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आरम्भिक बातें – 26
बपतिस्मों – 5
आरंभिक विचार (4) – संदर्भ में व्याख्या
प्रत्येक मसीही विश्वासी को, आत्मिक बढ़ोतरी एवं परिपक्वता के लिए परमेश्वर के सम्पूर्ण वचन का अध्ययन करने, उसे सीखने, और उसे अपने जीवन में लागू करना अनिवार्य है। हम देख चुके हैं कि तीन प्रकार की मौलिक शिक्षाएँ, अर्थात सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाएँ, छः आरम्भिक बातें जो इब्रानियों 6:1-2 में दी गई हैं, और व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित शिक्षाएँ जिन्हें सीखना और जानना अति आवश्यक है, क्योंकि ये मसीही जीवन बनाने के लिए एक स्थिर नींव प्रदान करती हैं। इस तीन प्रकार की शिक्षाओं में से हम सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाओं पर विचार कर चुके हैं, और वर्तमान में छः आरम्भिक बातें जो इब्रानियों 6:1-2 में दी गई हैं, उन में से तीसरी, “बपतिस्मों” पर विचार कर रहे हैं। हमने पिछले लेखों में देखा है कि यहूदी शुद्ध होने के लिए अनुष्ठान के अनुसार स्नान करने, धोए जाने, स्वच्छ होने से भली-भांति परिचित थे। यह उनके पवित्र शास्त्र, अर्थात वह जो हमारे लिए पुराना नियम है, में दी गई व्यवस्था में भी दिया गया था और भविष्यद्वक्ताओं ने भी लिखा था। हमने यह भी देखा था कि परमेश्वर के वचन के गुणों के अनुसार, इन गुणों पर आधारित, बाइबल की व्याख्या करने और अर्थ निकालने का एक बहुत महत्वपूर्ण सिद्धांत है पहले प्रयोग के प्राथमिक अर्थ का अपरिवर्तनीय सिद्धांत। बाइबल में दी गई किसी बात या शब्द का प्राथमिक और अपरिवर्तनीय अर्थ वह होता है जो उस शब्द या बात के पहले प्रयोग के साथ जुड़ा हुआ होता है। दूसरे शब्दों में, यह वह अर्थ है जो उन लोगों ने समझा था जब इस बात को सबसे पहले उन्हें कहा गया था। यही उस बात का प्राथमिक, अपरिवर्तनीय, अर्थ है जिस की किसी भी व्याख्या या समझ के समय अनदेखी नहीं की जानी चाहिए, जिसके साथ किसी भी व्याख्या का कभी कोई विरोधाभास नहीं होना चाहिए। अन्य सभी अर्थ या व्याख्या इस प्राथमिक अर्थ के सहायक हो सकते हैं, लेकिन कभी इसके विरुद्ध नहीं हो सकते हैं, उसे बदल नहीं सकते हैं, उसका स्थान नहीं ले सकते हैं।
अपने मुख्य विषय, “बपतिस्मों” में जाने से पहले, बाइबल की व्याख्या का एक अन्य महत्वपूर्ण और अनिवार्य सिद्धांत भी है, जिसे हमें सदा ध्यान में रखना चाहिए - प्रत्येक बात को उसके संदर्भ में देखें और समझें। संदर्भ तात्कालिक भी होता है, अर्थात उस से पहले और बाद के पदों, अनुच्छेदों, और खण्डों का; और दूर का भी हो सकता है, अर्थात उस शब्द या विषय से संबंधित अन्य बाइबल के पदों और खण्डों का। संदर्भ - तात्कालिक और दूर के, में देखने और समझने के इस सिद्धांत का पालन न करना ही संभवतः ईसाई या मसीही समाज में बाइबल की बातों की समझ और व्याख्या को लेकर देखी जाने वाली भिन्नताओं, गलत व्याख्याओं, और गलत समझे जाने का सबसे आम और मुख्य कारण है। यह सामान्यतः देखा जाता है कि शब्दों, वाक्यांशों, वाक्यों, पदों, खण्डों आदि को उनके संदर्भ से बाहर लेकर फिर उनकी व्याख्या की जाती है, और उन्हें वे अर्थ दिए जाते हैं जो परमेश्वर के वचन के उस भाग में कभी थे ही नहीं। या, संबंधित पदों और खण्डों में कही गई बातों का ध्यान रखे बिना ऐसे अर्थ और व्याख्याएँ दी जाती हैं जो विरोधाभास उत्पन्न करती हैं।
तात्कालिक संदर्भ का ध्यान रखना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हमें यह समझने और ध्यान रखने की आवश्यकता है कि बाइबल में भी भाषा का उसी प्रकार से प्रयोग किया गया है, जैसा कि उस भाषा में लिखे गए किसी भी अन्य लेख में किया जाता है। इसीलिए बाइबल में भी लेखक की अभिव्यक्तियाँ, आलंकारिक भाषा, अभिप्राय या तात्पर्य, व्यंग्य, कविता के समान प्रयोग, और अन्य साहित्यिक अभिव्यक्तियाँ देखने को मिलती हैं। और इसीलिए, बाइबल में भी सही और उचित अर्थ तब ही समझा और जाना जा सकता है जब बात को उसके संदर्भ के साथ देखा जाए। किसी भी शब्द या वाक्यांश आदि को उसके संदर्भ से बाहर लेकर उस की अर्थ या व्याख्या करना, अवश्य ही गलत अर्थों और अनुचित व्याख्याओं को ले आएगा।
तात्कालिक संदर्भ का हमेशा ही ध्यान रखने की अनिवार्यता का एक और कारण बाइबल के इतिहास पर आधारित है। बाइबल की सभी पुस्तकें उनके मूल स्वरूप में ठीक वैसे ही लिखी गई थीं जैसे कि अन्य कोई भी लेख लिखे जाते हैं - परिच्छेदों और खण्डों में, न कि अध्यायों और पदों में जैसा कि हम आज अपनी बाइबल में देखते हैं। इसीलिए, हम देखते हैं कि बाइबल में जब भी बाइबल के किसी अन्य स्थान पर लिखी बात का हवाला दिया जाता है तो केवल उस पुस्तक के लेखक का नाम दिया गया है, कभी किसी अध्याय या पद का हवाला नहीं दिया गया, क्योंकि उस समय में पवित्र शास्त्र में यह पदों और अध्यायों में विभाजन था ही नहीं, कि उसका हवाला दिया जा सके। यह अध्यायों और पदों में विभाजन बहुत बाद में किया गया, जिससे