मसीही विश्वास एवं शिष्यता – 7
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मसीही विश्वास रीतियाँ, विशेष दिन, त्यौहार मनाना नहीं है
कल हमने मसीही विश्वास के स्थान पर मसीही धर्म या ईसाई धर्म के मानने वालों तथा उस धर्म की बातों को पूरा करने वालों में विद्यमान एक धारणा के बारे में देखा था - परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए गणित के एक समीकरण के समान धारणा रखना। इस “समीकरण” वाली धारणा रखने वाले लोग यह विचार रखते हैं कि यदि कोई प्रभाव जीवन में कुछ गुण लाता है, तो फिर किसी के जीवन में उन गुणों का होना इस बात का प्रमाण है कि वे उस प्रभाव के कारण ही हैं। जबकि यह सत्य नहीं है। इसे यदि एक बहुत सहज और सामान्य उदाहरण से समझें, दूध एक सफेद तरल पदार्थ है; किन्तु हम भली-भांति जानते हैं कि हर सफेद तरल पदार्थ न तो दूध होता है और न दूध के समान प्रयोग किया जा सकता है; और साथ ही यह भी जानते हैं कि दूध के समान दिखने वाले “नकली दूध” भी बाजार में मिल जाते हैं, किन्तु वे हानिकारक होते हैं, दूध के समान पौष्टिक भोजन वस्तु नहीं होते। ऐसा नहीं है कि मसीही या ईसाई धर्म में आस्था रखने वाले परमेश्वर से प्रेम नहीं करते, या प्रभु परमेश्वर के विरुद्ध हैं; वास्तविकता तो यही है कि वे भी अपनी ही रीति और विधि के अंतर्गत प्रभु परमेश्वर को चाहते हैं, उसे पूरा आदर और जीवन में उच्च स्थान देना चाहते हैं, किन्तु उनका यह प्रयास परमेश्वर के वचन से संगत नहीं है, इसलिए अपूर्ण और निष्फल है। इन लोगों के लिए पौलुस प्रेरित द्वारा पवित्र आत्मा की अगुवाई में भक्त इस्राएलियों के लिए लिखी गई बात पूरी होती है, “हे भाइयो, मेरे मन की अभिलाषा और उन के लिये परमेश्वर से मेरी प्रार्थना है, कि वे उद्धार पाएं। क्योंकि मैं उन की गवाही देता हूं, कि उन को परमेश्वर के लिये धुन रहती है, परन्तु बुद्धिमानी के साथ नहीं। क्योंकि वे परमेश्वर की धामिर्कता से अनजान हो कर, और अपनी धामिर्कता स्थापन करने का यत्न कर के, परमेश्वर की धामिर्कता के आधीन न हुए” (रोमियों 10:1-3)।
अपनी इसी धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह की धार्मिकता की धारणा के अंतर्गत, वे यही मानते हैं कि कुछ विधि-विधान पूरे कर देने, कुछ त्यौहारों, विशेष दिनों, और रस्मों को निभा लेने, और मसीही विश्वासियों के समान कुछ बातों का पालन कर लेने से वे भी मसीही विश्वासी ही हो जाते हैं। पतरस प्रेरित ने पवित्र आत्मा की सामर्थ्य प्राप्त करने के बाद जब यरूशलेम में एकत्रित भक्त यहूदियों के सामने पहला सुसमाचार प्रचार किया (प्रेरितों 2 अध्याय) तो उन यहूदियों में से लगभग 3000 ने प्रभु यीशु मसीह को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण किया और प्रभु के शिष्यों के समूह में सम्मिलित हो गए (पद 41)। यही प्रथम कलीसिया, या चर्च अथवा मण्डली का आरंभ था। इससे अगला पद (पद 42) बताता है कि इस प्रथम मण्डली के लोग चार बातों में ‘लौलीन रहते थे’, “और वे प्रेरितों से शिक्षा पाने [परमेश्वर के वचन के अध्ययन और शिक्षा], और संगति रखने [विश्वासी लोगों के साथ एकत्रित होते रहने] में और रोटी तोड़ने [प्रभु भोज में भाग लेते रहने] में और प्रार्थना करने [साथ मिलकर परमेश्वर से संगति और निवेदन करने] में लौलीन रहे।” अब इन्हीं चार बातों का पालन मसीही या ईसाई धर्म के लोग भी करते हैं, किन्तु न तो वे इनमें लौलीन रहते हैं, और न ही उस