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आरम्भिक बातें – 116
परमेश्वर की क्षमा और न्याय – 22
प्रभु की मृत्यु और उसके निहितार्थ – 4
इब्रानियों 6:1-2 में दी गई आरम्भिक बातों में से छठी बात, “अन्तिम न्याय” के हमारे इस अध्ययन में, पिछले लेखों में हमने देखा है कि प्रथम पाप के साथ तीन और बातें मानवजाति में आ गईं – पहली, मृत्यु, दोनों आत्मिक तथा शारीरिक; दूसरी, मनुष्य के लिए जीवन भर दुःख और परेशानी उठाना और परिश्रम करना; और तीसरी, उनके लिए जो परमेश्वर की ओर मुड़ने और उसे जीवन समर्पित करने का निर्णय लेते हैं, परमेश्वर के साथ उनके बहाल किए जाने और अनन्तकालीन प्रतिफल प्राप्त करने की प्रतिज्ञा। पाप के इन तीनों प्रभावों के विभिन्न पक्षों के बारे में देख लेने के बाद, वर्तमान में हम प्रभु यीशु मसीह की मृत्यु के निहितार्थों पर, न केवल इन तीनों प्रभावों के सन्दर्भ में, वरन अपने दैनिक जीवनों के सन्दर्भ में भी, विचार कर रहे हैं; और साथ ही यह भी देख रहे हैं कि आज मसीहीयत में प्रभु यीशु की मृत्यु का किस प्रकार से गलत शिक्षाएँ फैलाने के लिए दुरुपयोग किया जा रहा है। पिछले लेख में हमने देखा था कि किस प्रकार से इस तथ्य का कि प्रभु यीशु ने समस्त मानवजाति के सभी पापों की पूरी कीमत चुका दी है, यह सिखाने के लिए दुरुपयोग किया जा रहा है कि जो प्रभु को ग्रहण कर लेगा उसकी सभी समस्याओं का समाधान हो जाएगा, उसका जीवन आरामदेह हो जाएगा, और उसे साँसारिक समृद्धि मिल जाएगी, ताकि लोगों को साँसारिक लाभों का लालच देकर मसीह की ओर आकर्षित किया जाए; जबकि प्रभु ने इन किसी को भी इन बातों का कभी कोई आश्वासन नहीं दिया। आज हम प्रभु यीशु की मृत्यु से सम्बन्धित इसी प्रकार कि कुछ और बाइबल से असंगत झूठी शिक्षाओं और प्रचलित बातों को देखेंगे। यह करते हुए हमें पिछले लेख के अन्त की ओर कही गई बात को ध्यान में बनाए रखना चाहिए, कि, परमेश्वर ने जो कहा नहीं है, वह उसे कभी स्वीकार नहीं करेगा, न उसका कोई आदर करेगा, और न ही उसे कभी पूरा करेगा। प्रभु के नाम में प्रचार की जाने वाली गलत शिक्षाएँ और बातें, कभी किसी का कोई लाभ नहीं करेंगी, बल्कि समस्याओं को बढ़ाएँगी, हानि करेंगी।
प्रभु यीशु की मृत्यु से सम्बन्धित कुछ अन्य गलत प्रचार और शिक्षाएँ हैं कि उसके मार खाने से हमें बीमारियों से शारीरिक चँगाइयाँ मिलने का एक उपाय दिया गया है; और, बीमारियों, समस्याओं, विपरीत परिस्थतियों, आदि पर उसके लहू को, या उसके क्रूस को लगाने का दावा करने के द्वारा इन सभी का निवारण हमारे पक्ष में हो जाएगा। जबकि पवित्रशास्त्र का तथ्य यही है कि ये बातें बाइबल के कथन अथवा सत्य नहीं हैं, चाहे उन्हें कितनी भी ईमानदारी, भक्ति, और श्रद्धा की भावनाओं के साथ क्यों न कहा गया हो। वरन ये सभी बातें मनुष्य की कल्पना, उसके विचारों की उपज हैं।
प्रभु के मार खाने, अर्थात उसे क्रूस पर चढ़ाए जाने से पहले उसे जो कोड़े मारे गए और यातनाएँ दी गईं, उनके द्वारा चँगे हो जाने का दावा “परन्तु वह हमारे ही अपराधों के कारण घायल किया गया, वह हमारे अधर्म के कामों के हेतु कुचला गया; हमारी ही शान्ति के लिये उस पर ताड़ना पड़ी कि उसके कोड़े खाने से हम चंगे हो जाएं” (यशायाह 53:5), जिस का हवाला पतरस ने भी दिया है “वह आप ही हमारे पापों को अपनी देह पर लिये हुए क्रूस पर चढ़ गया जिस से हम पापों के लिये मर कर के धामिर्कता के लिये जीवन बिताएं: उसी के मार खाने से तुम चंगे हुए” (1 पतरस 2:24) पर आधारित है। इन प्रमुख किये गए शब्दों पर आधारित यह प्रचलित धारणा, इन शब्दों को उनके सन्दर्भ से बाहर