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शुक्रवार, 29 नवंबर 2024

The Solution For Sin - Salvation / पाप का समाधान - उद्धार - 4

 

पाप और उद्धार को समझना – 7

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पाप का समाधान - उद्धार - 4

    पिछले तीन लेखों में हमने उद्धार से संबंधित पहले प्रश्न – “उद्धार किससे और क्यों” को बाइबल की प्रथम पुस्तक, उत्पत्ति के 3 अध्याय में दिए गए विवरण के अनुसार विस्तार से देखा है; और पिछले लेख में हम इस प्रश्न के निष्कर्ष पर पहुंचे थे। निष्कर्ष में हमें दोनों बातों, “उद्धार किससे” तथा “उद्धार क्यों” को देखा था, जो संक्षेप में इस प्रकार है:

* किस से - उद्धार या बचाव पाप के दुष्प्रभावों से होना है, जिन के कारण मनुष्यों में आत्मिक एवं शारीरिक मृत्यु, डर, अहं, दोष, लज्जा, परमेश्वर से दूरी, अपनी गलतियों के लिए बहाने बनाना तथा दूसरों पर दोषारोपण करने, परमेश्वर की कृपा को नजरंदाज करने जैसी प्रवृत्ति और भावनाएं आ गई हैं।

* क्यों - क्योंकि हमारा सृष्टिकर्ता परमेश्वर हमारे पापों में पड़े हुए होने की दशा में भी, हम सभी मनुष्यों से अभी भी प्रेम करता है, हमारे साथ संगति रखना चाहता है; वह चाहता है कि हम उस से मेल-मिलाप कर लें, और उसके पुत्र-पुत्री होने के दर्जे को स्वीकार कर लें (यूहन्ना 1:2-13)। वह हमें विनाश में नहीं आशीष में देखना चाहता है और अपने साथ स्वर्ग में स्थान देना चाहता है। परमेश्वर की इस मनसा को स्वीकार करना अथवा नहीं करना, प्रत्येक मनुष्य का अपना निर्णय है।


उद्धार - कैसे? 

     आज से हम दूसरे प्रश्न, “व्यक्ति इस उद्धार को कैसे प्राप्त कर सकता है?” पर विचार आरंभ करेंगे, और हमारे विचार का आधार बाइबल की प्रथम पुस्तक, उत्पत्ति के 3 अध्याय में दिया गया पहले पाप का विवरण ही रहेगा।

 

    हम देख चुके हैं कि उद्धार का अर्थ है, उस प्रथम पाप द्वारा कार्यान्वित हुई विनाशक प्रक्रिया और उसके परिणामों को उलट कर वापस सृष्टि के समय की हमारी प्रथम स्थिति में बहाल किए जाने, तथा परिणामस्वरूप परमेश्वर के साथ टूटी हुई इस संगति में पुनः पहले के समान स्थापित हो जाना, तथा मृत्यु अर्थात परमेश्वर से उस अनन्त दूरी से बच जाना।


     मनुष्य उद्धार कैसे प्राप्त करे के संदर्भ में कुछ अति-महत्वपूर्ण, समझने के लिए अनिवार्य, एवं समाधान के लिए निर्णायक बातों पर ध्यान कीजिए: 

* मनुष्य के उस प्रथम पाप के कारण किसी धर्म के निर्वाह का उल्लंघन नहीं हुआ था – क्योंकि जब वह प्रथम पाप हुआ, तब वहाँ कोई धर्म तो था ही नहीं! और क्योंकि परमेश्वर का न तो कोई धर्म है, और न ही परमेश्वर ने कभी कोई भी धर्म बनाया अथवा बनवाया। संसार के सभी धर्म, ईसाई धर्म सहित, पाप में गिरे हुए मनुष्य के मन और विचारों की उपज हैं और पाप के कारण मनुष्यों में आई हुई परमेश्वर से विमुख कर देने वाली प्रवृत्ति एवं मानसिकता, मनुष्य को परमेश्वर की ओर फेर देना वाला उपाय नहीं प्रदान कर सकती है “अशुद्ध वस्तु से शुद्ध वस्तु को कौन निकाल सकता है? कोई नहीं” (अय्यूब 14:4)। 

* इसीलिए, अपने सभी दावों और आश्वासनों के बावजूद, आज तक कभी भी कोई भी धर्म किसी भी मनुष्य को निष्पाप, पवित्र, और परमेश्वर के समक्ष खड़ा होने योग्य नहीं बना सका है “हम तो सब के सब अशुद्ध मनुष्य के से हैं, और हमारे धर्म के काम सब के सब मैले चिथड़ों के समान हैं। हम सब के सब पत्ते के समान मुर्झा जाते हैं, और हमारे अधर्म के कामों ने हमें वायु के समान उड़ा दिया है” (यशायाह 64:6)। 