प्रकार से करते हैं जिस प्रकार से वचन में सिखाया और दिखाया गया है, वरन धर्म का पालन करने वाले अधिकांश लोगों के लिए ये चारों बातें कुछ निर्धारित दिनों में एक रस्म के समान निभाने के लिए हैं, जिनका निर्वाह करके वे मानते हैं कि उन्होंने भी मसीही विश्वासियों के समान वचन की शिक्षा को पूरा कर लिया है, इसलिए वे भी मसीही विश्वासियों से भिन्न नहीं हैं। किन्तु वो इस आधारभूत तथ्य की अनदेखी कर बैठते हैं कि मसीही विश्वासी पहले स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों से पश्चाताप करता है, प्रभु यीशु से उनके लिए क्षमा माँगता है, अपना जीवन प्रभु यीशु को समर्पित करके उनका शिष्य बनता है, और फिर प्रभु की अगुवाई में, प्रभु के सिखाए, वह इन बातों में ‘लौलीन’ रहता है, इनका पालन करके इनके दर्शनों में बढ़ता और मसीही जीवन में परिपक्व होता जाता है।
साथ ही यहाँ पर ध्यान देने योग्य एक अन्य बहुत महत्वपूर्ण बात यह भी है कि परमेश्वर के वचन बाइबल में कही पर भी ऐसा कोई उल्लेख अथवा संकेत भी नहीं है कि प्रेरितों 2:42 में दी गई चार बातों के अतिरिक्त, आज मसीही धर्म का पालन करने वालों में जिन रीति-रिवाज़ों, त्यौहारों, परम्पराओं आदि को इतने महत्व और उत्साह के साथ माना, मनाया, और निभाया जाता है; जो बातें आज मसीहियत की पहचान बन गई हैं, उनका उन आरम्भिक मसीही विश्वासियों द्वारा कभी पालन किया गया हो, या उन्होंने उन बातों को कभी कोई महत्व दिया हो। यदि मसीहियत के इतिहास के आधार पर देखें, तो ये सभी बातें, त्यौहार, और रीतियाँ, मसीहियत में लगभग चौथी शताब्दी में उन लोगों के द्वारा लाई गईं जिनका वास्तव में उद्धार नहीं हुआ था। ये लोग अपने पूर्व-धर्म और मान्यताओं को अब एक "मसीही" नाम और स्वरूप देकर मानने और मनाने लगे, और मसीही विश्वास बिगड़ कर अब उन लोगों द्वारा गढ़े गए और माने जाने वाले ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गया। इसी ईसाई धर्म के प्रचार और प्रसार के साथ, उन लोगों के द्वारा लाई गईं और मनाई जाने वाली ये बातें, त्यौहार, और रीतियाँ भी दृढ़ता से मानी और मनाई जाने लगीं। बाइबल में ईसाई धर्म की इन बातों, त्यौहारों, और रीतियों का न तो कोई उल्लेख है, और न ही उनके निर्वाह के बारे में कोई शिक्षा अथवा निर्देश दिए गए हैं।
यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि जब मसीही विश्वास के आरम्भ से लगभग चौथी शताब्दी तक, मसीही विश्वासी, बिना इन बातों, त्यौहारों, रीतियों को मनाए, परमेश्वर को प्रसन्न करते आए थे, परमेश्वर के लोग बनकर रहते चले आए थे, तो फिर अब इन बातों, त्यौहारों, और रीतियों की, और वे भी परमेश्वर के द्वारा दी गई नहीं, बल्कि अन्य धर्मों से लाई गई और मनुष्यों द्वारा गढ़ी गई बातों की, क्या आवश्यकता आ पड़ी, उन्हें क्यों इतना महत्व मिलने लग गया? साथ ही, आज ईसाई धर्म से संबंधित उन बातों, त्यौहारों, और रीतियों का जो स्वरूप और उपयोग हो गया है, वह उनके उस मूल स्वरूप और उपयोग से भिन्न नहीं है जो उन्हें मसीहियत में लाए जाने से पहले उनका हुआ करता था। ये बातें न तब परमेश्वर को प्रसन्न करती थीं, और न ही आज करती हैं; उन्हें मानने और मनाने वाले चाहे जितने भी उत्साह, श्रद्धा, और भक्ति से उन्हें क्यों न मनाएं। थोड़ा सा थम कर विचार कीजिए, क्या इस सृष्टि का सृष्टिकर्ता, हमारा जीवता सच्चा परमेश्वर, अपनी आराधना और उपासना के लिए काल्पनिक, विधर्मी, पराए देवी-देवताओं की और मनुष्यों द्वारा गढ़ी गई रीतियों का मोहताज हो सकता है? क्या वे विधियाँ और रीतियाँ, वास्तव में उसे प्रसन्न करेंगी, उसे स्वीकार होंगी? जब उसने अपने वचन में "सब कुछ जो जीवन और भक्ति से सम्बन्ध रखता है" पहले से ही दे दिया है (2 पतरस 1:3); तो क्या वह मनुष्यों द्वारा उसके मूल वचन और खरी बातों का तिरस्कार कर, बाहरी बातों द्वारा उसके वचन में की जाने वाली इस मिलावट, इस फेर-बदल को कोई मान्यता देगा; उसे ग्रहण और आशीषित करेगा?
