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शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 217

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 62


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (4) 


व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों के हमारे इस अध्ययन में हम प्रेरितों 2:42 में दी गई चार में से चौथी बात, प्रार्थना करने के बारे में देख रहे हैं। पिछले लेख में हमने देखा था कि परमेश्वर क्यों चाहता है कि उसके लोग हर बात के लिए उसके साथ निरन्तर प्रार्थना में, अर्थात उस से वार्तालाप के भाव में बने रहें। हमने समझा था कि कैसे परमेश्वर द्वारा दिया गया यह निर्देश हमारे लाभ के लिए, हमें शैतान की युक्तियों से, चालों से बचाए रखने के लिए है। आज हम इसी विषय - निरन्तर प्रार्थना में रहने से सम्बन्धित एक अन्य बात को समझेंगे, जो बहुधा मसीही विश्वासियों को उलझन में डालती है।

 

हम जानते हैं कि परमेश्वर का एक गुण है उसका सर्वज्ञानी होना। वह हर बात के आदि से लेकर उसके अन्त तक की सभी बातें जानता है (यशायाह 45:21; 46:10)। उससे कुछ छिपा नहीं है; वह न केवल मनुष्य के हृदय की हर बात को, वरन उस बात के पीछे के विचार को भी जानता और समझता है (1 इतिहास 28:9)। तो जब परमेश्वर सर्वज्ञानी है, जब उसे हर बात पहले से ही पता है, तो फिर वह क्यों चाहता है कि लोग उससे प्रार्थना करें, अपने निवेदन, अपनी आवश्यकताएं, अपने मन की बातें उसके सम्मुख व्यक्त करें? उसे तो स्वतः ही हमारी हर बात पता है, इसलिए उसे अपने इस पूर्व-ज्ञान और सर्वज्ञानी होने के अनुसार हमारे लिए प्रावधानों को करते रहना चाहिए। यह कहना सही है, और ऐसा नहीं है कि परमेश्वर इस तर्क से सुसंगत व्यवहार नहीं करता है। परमेश्वर ने बंधुवाई में गए हुए इस्राएलियों से कहा “क्योंकि यहोवा की यह वाणी है, कि जो कल्पनाएं मैं तुम्हारे विषय करता हूँ उन्हें मैं जानता हूँ, वे हानि की नहीं, वरन कुशल ही की हैं, और अन्त में तुम्हारी आशा पूरी करूंगा” (यिर्मयाह 29:11); और इस आश्वासन को अपने अपरिवर्तनीय अनन्तकालीन वचन में लिखवाकर उसे अपने अन्य लोगों के लिए भी दे दिया। 


किन्तु परमेश्वर का यह चाहना कि उसके लोग उसके सम्मुख आएं और अपने मन की बात को उसके साथ साझा करें, हमारे द्वारा अपनी प्रार्थनाओं, उसके साथ अपने वार्तालाप का आँकलन करने, और शैतान की युक्तियों से हमें सुरक्षित रखने के लिए है। हम सभी भली-भाँति जानते हैं, और यह हम सभी का व्यक्तिगत अनुभव भी है कि बहुत से लोगों के बारे में, अनेकों अधिकारियों अथवा विशिष्ट और गणमान्य व्यक्तियों, आदि के बारे में, उन से सम्बन्धित, हमारे मन में कई तरह की बातें हो सकती हैं। अपने सामान्य वार्तालाप में हम उनके बारे में या उनके सन्दर्भ में अनेकों प्रकार की बातें कहते हैं, और आवश्यक नहीं कि सभी बातें सही हों, उचित हों, उस व्यक्ति से या उसके सामने कहने योग्य हों। जब कभी हमारा सामना उस उच्च अधिकार वाले व्यक्ति से होता है, तो हम अपनी बातों को सोच-समझ कर और बहुत नियंत्रित तरीके से कहते हैं। और यदि हमें पता है कि उस व्यक्ति को कोई बात पसन्द नहीं है, या जिस बात से उसके सम्मान को ठेस पहुँच सकती है, वह अपमानित हो सकता है, हम सावधान रहते हैं कि हम उस बात को उसके सामने न बोलें, उससे न कहें, अथवा करें। अर्थात, उस व्यक्ति से बात करना, उसके सामने अपने आप को व्यक्त करना, हमारे अन्दर अपने आप को जाँचने, अपनी बातों को बोलने से पहले उनका विश्लेषण करने, अपने आप को उचित रीति से व्यक्त करने, अपने शब्दों, हाव-भाव, व्यवहार में एक संयम रखने के लिए प्रेरित करता है, तैयार करता है। तब हमारा प्रयास और उद्देश्य यही होता है कि हम शिष्टाचार का पालन करें, उस व्यक्ति को उसके स्तर के अनुसार उचित आदर दें, असभ्य न हों। साथ ही हमारे मन में चाहे जो भी हो, हम उसके सामने वही बोलें जो उसकी गरिमा के सन्दर्भ में उचित और उपयुक्त है। अर्थात, ऐसे पदाधिकारी के सम्मुख आकर उससे कुछ कहना हमें अपने आप को, अपने विचारों को, अपनी इच्छाओं को, अपने शब्दों, हाव-भाव, व्यवहार, आदि को जाँचने, उनका आँकलन करने, उनका विश्लेषण करके केवल सही और उचित को ही मुँह से निकालने या करने के लिए तैयार करता है। अब विचार कीजिए, यदि वह व्यक्ति ऐसा हो जो स्वतः ही हमारे मन-मस्तिष्क-विचार की हर बात को, हमारे कुछ कहे बिना ही, जानने और समझने की क्षमता रखता हो, तो फिर उसके सामने जाने पर हमारा क्या हाल होगा? और यदि हमें प्रतिदिन, कई बार उसके सामने जाना ही पड़े, उससे वार्तालाप करना ही पड़े, तो फिर हम उसके बारे में, और उसके सन्दर्भ में कैसे विचार अपने अन्दर आने देंगे, और किन बातों से अपने आप को दूर रखेंगे।


