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सोमवार, 22 जुलाई 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 138

 

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आरम्भिक बातें – 99


परमेश्वर की क्षमा और न्याय – 5


पाप के प्रभाव, प्रतिफल, और परिणाम – 2

 

इब्रानियों 6:1-2 में दी गई आरम्भिक बातों में से छठी बात, “अन्तिम न्याय” पर हमारे इस अध्ययन में हम देख चुके हैं कि बाइबल के अनुसार यह न्याय उद्धार पाए हुए, नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों का होगा, ताकि उन्हें उस सब के लिए जो उन्होंने किया और अपने मनों में रखा है, उनके प्रतिफल और परिणाम मिल सकें। जो लोग इसे स्वीकार नहीं करते हैं, वे बाइबल के उन पदों को दिखाते हैं जहाँ लिखा है कि परमेश्वर पापों को क्षमा करता है, उन्हें पीठ के पीछे फेंक देता है, उन्हें भुला देता है; और इस आधार पर वे यह तर्क देते हैं कि यह संभव ही नहीं है कि जो पाप क्षमा कर के भुला दिये गए हैं, उन्हें कभी फिर से प्रकट करके न्याय के लिए लिया जाएगा। यद्यपि यह सच है की परमेश्वर पाप क्षमा कर के भुला देता है, लेकिन यह भी सच है कि परमेश्वर ही ने अपने अनन्तकालीन, अटल, त्रुटिहीन, कभी न बदलने, और कभी न बदले जा सकने वाले वचन में यह ठहराया है कि विश्वासी ने जो कुछ भी किया है या अपने मन में रखा है, वह चाहे भला हो या बुरा, वह प्रकट किया जाएगा और जाँचा जाएगा। यह समझने के लिए कि परमेश्वर के पापों को क्षमा करने और भुला देने में, तथा भुलाए गए पापों के प्रकट किये और जाँचे जाने में कोई विरोधाभास नहीं है, और यह दोनों बातें परस्पर विरोधाभासी नहीं हैं, बल्कि एक दूसरे की पूरक हैं, हमने कहा है कि हमें उन बातों को समझना पड़ेगा जो अदन की वाटिका में पहले पाप के साथ हुई थीं। क्योंकि पाप और उद्धार के इस विषय पर एक विस्तृत चर्चा इस ब्लॉग पर पहले की एक श्रृंखला में की जा चुकी है, इसलिए हम इन बातों के किसी विस्तृत विवरण में नहीं जाएँगे, बल्कि हमारे विषय से सम्बन्धित बातों को बहुत संक्षेप में देखेंगे। हमने पिछले लेख से पाप के प्रभाव, प्रतिफल, और परिणामों के बारे में देखना आरम्भ किया है, और देखा था कि बाइबल के अनुसार पाप और मृत्यु का क्या अर्थ है; और आज हम वहीं से आगे बढ़ेंगे जहाँ हम पिछले लेख में रुके थे।

पाठकों से निवेदन है कि यह देखने के लिए कि आदम और हव्वा के पाप करने के बाद क्या-क्या हुआ, बाइबल में से उत्पत्ति 3 अध्याय को पढ़ें। आदम और हव्वा ने खाने के लिए परमेश्वर द्वारा वर्जित फल को खा लेने के द्वारा पाप किया; सामान्य धारणा के विपरीत, पाप फल में नहीं था, बल्कि उनके द्वारा परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करने में था। परमेश्वर ने आज्ञा दी थी कि भले और बुरे के ज्ञान के वृक्ष के फल को उन्हें नहीं खाना है। लेकिन शैतान के बहकावे में आकर, उन्होंने फल को खाया, और परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन कर दिया; और पाप परमेश्वर की व्यवस्था, उसके नियमों का विरोध है (1 यूहन्ना 3:4)। सृष्टि और मानवजाति में पाप के प्रवेश के साथ, कुछ और बातें भी हुईं। जैसे ही मनुष्य ने पाप किया, पाप के कारण परमेश्वर के साथ उसकी संगति और सहभागिता टूट गई; उसी पल वह आत्मिक रीति से मर गया, और उस पल के बाद से वह शारीरिक मृत्यु की दशा में आ गया, इसे हम पिछले लेख में देख चुके हैं। इस प्रकार से उन पर मृत्यु दो तरह से आई – आत्मिक, अर्थात वे परमेश्वर के साथ संगति से दूर हो गए; और शारीरिक, अर्थात उनकी देह मरनी आरम्भ हो गई, और अन्ततः, उनका जीवन-काल समाप्त होने पर वे मर कर वापस मिट्टी में मिल गए। तब से लेकर अब तक, यह दशा प्रत्येक मनुष्य के साथ बनी रही है; प्रत्येक मनुष्य अपने जन्म के समय से ही परमेश्वर से दूर अर्थात आत्मिक मृत्यु की दशा में होता है, और शारीरिक रीति से दिन-प्रति-दिन मरता चला जाता है, और अन्ततः मिट्टी में मिल जाता है “इसलिये जैसा एक मनुष्य के द्वारा पाप जगत में आया, और पाप के द्वारा मृत्यु आई, और इस रीति से मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गई, इसलिये कि सब ने पाप किया” (रोमियों 5:12)। इस से हम देखते हैं कि पाप का प्राथमिक और तत्काल प्रभाव था मृत्यु, आत्मिक, एवं शारीरिक, केवल आदम और हव्वा के लिए ही नहीं, वरन समस्त मानव जाति के लिए।