निकाल कर प्रस्तुत किए जाने, और “चँगाई” शब्द के सामान्यतः किसी बीमारी या अस्वस्थता के साथ उपयोग किए जाने के कारण है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पवित्रशास्त्र में पाप को भी एक आत्मिक बीमारी के समान देखा गया है; और शारीरिक बीमारियों, जैसे कोढ़, को भी आलंकारिक भाषा में पाप के प्रतीक के समान उपयोग किया गया है। इसलिए, पवित्रशास्त्र में इस शब्द “चँगाई” के उपयोग के सन्दर्भ में, इसे केवल शारीरक बीमारी के लिए ही नहीं समझा जाना चाहिए, बल्कि यह आत्मिक बीमारी, पाप और उसके प्रभावों से चँगाई के लिए भी उतना ही लागू है। अब उपरोक्त दोनों पदों को देखिए, केवल उनके प्रमुख किए गए भागों को ही नहीं, बल्कि पूरे पदों को; और ध्यान कीजिए कि इन पदों के पहले भाग में शब्द “अपराधों,” “अधर्म,” “पापों,” का उपयोग, मनुष्य के पापों के लिए किया गया है। फिर, भाषा के आलंकारिक प्रयोग के द्वारा, उन पापों तथा उनके प्रभावों से प्रभु यीशु के द्वारा “चँगाई” या निवारण दिए जाने की बात कही गई है। कहीं पर भी, किसी भी शारीरिक बीमारी का कोई उल्लेख अथवा संकेत नहीं है। इसके अतिरिक्त, इन दोनों हवालों को छोड़ कर बाइबल में कहीं कोई और उल्लेख नहीं है कि प्रभु को क्रूस पर चढ़ाने से पहले उन्हें मारे गए कोड़ों या दी गई यातनाओं के द्वारा कभी कोई शारीरिक बीमारी से चँगाई मिली। यह बाइबल के कुछ शब्द या वाक्यांश को उसके सन्दर्भ से बाहर लेकर, बिना उसके वास्तविक अर्थ और व्यावहारिक प्रयोग पर ध्यान दिए हुए, एक मन-गढ़न्त सिद्धान्त, एक गलत शिक्षा बना लेने और सिखाने का उदाहरण है।
हाँ, अपनी पृथ्वी की सेवकाई के दौरान प्रभु यीशु ने बहुत से लोगों को चँगा किया; हाँ, प्रभु ने अपने अनुयायियों में से कुछ को लोगों को चँगा करने का आत्मिक वरदान दिया है; और जिनको उसके नाम में चँगाई देने का यह वरदान मिला है वे आज भी चमत्कारिक रीति से लोगों को उनकी बीमारियों से चँगा करते हैं। परन्तु सुसमाचारों को खोल कर देख लीजिए, प्रभु ने कभी भी यह नहीं कहा है कि वह पृथ्वी पर लोगों को उनकी बीमारियों से चँगाई देने के लिए आया है। वरन, प्रभु ने हमेशा ही यही कहा है कि वह पापियों को पश्चाताप करने के लिए बुलाने और लोगों को उनके पापों से बचाने के लिए आया। मानवजाति के प्रति उसकी दया, प्रेम, और देखभाल के अन्तर्गत, उसने अपनी शक्तियों का प्रयोग लोगों को उनकी बीमारियों से चँगा करने के लिए भी किया; लेकिन उसके पृथ्वी पर आने का प्राथमिक उद्देश्य लोगों की शारीरिक बीमारियों को चँगा करना नहीं, वरन उन्हें उनके पापों से चँगा करना, और मानवजाति के लिए उद्धार का मार्ग तैयार करके देना था। साथ ही, सम्पूर्ण नए नियम में कहीं पर भी हम ऐसा कोई उदाहरण नहीं पाते हैं कि किसी ने भी लोगों को चँगा करने के लिए प्रभु के कोड़े खाने के दावे का उपयोग किया हो। नए नियम में प्रभु के शिष्यों के द्वारा जितने भी लोग चँगे किए गए, वे सभी प्रार्थनाओं के द्वारा किए गए, न कि प्रभु के कोड़े खाने के दावे के प्रयोग के द्वारा, जैसा कि आज लोग करते हैं।