अब इसी बात को अपने और परमेश्वर के विषय लागू करके देखिए। क्योंकि आप को अपने मन की हर बात उससे कहनी है, इसलिए आप अपने आप को, अपनी बातों को, अपने विचारों और इच्छाओं को, अपनी भावनाओं को जाँचते, परखते हुए, उनका विश्लेषण करते हुए परमेश्वर के सम्मुख आएंगे और उससे वही कहेंगे जो उसके आदर और प्रतिष्ठा के अनुसार है; उससे वही माँगेंगे जो उसकी इच्छा और पसंद के अनुसार है, न कि कुछ ऐसा जिसे वह पसन्द नहीं करता है, और जिसे वह अपने लोगों में देखना नहीं चाहता है। और जब जानते हैं कि परमेश्वर आपके बारे में, आपके विचारों, इच्छा और लालसाओं के बारे में, सब कुछ पहले से ही जानता है, तो स्वतः ही आपका प्रयास रहेगा कि आप अपने अन्दर ऐसा कुछ भी न आने दें जो उसे पसन्द नहीं है, उससे ऐसा कुछ भी ना माँगें जो उसकी इच्छा और पसन्द के अनुसार नहीं है। इसे एक कदम और आगे बढ़ाइए, जब आपको यह पता है कि आपको हर बात के लिए, कई बार परमेश्वर के सम्मुख आकर उससे वार्तालाप करना है, तो क्या आप अपने अन्दर ऐसा कुछ भी आने देंगे जो परमेश्वर को पसन्द न हो, जो उसकी इच्छा के अनुसार न हो, जिसे वह अपने लोगों में देखना न चाहता हो? यदि हम परमेश्वर की पसन्द की बातों के अनुसार अपने जीवन, सोच-विचार, भावनाओं, इच्छाओं और लालसाओं, व्यवहार, आदि को नियंत्रित और संचालित करने वाले बन जाएंगे, तो फिर हमारे मन, मस्तिष्क, और विचार कितने शुद्ध और स्वच्छ हो जाएंगे, हमारा आत्मिक स्तर, तो हमारा आत्मिक जीवन, तथा परमेश्वर के साथ हमारी घनिष्ठता कितनी अधिक उन्नत हो जाएगी। इससे हम समझ सकते हैं कि सर्वज्ञानी होने के बावजूद, परमेश्वर क्यों चाहता है कि हम बारम्बार उसके सामने आकर उससे प्रार्थना या वार्तालाप करते रहें; ताकि हम एक शुद्ध मन, विचार, विवेक, और व्यवहार वाले व्यक्ति रहें, और शैतान को हमारे अन्दर कुछ भी बुरा डालने का अवसर न रहे।

 

सच में, जैसा परमेश्वर ने यिर्मयाह 29:11 में कहा है, उसकी हर योजना, हर बात हमारी भलाई ही के लिए है; हमें इस बात को समझते हुए परमेश्वर के हर निर्देश को मानने वाला बनना चाहिए। अगले लेख में हम यहाँ से आगे देखेंगे। 

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Things Related to Christian Living – 62


The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (4)


In this study on practical Christian living, we are considering the fourth of the four things given in Acts 2:42, i.e., praying. In the previous article we had seen a reason why God wants His people to always be in an attitude of prayer, i.e., conversing with Him. We had understood how this God given instruction is for our good, to keep us safe from the ploys and devices of Satan. Today we will look further on the same topic - continually being in an attitude of prayer, and consider another of its aspects, that often perplexes the Christian Believers. But again, God has asked it to be done for our benefit only.