बाइबल अध्ययन में, हवालों को विशिष्ट बता सकने के लिए, याद रखना सरल करने के लिए, आसानी हो सके। यद्यपि यह कृत्रिम विभाजन बहुत सहायक है, और इसका प्रयोग सभी के द्वारा किया जाता है, किन्तु इसके साथ एक गंभीर समस्या भी है - कई बार इससे विचार या बात का प्रवाह बीच में ही कट जाता है, बाधित हो जाता है, अथवा रुक जाता है। और यह किसी और भाषा में अनुवाद करने में और भी अधिक गंभीर हो जाता है क्योंकि प्रत्येक भाषा के अपने ही भिन्न व्याकरण तथा वाक्य की रचना के सिद्धांत होते हैं। इसीलिए, यदि प्रत्येक बात को उसके तात्कालिक संदर्भ में, अर्थात उसके पहले और बाद के पदों, परिच्छेदों, और खण्डों के साथ देखा और समझा न जाए, तो अनजाने में ही बड़ी गलतियाँ की जा सकती हैं और बहुधा हो भी जाती हैं, क्योंकि इस एक तथ्य की अनदेखी की गई थी।
इसी प्रकार से, अर्थ अथवा व्याख्या देते समय, बाइबल की अन्य संबंधित बातों, पदों, और खण्डों का भी ध्यान रखना अनिवार्य है, कहीं परमेश्वर के वचन के उन संबंधित भागों के साथ कोई विरोधाभास तो नहीं आ गया है क्योंकि बाइबल परमेश्वर का त्रुटि-हीन, अटल, अपरिवर्तनीय वचन है, इसलिए बाइबल का कोई भी खण्ड या भाग कभी भी किसी भी अन्य भाग के विपरीत, उसके विरोधाभास में कोई बात नहीं कहेगा। इसलिए कोई भी ऐसा अर्थ या व्याख्या सही नहीं होगी जो बाइबल के किसी भी अन्य भाग के साथ सहमत न हो, किसी भाग के साथ विरोधाभास उत्पन्न करती हो; क्योंकि बाइबल का हर पद और भाग शेष सभी की सहायता करता है, उनका समर्थन करता है। इसलिए यदि हमारे अर्थ अथवा व्याख्या के द्वारा यदि कहीं कोई असहमति अथवा विरोधाभास आ रहा है, तो गलती परमेश्वर के वचन में नहीं, हमारे अर्थ और व्याख्या में है, और उसे सही किया जाना चाहिए, उसे शेष बाइबल के साथ सहमत बनाया जाना चाहिए।
इन सिद्धांतों को याद रखने और इनका पालन करने की आवश्यकता को हम आगे समझने पाएंगे, जब हम अपने विषय से संबंधित कुछ पदों और खण्डों को देखेंगे, जिनके अनुचित प्रयोग के द्वारा बपतिस्मे को गलत अर्थ और व्याख्याएँ दी जाती हैं। हमारे द्वारा इन सिद्धांतों का ध्यान रखना और इनका पालन करना हमें इन पदों और खण्डों की वास्तविकता को समझने में सहायक होगा तथा हमें बाइबल के विरुद्ध, गलत व्याख्याओं से बचकर रहने में हमारी सहायता करेगा। अगले लेख से हम बपतिस्मे के उद्देश्य को देखेंगे और समझेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 26
Baptisms - 5
Preliminary Considerations (4) - Interpreting in Context
Every Christian Believer needs to study, learn, and apply the whole of God’s Word in his life for spiritual growth and maturity. We have seen that there are three kinds of teachings, i.e., teachings related to the gospel, teachings about the six elementary principles given in Hebrews 6:1-2, and teachings related to practical Christian living, that are essential to learn, since they provide a firm foundation to build up Christian lives. Of these three kinds of teachings, we have seen the teachings related to the gospel, and presently are considering teachings related to “Baptisms,” which is the third of the elementary principles given in Hebrews 6:1-2. We have seen in the earlier articles that the Jews were quite familiar with ceremonial washing, bathing, and cleansing for their purification. This had been prescribed in the Law as well as stated in the Prophets in their Scriptures, i.e., that which is the Old Testament for us. We have also seen that because of the characteristics of the Word of God, a very important principle for interpretation and understanding of Biblical things based on those characteristics is the Principle of the Unalterable Primary Meaning. The primary and unalterable meaning of a Biblical term or thing is the meaning that is given or used with the first use of that term. In other words, it is the meaning that those people to whom that thing was first given or mentioned, understood. This is the primary, unalterable meaning which should never be ignored or contradicted in any interpretation. Every other subsequent meaning or interpretation can supplement it, but never contradict, or alter, or replace this primary meaning.
