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शनिवार, 26 अक्टूबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 232

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 77


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (19) 


व्यावहारिक मसीही जीवन के लिए आवश्यक, परमेश्वर के वचन, बाइबल में दी गई शिक्षाओं में से प्रेरितों 2:38-40 में दी गई तीन बातों को हम पहले देख चुके हैं। और अब हम प्रेरितों 2:42 में दी गई चार बातों का अध्ययन कर रहे हैं, जिनमें आरम्भिक मसीही विश्वासी लौलीन रहा करते थे। इन चार में से हम तीन बातों को देख चुके हैं, और अब चौथी बात, प्रार्थना करना, के बारे में देख रहे हैं। मसीही विश्वासियों द्वारा इन बातों में लौलीन रहने के स्थान पर, इन्हें पारम्परिक और औपचारिक निर्वाह की बातें बना देने के कारण, शैतान को मसीही समाज में बहुत सारी गलत धारणाओं और गलत शिक्षाओं को घुसाने का अवसर मिल गया है, और उसने इस अवसर का भरपूरी से प्रयोग किया है। हमारे वर्तमान अध्ययन में हम प्रार्थना से सम्बन्धित गलत धारणाओं और गलत शिक्षाओं के बारे में देख रहे हैं। इस विषय पर, मसीहियों में व्याप्त एक बहुत आम गलत धारणा और शिक्षा है कि परमेश्वर की यह प्रतिज्ञा है कि वह “विश्वास से” और “यीशु के नाम में” माँगी गई सभी प्रार्थनाओं का सकारात्मक उत्तर देगा। पिछले कुछ लेखों में हमने बाइबल के हवालों से देखा है कि परमेश्वर ने यह प्रतिज्ञा हर किसी से नहीं कि है, बल्कि केवल अपने सच्चे, समर्पित, आज्ञाकारी शिष्यों की उन प्रार्थनाओं के लिए की है जो वे परमेश्वर की इच्छा के अनुसार और परमेश्वर के वचन से सुसंगत बातों के बारे में माँगते हैं। इसकी पुष्टि के लिए हमने देखा था कि प्रभु की पृथ्वी की सेवकाई के दौरान, प्रभु के शिष्य भी प्रभु की अनुमति और सामर्थ्य के बिना, अपनी ही इच्छा से, उन अद्भुत कार्यों को नहीं कर सके, जिन्हें वे पहले, प्रभु के निर्देशानुसार कर चुके कर थे। इसी सन्दर्भ में हमने पिछले लेख में देखा था कि प्रभु ने स्वर्ग पर उठाए जाने से पहले शिष्यों को वैसी ही सेवकाई सौंपी थी, जैसी उन्होंने प्रभु के साथ रहते हुए की थी। किन्तु अब, उसी सेवकाई को करने के लिए, क्यों प्रभु के शिष्यों को पवित्र आत्मा और उसकी सामर्थ्य प्राप्त करने के बाद ही जाना था, हमने इस बात को भी समझा था। प्रभु के वे सच्चे, समर्पित, आज्ञाकारी शिष्य भी “विश्वास से” और “यीशु के नाम में” प्रार्थनाएं माँगकर उस सेवकाई को नहीं कर सकते थे। इन दोनों वाक्यांशों के बाइबल में दिए गए तरीके से उपयोग करने को हम आज के लेख में भी ज़ारी रखेंगे।

 

प्रेरितों 3:1-16 में पतरस और यूहन्ना के द्वारा मन्दिर के बाहर बैठ कर भीख माँगने वाले जन्म के लँगड़े को चंगा करने का वृतान्त है। इस खण्ड का पद 2 बताता है कि उस लँगड़े को प्रतिदिन वहीं पर भीख माँगने के लिए बैठाया जाता था। हमने पहले लूका 24:53 से देखा था कि पवित्र आत्मा प्राप्त करने की प्रतीक्षा करते समय, प्रभु के शिष्य लगातार मन्दिर में प्रार्थना के लिए जाया करते थे। यहाँ पर भी पद 1 और 3 में यही लिखा है कि तीसरे पहर पतरस और यूहन्ना प्रार्थना के लिए मन्दिर में जा रहे थे, जब उस लँगड़े भिखारी ने उनसे भीख माँगी। बहुत सम्भव है कि पतरस और यूहन्ना ने तथा उस भिखारी ने पहले भी एक दूसरे को देखा था। लेकिन अब भिन्न यह था कि पतरस और यूहन्ना पवित्र आत्मा प्राप्त कर चुके थे। अब उन में एक नई सामर्थ्य, एक नया भरोसा, परमेश्वर का मार्गदर्शन था। और इसी मार्गदर्शन और विश्वास के अन्तर्गत पतरस ने, जैसा पद 4 में लिखा है, उस भिखारी को अपनी ओर देखने को कहा, और जैसा पद 6 में लिखा है “यीशु के नाम में” चलने फिरने के लिए कहा। पद 7, 8 बताते हैं कि तुरन्त उसके पाँवों और टखनों में बल आ गया, और वह उछल कर खड़ा हो गया, और परमेश्वर की स्तुति करता हुआ उनके साथ मन्दिर में गया। जब लोगों ने यह देखकर अचम्भा किया, तब पद 12-16 में पतरस ने “विश्वास से” माँगी गई प्रार्थना के उत्तर में उसे प्रभु से चंगाई मिलने के बारे में समझाया।