We know that one of the attributes of God is His being omniscient, i.e., knowing everything about everything. He knows the end of everything from its beginning (Isaiah 45:21; 46:10). There is nothing hidden from Him; He not only knows everything that is in man’s heart, but also knows and understands the intention behind those thoughts (1 Chronicles 28:9). Now, when God is omniscient, when He already knows everything beforehand, then why does He want that people should pray to Him, express their needs and desires before Him? He already knows everything about us; therefore, He should keep providing for us according to His foreknowledge. There is nothing wrong in saying this, and it is not that God does not act according to this rationalization. God said to the Israelites taken into captivity, “For I know the thoughts that I think toward you, says the Lord, thoughts of peace and not of evil, to give you a future and a hope” (Jeremiah 29:11); and by making it a part of His unalterable eternal Word, has made this assurance applicable for others as well.


But God desires that His people should come in His presence, and share whatever is in their hearts with Him, so that we should evaluate the prayers and conversations we address to Him, and remain safe from the schemes of Satan. We all know very well, and it is our personal experience as well, that we have many kinds of thoughts in our hearts about many people, many officials or dignitaries or VIPs. In our general conversation, we may say many things about them, or in their context, but it is not necessary that everything we say or think is correct, appropriate, and worthy of being openly said in the presence of that person. Whenever we are brought into the presence of that superior ranking person, then we are very careful about what we say, and say it in a very controlled manner. Moreover, if we know that there is something that he does not like, or if there is something that can belittle his dignity, can insult him, then we are very careful that we do not speak of that thing to him or in his presence, or do it. In other words, the presence of that person makes us evaluate what we are saying, analyze how we will express ourselves, and induces us to exercise restraint and moderation in our conversing with him, expressing ourselves before him, in our expressions and behavior before him. At such times, our effort and aim are to observe proper decorum and manners, and accord that person his due honor according to his status. Whatever we may be having in our hearts about him, we only say and behave in a manner that is appropriate and courteous in context of his stature and dignity. Therefore, coming into the presence of such an official to say something to him, induces us to evaluate our thoughts, our desires, our words, our expressions, our behavior, and then speak or do only the thing that is correct and appropriate. Now, what if the person in whose presence we have come to express ourselves, has the ability to automatically know everything that we have in our hearts, minds, and thoughts; has the ability to know and understand everything in us, without our uttering even a word; what would our condition be in such a situation? And then, if we have to come into his presence, and have to converse with him many times every day, then what kind of thoughts and things would we allow to come into us about him; and what all things would we stay away from?


Now, apply this very thing to yourself and God, and ponder over it. Since you have to say everything in your heart to Him, therefore you will evaluate yourself, your thoughts, your desires, your feelings, your behavior, and come into His presence reverentially, and say only that which is in accordance with His dignity and honor; also, you will only ask for that from Him, which is according to His will and desire, and not anything that He does not like and does not want to see in His people. And when you know that God already knows everything about you, about your thoughts, about your likes and desires; then automatically, you will take appropriate steps to ensure that you do not allow anything that He does not like to come into you, nor will you ask for anything that He does want to be seen in or with you. Take this a step further, now, when you know that you have to come in the presence of God many times, and converse with Him, then will you let anything within you that God does not like or want in you? If we begin to control and direct our lives, our thoughts, feelings, likes and desires, behavior to be in conformity with the will and desire of God for us, then think how pure and clean our hearts, minds, and thoughts will become; how much better our spiritual lives, spiritual status, and our intimacy with God will be. By this we can understand that though He is omniscient, why God wants that we keep coming into His presence over and over again to pray and converse with Him; because He wants us to be people of a pure and clean heart, mind and thoughts; and does not want that Satan should have any opportunity to place anything bad within us.


Truly, as God has said in Jeremiah 29:11, His every plan is only for our benefit; we should understand this and become those who obey all of God given instructions. In the next article, we will consider further from this point.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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