आरम्भिक मसीही विश्वासियों द्वारा पालन की जाने वाली बातों से संबंधित परमेश्वर के वचन बाइबल की कुछ शिक्षाओं को हम आगे आने वाले लेखों में देखेंगे। किन्तु यदि आपने अभी तक अपने आप को प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में समर्पित नहीं किया है, और आप अभी भी अपने जन्म अथवा संबंधित धर्म तथा उसकी रीतियों के पालन के आधार पर अपने आप को प्रभु का जन समझ रहे हैं, तो आपको भी अपनी इस गलतफहमी से बाहर निकलकर सच्चाई को स्वीकार करने और उसका पालन करने की आवश्यकता है।
आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Christian Faith & Discipleship – 7
Christian Faith is Not Fulfilling Rituals, Feasts, Festivals
In the last article we have seen that those who believe in following religion - the Christian religion or any other, instead of believing in and following the Christian faith, they believe in a false notion, that being acceptable to God is something like a mathematical equation. These people think and believe that if some process brings an effect and change in a person’s life, then the presence of similar effects and changes in someone’s life is automatically an evidence of the process being active in that person’s life as well. But this is not always true. We can understand this by a very simple and straightforward example - milk is a white-colored liquid; but we know very well that every white liquid is neither milk, nor can it be used or treated as milk! We also know that spurious milk that appears to be like milk is also available in the market, but the spurious milk though similar in appearance to the actual milk, is not nutritious and beneficial like milk; rather, it is quite harmful for those who consume it. This is not to say that all of those who profess to follow the Christian religion, do not love God, or are against the Lord God. In their own ways, by their own methods they love the Lord God and want to honor God, but their contrived efforts are not in accordance with God’s Word, hence are unacceptable to God and fruitless for those who believe in them. This is what, through the inspiration of the Holy Spirit, the apostle Paul wrote about the devout Israelites, “Brethren, my heart's desire and prayer to God for Israel is that they may be saved. For I bear them witness that they have a zeal for God, but not according to knowledge. For they being ignorant of God's righteousness, and seeking to establish their own righteousness, have not submitted to the righteousness of God” (Romans 10:1-3).