फिर, इसके बाद आजीवन, विभिन्न प्रकार के और भिन्न तीव्रता के दुःख, परिश्रम और समस्याएँ, आदम और हव्वा पर लागू हो गए; और बिल्कुल यही प्रभाव, ठीक इसी तरह से, उनकी भावी पीढ़ियों में भी जीवन भर के लिए चला गया। परमेश्वर के साथ उनके वार्तालाप के बाद, आदम और हव्वा को अदन की वाटिका से, शान्ति और आशीष तथा परमेश्वर के साथ संगति के स्थान से, बाहर निकाल दिया गया; और उनके वापस लौट पाने की सम्भावना को भी समाप्त कर दिया गया (उत्पत्ति 3:24)। जैसा कि इसके बाद के अध्याय दिखाते हैं, परमेश्वर ने आदम और हव्वा और फिर उनके बाद की पीढ़ियों की देखभाल करना, उनके लिए उपलब्ध करवाना नहीं छोड़ा; और आज भी वह धर्मियों और अधर्मियों, दोनों की देखभाल करता है (मत्ती 5:45)। लेकिन परमेश्वर की समस्त देखभाल और सहायता के बावजूद, न तो आदम और हव्वा, और न ही उनकी कोई सन्तान फिर कभी अदन की वाटिका में, परमेश्वर की वैसी संगति और सहभागिता में, जैसी पाप के आने से पहले थी, लौट कर जा सके। साथ ही परमेश्वर की सहायता और देखभाल के बावजूद, उन्हें दुःख उठाना, परिश्रम करना, दिल दुखने की पीड़ा, तथा अनेकों प्रकार की अन्य समस्याओं को सहते रहना ही पड़ा। (एक वाक्य में – प्रभु यीशु में विश्वास लाने के द्वारा उद्धार पाने का अर्थ है इस दशा का पलट दिया जाना, परमेश्वर की संगति में बहाल हो जाना और इस पापमय देह से छूट जाने के बाद हमेशा परमेश्वर की संगति में रहने का आश्वासन प्राप्त हो जाना।) जिस प्रकार आदम और हव्वा अपनी पापमय देह के साथ फिर कभी अदन की वाटिका में प्रवेश नहीं कर सके, उसी तरह से हम अपने चारों ओर देखते हैं कि नया-जन्म पाने के बाद भी, परमेश्वर द्वारा पापों को क्षमा कर के भुला देने, परमेश्वर के साथ हमारी संगति बहाल हो जाने के बाद भी, उस पहले पाप के परिणाम मानव जाति को प्रभावित करते रहते हैं; और जब तक मनुष्य इस पापमय शरीर में है, ये दुष्प्रभाव बने ही रहेंगे। और, कोई भी इस पापमय देह के साथ स्वर्ग में प्रवेश नहीं करेगा, परन्तु प्रत्येक मसीही विश्वासी एक स्वर्गीय देह में परिवर्तित हो जाएगा, और तब स्वर्ग में प्रवेश करेगा (1 कुरिन्थियों 15:51-54)।

और पाप के सँसार में प्रवेश करने के साथ सम्बन्धित तीसरी बात है, हमारा वर्तमान अध्ययन का विषय – प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को मिलने वाले प्रतिफल और परिणाम, जो उसे उसके अनन्तकालीन घर, स्वर्ग, में पहुँचने पर दिए जाएँगे, “परन्तु जैसा लिखा है, कि जो आंख ने नहीं देखी, और कान ने नहीं सुना, और जो बातें मनुष्य के चित्त में नहीं चढ़ीं वे ही हैं, जो परमेश्वर ने अपने प्रेम रखने वालों के लिये तैयार की हैं” (1 कुरिन्थियों 2:9)। ये वो बातें हैं जिन्हें हम वहीं पहुँचने के बाद जान और समझ सकेंगे। इस पापमय शरीर और बुद्धि में उन अनन्तकालीन प्रतिफलों और परिणामों को समझ पाने की क्षमता नहीं है, जो परमेश्वर ने हमारे लिए तैयार कर के रखे हैं।