इसी प्रकार से, हम कहीं नहीं पाते हैं कि किसी ने भी, किसी चँगाई, या चमत्कारिक स्वास्थ्य लाभ, या किसी समस्या के समाधान, या किसी कठिन परिस्थिति से निकलने के लिए कभी भी प्रभु के लहू को लगाने, या/और प्रभु के क्रूस या क्रूस की शक्ति को लगाने का दावा किया हो। यहाँ तक कि प्रार्थना अथवा आराधना के लिए सामान्यतः उपयोग किए जाने वाले वाक्यांश का, कि, प्रभु के लहू को अपने ऊपर लेकर परमेश्वर के पास आते हैं, का भी कहीं पर भी कोई उल्लेख नहीं है। प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को जो प्रार्थना का उदाहरण सिखाया, उसका आरम्भ सीधे, साधारण शब्दों “हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में है” (मत्ती 6:9) के साथ होता है। और अपनी मृत्यु तथा पुनरुत्थान के बाद भी प्रभु ने इसमें, परमेश्वर के पास आने के लिए, अपने लहू या क्रूस के किसी उल्लेख को नहीं जोड़ा। न ही पौलुस, या नए नियम के किसी भी परमेश्वर के जन ने, अपनी किसी भी प्रार्थना या आराधना में, कभी इस वाक्यांश का प्रयोग किया, कि वह प्रभु के लहू के द्वारा, या क्रूस अथवा उसकी शक्ति को लगाने के द्वारा परमेश्वर के पास आते हैं। हम यह भी देखते हैं कि पौलुस, तथा परमेश्वर के अन्य लोगों ने औरों से अनुरोध किए हैं कि वे उन्हें उनकी समस्याओं, अस्वस्थता, विपरीत परिस्थतियों, आदि से निकालने के लिए प्रार्थनाएँ करें; लेकिन कभी भी किसी भी प्रभु के जन ने, इन बातों के समाधान के लिए न तो स्वयं यह प्रभु का लहू लगाने या उसके क्रूस अथवा उसकी शक्ति को लगाने के वाक्यांश का उपयोग किया, और न ही औरों से कहा कि वे अपनी प्रार्थनाओं में उन पर प्रभु का लहू या उस का क्रूस अथवा क्रूस की शक्ति को लगाएं।
यह करना, बाइबल से असंगत और गलत बातों का प्रचार करना, उन्हें सिखाना, और लोगों को उन्हें प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित करना, परमेश्वर के वचन में मनुष्य के द्वारा अपने ही विचारों और धारणाओं की मिलावट करके उसे भ्रष्ट करने से कम नहीं है। परमेश्वर के वचन में कुछ जोड़ना, या उसमें से कुछ घटाना वर्जित है, और ऐसा करने के बहुत गम्भीर परिणाम, और भारी दण्ड लिखा गया है (व्यवस्थाविवरण 4:2; 12:32; नीतिवचन 30:6; प्रकाशिवाक्य 22:18-19)। एक तरह से यह वही बात है जो फरीसियों तथा धर्म के अगुवों ने परमेश्वर के वचन के साथ की थी - उन्होंने पवित्रशास्त्र के लेखों और शब्दों को लिया, फिर उनमें, उनके बारे में अपनी ही व्याख्या, विचार, और धारणा मिलाई, और इस मिलावट के द्वारा भ्रष्ट कर दिए गए वचन को परमेश्वर का वचन कहकर लोगों को सिखाया। प्रभु यीशु ने यह करने के लिए उन्हें डाँटा (मत्ती 15:9), और कहा कि जो भी परमेश्वर ने नहीं लगाया है, वह सब उखाड़ा जाएगा, अर्थात परमेश्वर के वचन में उन्होंने जो मिलावट की थी, वह व्यर्थ है और परमेश्वर ने उसका तिरस्कार किया है, उसे नष्ट कर देगा।
अन्यजातियों, मूर्तिपूजकों में हम एक प्रचालन देखते हैं कि अपने देवी-देवताओं से अपनी इच्छाएँ, अपनी मनोकामनाएँ पूरी करवाने के लिए वे कुछ शब्दों को दोहराते रहते हैं, कुछ मन्त्रों को बोलते हैं, इस धारणा के अन्तर्गत कि उनके द्वारा बारम्बार दोहराए जाने वाले उच्चारणों से प्रसन्न होकर वे देवी-देवता उनकी इच्छा को पूरा कर देंगे; एक तरह से देखा जाए, तो यह उन शक्तियों को व्यक्ति द्वारा अपने अधीन कर लेने, उनसे अपने लिए काम करवाने का एक उपाय है। इसी प्रकार से बाइबल से सम्बन्धित कुछ शब्दों और तथ्यों को बारम्बार बोलने या दोहराते रहने के द्वारा, क्या हम भी तो अनजाने में शैतान की युक्ति में तो नहीं फँस रहे हैं, कि अपने गढ़े हुए वाक्यांशों तथा बाइबल के तथ्यों और शब्दों के मन-गढ़न्त प्रयोग के द्वारा हम परमेश्वर को अपनी इच्छानुसार करने, हमारी मनोकामना पूरी करने के लिए बाध्य करें? हम इतने मूर्ख क्यों हो जाते हैं कि किसी व्यक्ति पर अन्धविश्वास करें और उसकी बातों की नकल उतारने लगें, और इस बात की पूर्णतः अनदेखी कर दें कि बाइबल के अनुसार प्रतीत होने वाली उसकी बातें और वाक्यांश वास्तव में बाइबल के अनुसार सही नहीं हैं। बाइबल में उन्हें कभी उस