का अभिप्राय, मूलतः उस व्यक्ति के साथ एकता तथा मिलाप को व्यक्त करना, उसे समर्थन का आश्वासन देने, और यदि कोई किसी भय या बेचैनी से हो कर निकाल रहा है, तो उसे शान्ति देने के लिए भी किया जाता है। हम दैनिक जीवन में इस बात को बहुधा होते हुए देखते हैं, जब हम किसी का आलिंगन करते हैं या उसे बाँहों में भरते हैं, या किसी के कंधों पर हाथ रख कर उसे इस एकता, मिलाप, समर्थन, शान्ति, आदि का आश्वासन व्यक्त करते हैं। इस प्रकार हम देख और समझ सकते हैं कि बाइबल में उपयोग किए जाने के सन्दर्भ में भी किसी पर हाथ रखना, या किसी की ओर हाथ बढ़ाना, मूलतः उस व्यक्ति से यह व्यक्त करना है कि हम उसके साथ मसीही सहभागिता में एक हैं, उनके मसीही कार्यों के विषय उनका समर्थन करते हैं, और हमारे तथा उस व्यक्ति के मध्य किसी प्रकार की कोई भिन्नताएँ अथवा बाधाएँ नहीं हैं।

एकता और मिलाप की इस बात का एक अच्छा उदाहरण है हनन्याह की पौलुस (जो उस समय शाऊल कहलाता था) से पहली मुलाक़ात, जो पौलुस के दमिश्क के मार्ग पर प्रभु यीशु के साथ हुए साक्षात्कार के कुछ ही समय के बाद हुई। पौलुस से मिलने पर हनन्याह ने उसे “भाई शाऊल” कह कर संबोधित किया, और उस पर हाथ रखे, और प्रेम सहित उसे परमेश्वर का सन्देश दिया। यद्यपि, इस से पहले, जब परमेश्वर ने हनन्याह से पौलुस से जा कर बात करने के लिए कहा था, तो वह जाने के लिए तैयार नहीं था, और इस ज़िम्मेदारी से बच निकलने के तरीके ढूँढ़ रहा था। किन्तु जब परमेश्वर ने उसे यह करने के लिए राज़ी कर लिया, तो हनन्याह ने अपनी सभी आपत्तियों और पौलुस को लेकर सभी आशंकाओं को पीछे छोड़ दिया, और खुले मन से उस के पास गया, और उसे मसीही विश्वासियों के साथ संगति और सहभागिता में स्वीकार कर लिया (प्रेरितों 9:10-17)। इसी प्रकार से आश्वस्त करने और शान्ति देने का उदाहरण हम कलीसिया की देखभाल और कार्यों को करने के लिए चुने गए सात लोगों पर प्रेरितों द्वारा हाथ रखने (प्रेरितों 6:1-6) की घटना से भी देखते हैं। इन सात लोगों को कलीसिया के लोगों में से ही चुना गया था, क्योंकि प्रेरित अपना समय प्रार्थना और वचन की सेवकाई में लगाना चाहते थे। इन सातों को प्रेरितों के द्वारा दिए गए गुणों, कि वे सुनाम, पवित्र आत्मा और बुद्धि से परिपूर्ण हों (प्रेरितों 6:3) के अनुसार ही चुना गया था। अर्थात, प्रेरितों द्वारा उन पर हाथ रखने से पहले ही उन में ये गुण विद्यमान थे; ऐसा नहीं था कि प्रेरितों द्वारा हाथ रखने के कारण उन में कोई अन्य विशेष क्षमता आ गई। इसलिए, उन्हें ज़िम्मेदारी के लिए नियुक्त करने के अतिरिक्त, हाथ रखने के द्वारा उन्हें ऐसा क्या विशेष मिला होगा? ज़िम्मेदारी के लिए यह नियुक्ति तो उन के लिए प्रार्थना कर के, उन्हें प्रभु के हाथों में सौंपने और उनके लिए उपयुक्त बुद्धि और समझ मांगने के द्वारा भी की जा सकती थी। तो फिर प्रेरितों द्वारा उन पर हाथ रखने का उन सातों के लिए क्या अभिप्राय हुआ; क्या महत्व था? अभी तक जो हमने देखा है, उसे ध्यान में रखते हुए, उन पर प्रेरितों द्वारा हाथ रखने से ये सातों निश्चय ही आश्वस्त हुए होंगे कि जिम्मेदारियों के निर्वाह के लिए उन्हें प्रेरितों के उन के साथ होने का आश्वासन है, और समय तथा आवश्यकता के अनुसार वे निःसंकोच उन के पास जा सकते हैं, उन की सहायता ले सकते हैं। प्रेरितों के द्वारा उन्हें शारीरिक रीति से छू लेना, उनके लिए, अपनी जिम्मेदारियों को निभाने के लिए आश्वस्त करने और शान्ति देने वाला रहा होगा। हाथ रखने से सम्बन्धित इस समझ की पुष्टि, पौलुस द्वारा तीमुथियुस को दिए गए निर्देश से भी हो जाती है “किसी पर शीघ्र हाथ न रखना और दूसरों के पापों में भागी न होना: अपने आप को पवित्र बनाए रख” (1 तीमुथियुस 5:22)। इस पद से हम देखते हैं कि किसी व्यक्ति पर “हाथ रखना” उस के साथ एकता और मिलाप को व्यक्त करता है; उसके कामों में, पापों में भी, सहभागी होना दिखाता है; और इस कारण से अनजाने में परमेश्वर का सेवक अपवित्र भी हो सकता है। दूसरे शब्दों में, किसी पर हाथ रखने का तात्पर्य उस के साथ एकता, मिलाप, और सहभागिता को व्यक्त करता है, और पुष्टि करता है कि वह व्यक्ति अब मसीही संगति और सहभागिता में औरों के साथ है।