अगले लेख में हम यहाँ से आगे बढ़ेंगे।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation

The Elementary Principles – 99


God’s Forgiveness and Justice – 5


The Effects, Results and Rewards of Sin - 2

   

    In our study on “Eternal Judgment,” the sixth of the elementary principles given in Hebrews 6:1-2, we have seen that Biblically, this final judgment will be of the saved, the Born-Again Christian Believers, so that they may receive the rewards and consequences of all that they have done and kept in their hearts since their being saved. Those who do not accept this, point out Bible verses that show that God forgives sin, casts it behind His back and forgets it; on this basis they argue that there is no way that the forgiven sins will ever be exposed and taken up for judgment. While it is true that God forgives and forgets, yet it is also true that He has ordained in His eternal, infallible, inerrant, unchanging, and unchangeable Word that everything that every Believer has done or kept in his heart, whether good or bad, will be brought out and evaluated. To understand how there is no contradiction in God’s forgiving and forgetting sins, and also that everything, even the forgiven and forgotten sins will be brought out, and how these two lines of thought instead of contradicting each other, only complement each other, we have said that we need to understand what happened in the Garden of Eden when the first sin was committed. Since this topic of Sin and Salvation has already been discussed in detail in an earlier series, therefore we are not going into any details, but only considering the main issues relevant to our topic very briefly. We had begun to see about the effects, results, and consequences of sin in the last article, and had seen what sin and death mean Biblically; and today we will carry on from where we left in the previous article.

    The readers are requested to read Genesis chapter 3 from the Bible, to see what all happened soon after Adam and Eve sinned by eating the forbidden fruit; unlike what many think and believe, the sin was not in the fruit, but the sin was breaking God’s command by eating the fruit. God had commanded that the fruit of the tree of the knowledge of good and evil was not to be eaten. By falling for Satan’s deception, and eating the forbidden fruit, Adam and Eve broke God’s Law; and lawlessness, i.e., transgression of God’s Law is sin (I John 3:4). With the entry of sin into creation and mankind, some other things also happened. From the moment man sinned, his fellowship with God was broken because of sin; he died spiritually from that instant, and from that moment onwards, he was also condemned to die physically, we have seen this in the previous article. So, death came to them in two ways - spiritually i.e., they were separated from the company of God; And physically they started to die, and eventually died on completing their life-time, returning back to dust. This condition has remained with every human being since then; he is born in a state of being spiritually separated from God, and physically with a day by day decreasing age, dies at the end of his life-time, and eventually turns into dust "Therefore, just as through one man sin entered the world, and death through sin, and thus death spread to all men, because all sinned" (Romans 5:12). Here we see that the immediate and primary effect of sin i.e., death – spiritual and physical, not just for Adam and Eve, but for all of mankind.

    Then, lifelong pain, toil, problems, in various forms and intensity, till death were imposed on Adam and Eve; and this would get passed on into their generations. After their talk with God, they were thrown out of the Garden of Eden, the place of blessing and fellowshipping with God, and any possibility of their coming back into that place of peace and divine fellowship was prevented (Genesis 3:24). As the subsequent chapters show, God did not stop caring for Adam and Eve, or for mankind. He continued to meet their needs, help them, guide them; and even today, he still looks after and cares for the godly as well as the ungodly (Matthew 5:45). But despite all the help and care of God, Adam and Eve or their children could never return to the Garden of Eden or to the fellowship with God which they had before sin entered. Despite God’s help and care, they had to toil, suffer pain and heartbreak, and various other problems. (In one sentence – salvation through coming to faith in the Lord Jesus, reverses this state, restores man’s relationship with God and assures him of eternal life in His company after he is freed from this sinful physical body.) As Adam and Eve could never get back into the Garden of Eden in their sinful bodies, similarly we see all around us, that even after being Born-Again, or sins being forgiven and forgotten by God, our fellowship with God being restored, yet the results because of that first sin still continue to affect mankind, as long as they are in this sinful physical body. And, no one will enter heaven in this sinful body, but every Christian Believer will be changed into a heavenly body and then be taken into heaven (1 Corinthians 15:51-54).

    And the third thing related to the entry of sin into the world, is our current topic – the rewards and consequences that await every Born-Again Believer, once he reaches his eternal home in heaven, “But as it is written: "Eye has not seen, nor ear heard, Nor have entered into the heart of man The things which God has prepared for those who love Him” (1 Corinthians 2:9). These are things that we will only know and understand when we reach there. This sinful mind and body are incapable of grasping anything about those glorious eternal rewards and consequences that God has kept ready for us.

    We will carry on from here in the next article.

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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