Under this thinking of righteousness through observance of religion-works-rituals, their belief and trust is that by fulfilling certain prescribed rituals and ceremonies, celebrating some feasts and festivals, observing certain days etc. and by behaving like Born-Again Christian Believers regarding some things, they also become Born-Again Christian Believers and acceptable to God. After receiving the power of the Holy Spirit, the apostle Peter preached the first gospel sermon to the devout Jews who had gathered in Jerusalem to fulfill religious obligations (Acts 2), asking them to first repent of their sins, and about 3000 of those Jews accepted the Lord Jesus, and joined the disciples of the Lord Jesus (Acts 2:41), and this was the beginning of the first Church or Assembly of Christian Believers. The next verse, Acts 2:42 tells us that those who belonged to this first Church remained steadfastly committed to four things as Christian Believers, “And they continued steadfastly in the apostles' doctrine [studying and learning God’s Word], and fellowship [gathering together with other Believers], in the breaking of bread [participating in the Lord’s Table], and in prayers [gathering together to worship and beseech the Lord].” Now, the followers of the Christian religion too do these four things, but they are not steadfastly committed to doing them; rather, they do it ritualistically and in accordance with the teachings of their denominations and sects, instead of as has been taught in the Bible. Nevertheless, they trust and believe that because they too have fulfilled these things, therefore they are no different from the Christian Believers, and will be treated as such by God, because they have fulfilled these four things. But they overlook the basic fact of paramount importance, that makes all the difference - to become a Christian Believer a person first repents of his sins personally and individually, confesses them to the Lord and asks for their forgiveness from Him, submits and commits his life to the Lord Jesus to become His obedient disciple, only then, under the guidance of the Lord he steadfastly follows these four things according to what is taught in the Bible about them, and not according to their own understanding, or their denominational or sectarian teachings about them. Through this committed obedience to the Lord, unlike those who do these things ritualistically, he does not remain stuck up at one place, but continues to grow and mature in his Christian life; evidenced by a separation from the world and the things of the world seen in his life. And this change affirms that his is not a ritualistic doing of these things, but a serious, committed and meaningful participation in submission and obedience to the Lord God.
Moreover, there is another very important thing to take note and consider, that in God's Word the Bible, there is no mention or even an indication that other than the four things given in Acts 2:42, those initial Christian Believers ever did anything else, or gave any importance to any of these things, i.e., the rituals, festivals, and traditions that the followers of the Christian religion believe in, observe, and celebrate with so much importance and enthusiasm; things that nowadays have become an identification of Christianity. If one considers these things from the history of Christianity, we see that all these things, festivals, and rituals were brought into Christianity around the 4th century AD by those who were not actually Born-Again. These people continued to observe, follow, and celebrate the things of their former religion, by giving them a "christian" name and form, and the Christian Faith was corrupted by them into their contrived Christian religion. As this Christian religion was preached and propagated, their things, festivals, and rituals also started being observed and celebrated resolutely. In the Bible, there is neither any mention, nor are there any teachings or instructions given about any of these things, festivals, and rituals that are associated with the Christian religion.
Now, another thing to ponder over is, that when till around the 4th century AD, since the beginning of the Christian Faith, the Christian Believers had been living lives pleasing to God, had been living as children of God, without any of these things, festivals, and rituals, then why did it become so essential to give so much importance and to observe these things, festivals, and rituals; and that too when they were not given by God, but were brought in from other religions, and had been contrived by men? And, the form and observance of these things, festivals, and rituals of the Christian religion that we presently see being followed by the world, is not much different from their original form and observance that they had before their being brought into christianity. These things neither pleased God at that time, nor do they please Him now; no matter how much enthusiasm, godliness, and religiosity they are observed and followed by those who believe in them. Stop a while and give it a thought, would the Creator of the creation, our living and true God, for His praise and worship be dependent upon things from paganism, idolatry, and religions contrary to Him; upon imaginary things, things contrived by human beings? Will such things and rituals actually be pleasing and acceptable to Him? When He has already given to us "all things that pertains to life and godliness" in His Word (2 Peter 1:3); then will He accept things made up by man by rejecting His Word and its teachings, and replacing them by bringing in things from outside to adulterate His Word? Will He give any recognition to such corruption; and would He accept, bless, and reward it?
In the coming days, from God’s Word the Bible, we will see some more details about following the things that the initial Christian Believers followed and did. But, if you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.