* मनुष्य को पाप से उभारने का एक मात्र उपाय पापों से पश्चाताप करना, उनके लिए प्रभु यीशु मसीह से क्षमा माँगना, और स्वेच्छा तथा सम्पूर्ण समर्पण के साथ प्रभु यीशु मसीह का शिष्य बनना, ईसाई या किसी धर्म में नहीं, बल्कि मसीही विश्वास में आना है, “इसलिये परमेश्वर अज्ञानता के समयों में आनाकानी कर के, अब हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है” (प्रेरितों 17:30)। “यदि तू अपने मुंह से यीशु को प्रभु जानकर अंगीकार करे और अपने मन से विश्वास करे, कि परमेश्वर ने उसे मरे हुओं में से जिलाया, तो तू निश्चय उद्धार पाएगा। क्योंकि धामिर्कता के लिये मन से विश्वास किया जाता है, और उद्धार के लिये मुंह से अंगीकार किया जाता है” (रोमियों 10:9-10)।

* क्योंकि पाप धर्म के उल्लंघन से नहीं है, इसलिए इसके निवारण में भी किसी भी धर्म का (वह चाहे कोई भी धर्म, चाहे ईसाई धर्म ही क्यों न हो), कोई भी स्थान या महत्व नहीं है “क्योंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है, और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन परमेश्वर का दान है। और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्ड करे” (इफिसियों 2:8-9)। 

* समस्या व्यक्तिगत रीति से परमेश्वर और मनुष्य के मध्य विश्वास में विच्छेद से उत्पन्न हुई; आदम और हव्वा ने व्यक्तिगत रीति से, अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार, अनाज्ञाकारिता, अर्थात, पाप करने का निर्णय लिया। मनुष्य ने शैतान की बातों में आकर परमेश्वर की कही बातों, उसके द्वारा मनुष्य के लिए दिए प्रावधानों, तथा मनुष्य के प्रति परमेश्वर की इच्छा तथा योजना के सर्वोत्तम और भले होने पर अविश्वास किया; और इसी अविश्वास के अन्तर्गत मनुष्य ने अपनी समझ-बूझ, अपने आँकलन को परमेश्वर की समझ-बूझ और उसके आँकलन से बेहतर समझा, जिसके कारण फिर उन्होंने परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता भी की। 

* इसीलिए प्रत्येक मनुष्य के पाप का समाधान भी परमेश्वर और प्रत्येक मनुष्य के मध्य व्यक्तिगत रीति से विश्वास को पुनः स्थापित करने के द्वारा ही है। 

* इसके लिए अनिवार्य है कि प्रत्येक मनुष्य स्वेच्छा से परमेश्वर की हर बात को, हर बात के लिए परमेश्वर की समझ-बूझ और हर बात के लिए परमेश्वर के आँकलन एवं समाधान को, अपनी बात, अपनी समझ-बूझ और अपने आँकलन से उत्तम तथा सर्वोपरि स्वीकार करे, और अपने आप को, अपनी हर सोच-समझ, दृष्टिकोण, प्रवृत्ति, सूझ-बूझ और व्यवहार को पूर्णतः परमेश्वर के हाथों में समर्पित कर दे। 

* अपनी नहीं वरन केवल और केवल परमेश्वर के कहे के अनुसार ही करे - उस आज्ञाकारिता की दशा में आ जाए, जिसमें उसकी रचना की गई थी, और जिसके निर्वाह के लिए उसे कहा गया था।

    

    हम इस प्रश्न पर विचार को ज़ारी रखेंगे; किन्तु अभी के लिए आपके सामने यह प्रश्न है - आप अपने आप को परमेश्वर के समक्ष ग्रहण योग्य किस प्रकार बना रहे हैं - अपने धर्म-कर्म के द्वारा, अथवा प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास के द्वारा? परमेश्वर के वचन बाइबल में दिया गया उद्धार का मार्ग किसी धर्म का पालन करना नहीं वरन केवल प्रभु यीशु मसीह को उद्धारकर्ता स्वीकार का लेना ही है “यीशु ने उस से कहा, मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूं; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुंच सकता” (यूहन्ना 14:6)। यदि आपने अभी तक उसे अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता स्वीकार नहीं किया है, तो अभी यह करने का अवसर आपके पास है। आपकी स्वेच्छा, सच्चे मन और अपने पापों के लिए पश्चाताप के साथ की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु, मैं मान लेता हूँ कि मैंने मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता करके पाप किया है। मैं धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों को अपने ऊपर लेकर, मेरे स्थान पर उनके मृत्यु-दण्ड को कलवरी के क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा सह लिया। आप मेरे स्थान पर मारे गए, और मेरे उद्धार के लिए मृतकों में से जी भी उठे। कृपया मुझ पर दया करें और मेरे पाप क्षमा करें। मुझे अपना शिष्य बना लें, और अपनी आज्ञाकारिता में अपने साथ बना कर रखें” आपको पाप के विनाश से निकालकर परमेश्वर के साथ संगति और उसकी आशीषों में लाकर खड़ा कर देगी। क्या आप यह प्रार्थना अभी समय रहते करेंगे - निर्णय आपका है?