रीति से कहा और प्रयोग किया ही नहीं गया है, जिस रीति से हम किसी व्यक्ति की नकल करते हुए करने लगे हैं; बजाए इसके कि बाइबल में दिए परमेश्वर के उन लोगों की नकल करें जिन्हे परमेश्वर ने हमारे लिए उदाहरण और नमूने के रूप में अपने वचन में रखा है। इसलिए, जो लोग एक आदत के अनुसार, बाइबल से असंगत और प्रतिकूल इन वाक्यांशों और शब्दों का प्रयोग करते हैं और उनका प्रसार करते हैं, उन्हें बहुत गम्भीरता से परमेश्वर के वचन के आधार पर विचार करना चाहिए कि वे कर क्या रहे हैं, अपने लिए भी तथा औरों के लिए भी? साथ ही, प्रभु यीशु के लहू से सम्बन्धित वाक्यांशों और शब्दों का, उन्हें यूँ ही बोल देने की आदत होने के कारण हल्के में प्रयोग करते समय, ज़रा इब्रानीयों 10:29 को ध्यान में रखना आरम्भ कर दें, और तब सोच समझ कर बोलें, कभी व्यर्थ न बोलें। एक बार फिर, ध्यान रखें कि परमेश्वर ने जो कहा नहीं है, वह उसे कभी स्वीकार नहीं करेगा, न उसका कोई आदर करेगा, और न ही उसे कभी पूरा करेगा। प्रभु के नाम में प्रचार की जाने वाली गलत शिक्षाएँ और बातें, कभी किसी का कोई लाभ नहीं करेंगी, बल्कि समस्याओं को बढ़ाएँगी, हानि करेंगी।
प्रभु यीशु मसीह का बलिदान और मृत्यु कोई ऐसी बात नहीं है जिसे हल्के में लिया जा सके और यूँ ही व्यवहार किया जा सके। उसे अपनी मन-गढ़न्त बातों के लिए, ऐसी बातें जिनकी बाइबल से पुष्टि नहीं है, उनके प्रचार और प्रसार तथा लोगों को गलत मार्ग पर डालने के लिए उपयोग नहीं किया जा सकता है। ध्यान रखिए, एक न्याय या हिसाब देना, जो बड़ी बारीकी से और प्रत्येक शब्द, विचार, कार्य, और बात का होगा, हमारे सामने रखा है; और इसी न्याय के आधार पर हमें हमारे अनन्तकालीन प्रतिफल दिए जाएँगे। ऐसा कोई नहीं है जो इस न्याय से बचेगा या इससे हल्के में छूट जाएगा। प्रभु यीशु मसीह की मृत्यु, और उससे जुड़ी हर बात बहुत गम्भीर और पवित्र है, और उसके साथ इसी के अनुसार व्यवहार करना चाहिए, विशेषकर मसीही विश्वासियों के द्वारा। अगले लेख में हम परमेश्वर के एक जन के जीवन के उदाहरण के द्वारा पाप के इन तीनों प्रभावों के बारे में देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 116
God’s Forgiveness and Justice – 22
Lord’s Death and its Implications - 4
In this study on “Eternal Judgement,” the sixth elementary principle given in Hebrews 6:1-2, in the previous articles we have seen that along with the first sin, came three things – first, death, spiritual as well as physical; second, life-long suffering, problems, and toil for mankind; and third, a promise of restoration and eternal rewards for those who turn back to God and submit themselves to Him. Having considered various aspects of these three effects of sin, presently we are considering the implications of the death of the Lord Jesus in relation to not only these three effects of sin, but in relation to our daily lives; and are also considering the ways the death of the Lord Jesus is often being misused and misapplied in Christianity. In the last article we had seen how the fact of the Lord paying in full for all the sins of entire mankind is often misused to entice people through worldly things into following the Lord by claiming that thereby they will be ensured trouble-free and comfortable lives with earthly prosperity - things that the Lord never promised. Today, we will look at some other similar unBiblical and false teachings and practices associated with the death of the Lord Jesus. While doing so, we should bear in mind the concluding words of the last article, that What God has not said, He will neither accept, nor honor, nor do; and any wrong preaching and teaching in His name will only create problems and harm, never benefit anyone, in any manner.