एकता, मिलाप, और सहभागिता को व्यक्त करने वाले हाथ रखने के इस निहितार्थ को पहचानना और इस पर विचार करने के द्वारा इसे समझना बहुत आवश्यक है। हमारे अध्ययन के अगले भाग में हम इस निहितार्थ का उपयोग उन तीन पदों, अर्थात प्रेरितों 8:17; 9:17; 19:6 को समझने के लिए करेंगे, जिन की गलत व्याख्या के आधार पर यह झूठी शिक्षा दी जाती है कि पवित्र आत्मा हाथ रखने के द्वारा दिया जाता है। साथ ही हम इस निहितार्थ का उपयोग मसीही विश्वास के इतिहास की एक अन्य बात को पहचानने और समझने के लिए भी करेंगे, जिस को जानना और समझना इन तीनों पदों की सही व्याख्या के लिए आवश्यक है। क्योंकि इस बात का ध्यान नहीं रखा जाता है इसलिए इन पदों से वह कहलवाया जाता है जिसे कहने के लिए ये कभी लिखे ही नहीं गए थे।

पाठकों से एक और निवेदन है कि पवित्र आत्मा को प्राप्त करने से संबंधित एक पहले की ब्लॉग-पोस्ट को, इस लिंक के द्वारा https://rozkiroti.blogspot.com/2022/07/blog-post.html अवश्य पढ़ लें, क्योंकि इस से प्रेरितों के काम के इन तीनों पदों को समझने में सहायता मिलेगी। अगले लेख में हम यहाँ से आगे देखेंगे।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


The Elementary Principles – 59

Laying on of Hands - 7

 

In our on-going study of the six elementary principles given in Hebrews 6:1-2, we are presently considering the fourth one, i.e., “laying on of hands,” in the previous article we have seen that some sects and denominations have misinterpreted some verses from the Bible out of their context and misused them to create a false teaching, a wrong doctrine that the Holy Spirit is given by the laying of hands by the Church Elders. We have also seen that the phrase “laying on of hands” upon a person in context of their being ordained or commissioned and sent for God’s service, and the act extending a hand of fellowship, also implies that the physical act of touching or of placing one’s hand upon another is basically to convey a sense of unity and solidarity with that person, to convey assurance to him of support, and to comfort someone passing through fear or uneasiness. We see this meaning often being enacted out in our day-to-day life, when we embrace or hug someone, or place our hands on their shoulders to convey these meanings of unity, solidarity, assurance, and comfort to them. So, we can see and understand that even in the Biblical usage this laying on of hands, or placing of hands on someone, or extending our hands to someone, essentially conveys to the other person our accepting or acknowledging our unity with that person in Christian fellowship, being concerned about their Christian endeavors, and there being no differentiations or barriers between us and them.

A good illustration of this is the meeting of Ananias with Paul (then called Saul) soon after Paul’s encounter with the Lord Jesus on the road to Damascus. On meeting Paul, Ananias addressed him as “Brother Saul” and laid hands on him, lovingly conveying God’s message to him. Although prior to this, when God had asked Ananias to go and speak to Paul, he had been unwilling and had tried to wriggle out of going and meeting Paul. But when convinced by God, Ananias dropped all his objections and apprehensions about Paul, and went to him with open arms, accepting him into the fellowship of the Believers (Acts 9:10-17). A similar sense is seen in the Apostles laying hands on seven men chosen from amongst them for managing the affairs of the congregation, while the Apostles devoted themselves to prayer and the ministry of God’s Word (Acts 6:1-6). These seven men upon whom the Apostles had laid their hands, were chosen from amongst their congregation, and as per the criteria given by the apostles in Acts 6:3, the seven were already those having a good reputation, filled with the Holy Spirit, and wise, before the Apostles had laid their hands on them; it was not that by the laying of hands on them by the Apostles, these seven men gained something special. So, besides commissioning them for the responsibility, which could just as well have been done by simply by instructing them, praying for them, and committing them into the Lord’ hands for guidance and help, without the laying of hands on them, what did the act of laying of hands on them by the Apostles convey to these seven? In light of the above, these seven would definitely have felt assured that they had the support and backing of the Apostles, for carrying out their responsibilities, and in times of need they could seek their help and guidance without any hesitation. That physical touch of the Apostles hands would have been very reassuring and comforting to them for the work they were being entrusted to do. This understanding of laying on of hands is further affirmed by Paul’s instructions to Timothy “Do not lay hands on anyone hastily, nor share in other people's sins; keep yourself pure” (1 Timothy 5:22). We see from this verse that “laying of hands” on a person conveys the impression of solidarity with them, being party to their deeds, even their sins, because of which inadvertently the servant of God is rendered impure. In other words, the laying of hands on someone implies affirming unity and fellowship with that person, being joined with him, or accepting him as one who is united with the fellowship.

It is very important to realize this implication of expressing solidarity and unity through the use of the phrase “laying on of hands,” and to ponder over it to understand it. In the next part of our study on this subject we will be using this implication for understanding the three verses, i.e., Acts 8:17; 9:17; 19:6 which are misinterpreted and misused to preach and teach the false doctrine that laying of hands is required to receive the Holy Spirit. We will be using this implication and understanding for another very important aspect of the history of the Christian faith, related to these three verses. Realizing and understanding that aspect is also equally important to realize and understand the true meaning of these three verses, and to see how they are misinterpreted and made to say, what they were never meant to say.

It is requested that the readers please go through a previous blog-post on the topic of Receiving the Holy Spirit through this link: https://rozkiroti.blogspot.com/2022/07/blog-post.html since it will help in understanding the subsequent discussion about these three verses from Acts. We will carry on from here in the next article.

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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