 

हम इस खण्ड में दी गई घटनाओं, वार्तालापों, और सम्बन्धित शिक्षाओं की व्याख्या में नहीं जाएंगे। हमारे वर्तमान विषय की पुष्टि के सन्दर्भ में हम यहाँ पर देखते हैं कि यद्यपि, सम्भवतः, यह पतरस, यूहन्ना, और उस भिखारी की पहली भेंट नहीं थी। किन्तु पतरस और यूहन्ना उसके लिए तब तक कुछ नहीं कर सके, जब तक कि उन्होंने पवित्र आत्मा, उसकी सामर्थ्य, और उसके मार्गदर्शन को नहीं प्राप्त कर लिया। फिर उसके बाद ही, उसी से उन्हें परमेश्वर की इच्छा में, “विश्वास से” और “यीशु के नाम में” आश्चर्यकर्म करने की अगुवाई मिली, और उस अगुवाई की आज्ञाकारिता में उन्होंने उस जन्म के लँगड़े को चंगा कर दिया। यहाँ पर एक अन्य बहुत महत्वपूर्ण बात भी ध्यान देने के लिए है। जैसा पद 12 से 16 में पतरस द्वारा कही गई बात से प्रकट है, उन्होंने उसे केवल चंगाई ही नहीं दी, बल्कि उसके चंगे होने को वहाँ उपस्थित सभी लोगों में सुसमाचार प्रचार करने, प्रभु यीशु की मृत्यु और पुनरुत्थान का प्रचार करने के लिए भी उपयोग किया। पतरस और यूहन्ना ने अपनी कोई बड़ाई न की, और न होने दी; उन्होंने इससे पहले अपने द्वारा किए गए किसी प्रचार का, किसी कार्य का, कोई उल्लेख नहीं किया, बल्कि तुरन्त ही सारा नाम, आदर, और महिमा प्रभु परमेश्वर को दे दिया।

 

अद्भुत आश्चर्यकर्म शैतान और उसके लोग भी करते हैं (मत्ती 24:24; मरकुस 13:22; 2 थिस्सलुनीकियों 2:9-10; प्रकाशितवाक्य 13:13-14); वे झूठे प्रेरित और प्रचारक बनकर “यीशु के नाम में” भी बहुत से कार्य करते हैं (मत्ती 7:21-23; 2 कुरिन्थियों 11:3, 13-15)। लेकिन उन लोगों के इन कामों के साथ सुसमाचार का, प्रभु यीशु के सभी मनुष्यों के उद्धार के लिए मारे जाने, गाड़े जाने, तीसरे दिन जी उठने और प्रभु यीशु के नाम में पापों की क्षमा का प्रचार नहीं किया जाता है। शैतान के लोगों की इन “चंगाई और अद्भुत कामों की सभाओं” में प्रचारक का नाम और उसका बयान, उसके द्वारा किए गए प्रचार और कार्यों के बखान, उसकी सामर्थ्य की चर्चा, उसके द्वारा ‘पवित्र आत्मा’ के उपयोग किए जाने (मानो ‘पवित्र आत्मा’ उसके अधीन उसी का सेवक है) का प्रचार, आदि तो बहुत होता है। लेकिन पापों और उनके परिणाम अनन्त नरक की चर्चा, प्रभु यीशु मसीह के जीवन, मृत्यु, पुनरुत्थान की चर्चा, सुसमाचार का प्रचार, पापों से क्षमा, उद्धार की अनिवार्यता की बातें या तो होती ही नहीं हैं, या फिर बहुत कम और बड़ी ऊपरी रीति से बहुत हल्के में की जाती हैं। उनका मुख्य विषय और प्रमुख स्थान प्रचारक का नाम और बयान, और उसकी ‘पवित्र आत्मा’ को प्रयोग करने की सामर्थ्य, शारीरिक चंगाई देना, भौतिक आश्चर्यकर्म करना ही होता है। इन बातों के द्वारा, लोगों को उद्धार के सुसमाचार और पापों की क्षमा से बहका और भटका कर, शैतान के ये लोग “विश्वास से” और “यीशु के नाम में” प्रार्थना माँगने के भ्रम में लोगों को फंसाकर, अपने साथ अनन्त विनाश में ले जाते हैं।


लेकिन इनकी तुलना में, प्रभु के सच्चे शिष्यों द्वारा माँगी गई प्रार्थनाएं और किए गए कार्य हमेशा ही प्रभु यीशु, सुसमाचार के प्रचार, उद्धार, पापों के परिणाम और पापों की क्षमा, आदि पर ज़ोर देते हैं; और प्रचारक को नहीं, प्रभु परमेश्वर को ऊंचे पर उठाते हैं। अगले लेख में हम इसी विषय पर वचन से और बातों को देखेंगे।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


Things Related to Christian Living – 77


The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (19)