Other wrong preaching and teachings, associated with the death of the Lord Jesus are that through His stripes we have been given a way of being healed of disease and illnesses; and that by claiming to apply His blood, and/or applying His Cross to diseases, illnesses, problems and adverse situations, will sort them all out in our favor. Whereas the Scriptural truth is that even though these claims may have been stated in all sincerity, piety, and reverence towards the Lord, yet, they are not Biblical facts or statements; instead, they are all figments of man’s imaginations, outcomes of human ingenuity.
The claims of being healed by the Lord’s stripes, i.e., the lashing He was subjected to before being crucified, is based on “But He was wounded for our transgressions, He was bruised for our iniquities; The chastisement for our peace was upon Him, And by His stripes we are healed” (Isaiah 53:5), quoted by Peter as “who Himself bore our sins in His own body on the tree, that we, having died to sins, might live for righteousness--by whose stripes you were healed” (1 Peter 2:24). This popular misconception about the highlighted words is because these words are taken out of their context, and used in isolation; and because the word “healing” is usually associated with disease and sickness. But we should not forget that in the Scriptures even sin is seen as a spiritual disease; and diseases of the body, like leprosy, have been used figuratively for denoting sin. So, scripturally, “healing” need not always be seen as a physical healing from a disease, but can just as well be used for curing spiritual sickness, i.e., sin and its effects. When we think not just about the highlighted words of the verse, but the whole verse, then we see that in both of these verses, the first part of the verse, through use of “transgressions,” “iniquities,” “sins,” is referring to man’s sin. Then, in that context, at the end of both verses, in a figurative use of language, the “healing” i.e., the solution of these sins and their effects by the Lord has been stated. There is no indication of any physical healing of any disease in either of these verses. Moreover, other than these two references, there are no other Biblical passages that speak of human diseases being healed through the physical wounds of the torture that the Lord had to suffer before His crucifixion. This is an example of incorrectly building, preaching, and teaching a contrived doctrine, false beliefs, on just a phrase or few words taken from the Bible, without bothering to consider its context, its actual meaning, and its practical application.