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 Understanding Sin and Salvation – 7

English Translation

The Solution For Sin - Salvation - 4


In the last three articles, we've looked at our first question related to considering salvation, “from whom and why"; based on the description given in the first book of the Bible, Genesis chapter 3; And in the previous article we had seen the conclusion of this question. In the conclusion, we had looked at both of these points, “salvation from whom or what” and “salvation - why”. These conclusions are summarized as follows:

* From whom - Salvation or being saved is from the ill effects of sin, which cause spiritual and physical death in humans, and create fear, ego, guilt, shame, distance from God, tendency of making excuses for one's mistakes and blaming others, and of ignoring God's grace. And we see all of these to be rampant in all of the people of the world, since everyone is under the effect and control of sin. 

* Why - because our Creator God still loves all of us human beings, wants to be in fellowship with us, despite our being in sin. He wants to see us reconciled to Him, and to voluntarily accept the status of becoming His sons and daughters (John 1:2-13). He does not want to see us in destruction, but in blessings and wants to give us a place in heaven with Him. To accept or not to accept this intention and invitation of God is the personal decision of each person.


Salvation - How?

From today we will look into the second question, “How can one attain this salvation?” And our discussion will continue to be based on the description of the first sin as is given in chapter 3 of the first book of the Bible, Genesis.


We've seen that salvation, or to be saved, means to obtain a reversal of the destructive process and consequences brought about by that first sin, to be restored back to our original state of creation, and consequently to be restored back into the fellowship with God which was broken because of sin. And thereby we get to escape from coming into that eternal separation from the Lord God, i.e., from eternal death.


Consider a few concepts that are very important to know, essential to grasp, and crucial to understand how man receives salvation:

* Because of that first sin of man nothing related to the practice of any religion was violated – because when that first sin happened, then there was no religion at all! Because God has no religion, and God never created or made any religion, therefore religion has nothing whatsoever to do with this situation and its consequences. All religions of the world, including Christianity, are the product of the mind and thoughts of a fallen man, and therefore, no religion can reverse the tendency and mentality brought by sin into mankind, to turn them away from God. The product of a sinful mind and heart cannot ever provide a way to return man back to the state of holiness and purity from God. “Who can bring a clean thing out of an unclean? No one!" (Job 14:4).

* That is why, in spite of all the claims and assurances, no religion has ever been able to make any man sinless, holy, and capable to stand before God. “But we are all like an unclean thing, And all our righteousnesses are like filthy rags; We all fade as a leaf, And our iniquities, like the wind, Have taken us away” (Isaiah 64:6).

* The only way to lift man out from sin is through his acceptance and repentance of sins, his asking forgiveness for them from the Lord Jesus Christ, and his becoming a disciple of the Lord Jesus Christ willingly and with complete submission. It is not by coming into Christianity or any religion, but into the Christian faith. “Truly, these times of ignorance God overlooked, but now commands all men everywhere to repent" (Acts 17:30). “that if you confess with your mouth the Lord Jesus and believe in your heart that God has raised Him from the dead, you will be saved. For with the heart one believes unto righteousness, and with the mouth confession is made unto salvation” (Romans 10:9-10) - nothing related to any religion; only repentance, confession and faith in Christ Jesus.

* Since sin did not result from the violation of any religion, so no religion (whatever religion it may be, even it be Christianity) has any place or importance in its solution and resolution "For by grace you have been saved through faith, and that not of yourselves; it is the gift of God, not of works, lest anyone should boast” (Ephesians 2:8-9).

* The problem arose because of a personal falling away from trust of man in God and His Word, His instructions. Adam and Eve on their own and individually, according to their own wisdom and understanding, took the decision to disobey God, i.e., to sin. Man, being enticed by the words of Satan, disbelieved in what God had said, he disbelieved in the provisions God had made for man, and disbelieved in trusting that God’s desires and plans are the best for man. And under this unbelief, man considered his own understanding, his own assessment to be better than God's understanding and God’s assessment, due to which he decided to disobey God.

* That is why the solution to each man's sin is also by re-establishing this trust between God and each man in a personal way.

* For this it is necessary for every man to willingly accept everything of God, to accept that the understanding of God for everything and the assessment and solution of God for everything, is over and above man’s own thoughts, man’s own understanding and assessment. That man should voluntarily and completely surrender himself into the hands of God; in each and every of his thoughts, wisdom, attitude, point of view, understanding and behavior.

* It is also necessary that man instead of doing according to his own understanding, will and desires, should do only and only according to what God says - that he come back into the state of obedience in which he was created, and to which he was called.


    We will continue to consider this question in the subsequent articles; But the question before you for now is - how are you making yourself acceptable to God - through your own contrived works of righteousness, or by faith in the Lord Jesus Christ? The only way to salvation given in God's Word the Bible is not following any religion but accepting the Lord Jesus Christ as savior “Jesus said to him, "I am the way, the truth, and the life. No one comes to the Father except through Me" (John 14:6). If you haven't yet accepted Him as your personal Savior, now is your chance to do so. A short prayer said voluntarily with a sincere heart and with heart-felt repentance for your sins, and in a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible or not, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 


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