Of the necessary teachings given in God’s Word the Bible regarding practical Christian living, earlier we have seen three from Acts 2:38-40. Now, we are studying about the four things given in Acts 2:42, which the initial Christian Believers observed steadfastly. We have already seen three of the four things given here, and are now considering the fourth one, praying. Nowadays, instead of the Christian Believers observing them steadfastly, since they are observing them as a ritual, as a formality, therefore, Satan has been given an open door to bring in and spread many false teachings and concepts amongst the Christians, and he has fully made use of this opportunity. In our present study, we are looking into the wrong teachings and false concepts related to prayer. On this topic, a very prevalent and popular, but wrong teaching and false concept is that it is God’s promise that He will answer in the affirmative, all the prayers made to Him “in faith” and “in the name of Jesus.” In the preceding few articles, we have seen that God has not given this promise to everyone, but only to His true, surrendered, obedient disciples, for their prayers made according to God’s will and consistent with God’s Word. For affirmation, we had seen that during the earthly ministry of the Lord, even the true disciples of the Lord, without His permission and power, could not do those things on their own, which they had done earlier under the instructions of the Lord. In this context, we had seen in the previous article that just before His ascension to heaven the Lord had given the same ministry to the disciples as they had done while they were with Him. We had understood why, to do the same ministry, now, the disciples had to wait till they received the Holy Spirit, and only then go out for the ministry. Even those true, surrendered, obedient disciples of the Lord could not carry out that same ministry by using the phrases asking “in faith” and “in the name of Jesus.” Today too, we will continue to see and learn how these phrases have been used in the Bible.


In Acts 3:1-16 we have an account of Peter and John healing a man lame from birth and sitting outside the Temple, begging for alms. In this section, verse 2 tells us that this lame man was brought to this same place daily for begging alms. Earlier, we had seen from Luke 24:53 that while waiting for the Holy Spirit, the disciples of the Lord used to go to the Temple for prayers continually. Here too, the same thing is written in verses 1 and 3, that Peter and John were going into the Temple for prayers, when the lame man asked them for alms. It is quite possible that Peter, John, and the beggar had seen each other earlier also. But now what was different was that Peter and John had received the Holy Spirit. Now they had a new power, a new confidence, the guidance of God with them. And under this same guidance and confidence, as is written in verse 4, Peter asked the beggar to look at him, and as written in verse 6, commanded him to rise up and walk “in the name of Jesus.” Verse 7, 8 tell us that immediately he received strength in his feet and ankles, and he jumped and stood up, and went with them into the Temple, praising God. When the people saw this, they were amazed, then, in verses 12-16, Peter explained to them about the healing he had received from the Lord through the prayer asked “in faith.”


We will not go into the exposition of the events, conversations, and the related teachings given in this section. In context of the affirmation of our topic, we see that although, possibly, this was not the first time that Peter, John, and the beggar had met each other. But Peter and John had not been able to do anything for him till they had received the Holy Spirit, His power and guidance. Only after that, through Him, in the will of God, they were prompted to do this miracle by asking “in faith” and “in the name of Jesus” and in obedience to that prompting they healed that lame from birth beggar. There is another very important thing to take note of over here. As is evident from what Peter said in verses 12 to 16, they did not only give him healing, but they also used that healing to preach the gospel, the death and resurrection of the Lord Jesus, to all the people who had gathered there. Peter and John neither praised themselves, nor allowed anyone else to do it; they never mentioned any earlier preaching they had done, nor did they mention anything they might have done before this. Rather, they immediately gave all the name, fame, and glory to God.


Even Satan and his agents do wondrous works and miracles (Matthew 24:24; Mark 13:22; 2 Thessalonians 2:9-10; Revelation 13:13-14); they, as false apostles, do many things “in the name of Jesus” (Matthew 7:21-23; 2 Corinthians 11:3, 13-15). But along with the wondrous works that they do, the gospel, the Lord’s death, burial, and resurrection for the salvation of all mankind, the forgiveness of sins in the name of Jesus is never preached. In these “Healing and Miracles” meetings and conventions by the people of Satan, the preacher’s name and description, the exaltation of his preaching and works, of his power, his ability to use ‘the holy spirit’ (as if the holy spirit is under his control to serve him), etc. are prominently displayed and announced. But the mention of sins and hell as their eternal consequence, the life, death and resurrection of the Lord Jesus, the preaching of the gospel, of forgiveness of sins, the necessity of salvation are either never mentioned or are only mentioned very superficially, casually and insignificantly. The main purpose of these people is giving prominence to the preacher’s name and fame and his use of ‘the holy spirit,’ physical healings, and temporal miracles. Through these, they mislead the people away from the gospel of salvation and forgiveness of sins. These satanic people entice people into the deception of praying “in faith” and “in the name of Jesus” and take them away with them into eternal destruction.


In contrast, the prayers made by the true disciples of the Lord and their works, always exalt the Lord Jesus, preach about the gospel, salvation, consequences of sin and forgiveness of sins. They give prominence to the Lord God, and not the preacher. In the next article we will see more from the Word about this.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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