Yes, during His earthly ministry, the Lord Jesus did heal people; Yes, He has given some of His followers the spiritual gift of healing, and those who have been given this gift of healing in His name, miraculously heal people even today. But look up the Gospel accounts, you will not find a single reference where the Lord has said that He came to earth to heal people of their diseases and illnesses. The Lord has always said that He came to call the sinners to repentance and to save people from their sins. In His compassion and care for mankind, He used His powers to help people and heal them; but the primary aim of His coming to earth was not for healing people from physical diseases, but for healing them from sin, and providing the way of salvation for mankind. Nowhere in the whole of the New Testament do we find anyone ever claiming to apply the stripes of the Lord Jesus to heal anyone; God’s people in the New Testament have always healed people through prayers, never by claiming to apply the stripes of the Lord, as is done by many people nowadays.
Similarly, nowhere do we find anyone ever claiming to apply the blood of the Lord Jesus, and/or applying His Cross, or the power of His Cross, for achieving any healing, miraculous recovery, solving any problem, or getting out of any difficult situation. Even the often used phrase of approaching God, in prayer or worship, through taking upon themselves the blood of the Lord Jesus, is not mentioned anywhere. Lord Jesus, began the model prayer He taught to the disciples, with the simple, straightforward words, “Our Father, in heaven” (Matthew 6:9). After His death and resurrection, neither did the Lord modify this opening sentence of His model prayer to add anything about His blood or His Cross for approaching God. Nor did Paul and other God’s people of the New Testament ever use this phrase of approaching God through the blood of the Lord or of Calvary, in any of their prayers or worship. We also see that these ministers of God, in various situations, all have requested for others to pray for them, to help them out of their problems, health issues, and situations; but none has ever used these phrases of applying the blood of Christ or applying the Cross of Christ or its power, for solving any of their adverse situations or health problems, nor have they asked others to do this “applying of the blood, or of the Cross” upon them, or, for them, in their prayers for them.
Doing this, i.e., preaching, teaching, and encouraging these unBiblical things, is nothing short of adulterating God’s Word by adding ideas from man’s own thoughts and mind to God’s Word, which is forbidden, and has a very heavy penalty (Deuteronomy 4:2; 12:32; Proverbs 30:6; Revelation 22:18-19). This is something like what the Pharisees and other religious leaders had done with God’s Word - they took Scriptural texts and truths, and then added their own interpretations and ideas into it, modified it, and used to teach this altered or adulterated form as God’s Word. The Lord Jesus reprimanded them for it (Matthew 15:9), and said that whatever God has not planted, will be uprooted and thrown away (Matthew 15:13), implying all these additions and modifications that they have done to God’s Word, are vain, have been rejected by God and will be destroyed by God.
Amongst the pagans, we see the practice of worshippers using chants and incantations, to compel their deities to do their bidding; i.e., in a way bringing their deities under their subjection and demands, to do what they tell them to do. Similarly, through repetitive and vain use of some phrases based upon words and facts of the Bible, are we not inadvertently falling for a satanic plot of thinking that through our invented phrases and our contrived use of Biblical words, God can be compelled into acting in a certain way, and do for us what we want done? Why do we become so foolish, blindly copy some person, and overlook the fact that these seemingly Biblical but actually unBiblical phrases, have never been spoken of in this manner in God’s Word, nor have they ever been practiced in the Scriptures by the people of God. Why do we blindly start copying a person and doing his unBiblical things instead of copying those who have been mentioned in the Bible for being our examples? Therefore, those who habitually use and propagate these unBiblical phrases and words, should seriously think over what they are doing, to themselves and others, in light of God’s Word. Also, before using the phrases about the blood of Jesus, in the cursory and habitual manner that they do, they should ponder over Hebrews 10:29, before doing it again, and be careful not to repeat vain things. Once again, never disregard the fact that What God has not said, He will neither accept, nor honor, nor do; and any wrong preaching and teaching in His name will only create problems and harm, never benefit anyone, in any manner.
The sacrificial death of the Lord Jesus Christ was not anything that can be taken and treated lightly; and used to propagate ideas unsubstantiated by God’s Word, and misguide people. Remember, there is a judgment, an accounting, a very minute evaluation, of every thought, word, and deed waiting ahead of us for our eternal rewards; and none of us will escape, or get away lightly. The death of the Lord Jesus, and all things associated with it is something very solemn and holy, and should be treated as such, especially by the Believers. In the next article we will take up the example of a man of God, and see the three effects of sin through his life.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.