Before we get into our main subject of “baptisms,” it is necessary to bear in mind another very essential and important principle of Bible interpretation - study and interpret everything in its context. The context is both immediate, i.e., the preceding and succeeding verses, or passages; and remote; i.e., the other Bible verses or passages related to that topic or term. Not adhering to this principle about interpreting in context – both immediate and remote, is probably the most common cause of various variations, misinterpretations, and misunderstandings that abound in Christendom about things given in God’s Word. It is quite commonly seen that words, phrases, sentences, verses, passages etc. are often taken out of their context, and then interpreted as saying things that were never actually meant in that part of God’s Word. Or, the other related verses and passages are not taken into consideration and contradictory meanings and interpretations are given.
The importance of considering the immediate context is because we need to keep in mind that the Bible too uses language in a manner similar to any other text written in that language. Therefore, it has textual expressions, figures of speech, implied meanings, sarcasm, poetic usage, and other literary forms, just as any other text written in any language would have. Therefore, as is necessary for all other writings, for the Bible too, it is the context that determines the appropriate meaning of the word under consideration. Merely taking up and interpreting a word or phrase, without considering its context, is bound to bring in errors in meanings and misinterpretations.
Another reason for always considering the immediate context is derived from the history of the Bible. The books of the Bible were written as any other document is written - in sections and paragraphs, and not in the chapters and verses that we see in our Bibles today. That is why we see that whenever one part of the Bible quotes another part from somewhere else, it only mentions the name of the author of that book, but never the actual reference as chapter and verse, since there were no chapters or verses in the Scriptures at that time to give a reference of. The division into chapters and verses was done much later to facilitate Bible study through quoting and referencing its particular parts, as an aid to memorizing God’s Word, etc. While this artificial division into verses and chapters is very helpful, and is used universally, it also has a serious drawback - the breaking up into verses at times cuts off the thought or flow of the passage in between, without it getting completed. This gets compounded in translation into other languages, since grammar and sentence constructions differ amongst languages. Therefore, unless one makes it a point to consider everything in its immediate context, i.e., along with the preceding and succeeding verses or passages, serious errors can be brought in inadvertently; and often are brought in because of ignoring this fact.
Similarly, it is necessary to keep the other related verses and passages in mind, and interpret in a manner that does not contradict these other related sections of God’s Word. Since the Bible is the inerrant, infallible, unalterable Word of God, therefore one part of the Bible can never contradict another, can never mean something that does not support or go along with a meaning or interpretation ascribed to another related part of God’s Word. Rather, since every verse and section of the Bible supports and supplements the rest. Therefore, if our meaning or interpretation contradicts, or is not in conformity with all of the other related verses, passages, and sections, then there is an error in the meaning or interpretation that we are giving. It is not the Word of God that is in error; the error is in the meaning or interpretation that we are giving to it, and this has to be corrected, has to be brought in conformity with the rest of the Word of God.
The necessity of remembering and adhering to these principles will become apparent, as we study some passages related to our topic; verses and passages which are often used to give it meanings and interpretations that are not factual. Our keeping these principles in mind and following them will help us understand those verses and passages and to steer clear of the erroneous, unBiblical interpretations which have become associated with Baptism. In the next article, we will look into the purpose of baptism.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.