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व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 99
मसीही जीवन और व्यवस्था का पालन (4)
व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों को प्रेरितों 15 अध्याय से देखते हुए, हमने देखा है कि यरूशलेम की कलीसिया के प्रेरितों, प्राचीनों, और अगुवों ने पवित्र आत्मा कि अगुवाई में यह निर्णय लिया और सभी स्थानों पर बता दिया कि उद्धार और परमेश्वर से मेल-मिलाप के लिए केवल सुसमाचार पर, प्रभु यीशु मसीह और कलवरी के क्रूस पर किए गए उसके कार्य, उसके पुनरुत्थान पर विश्वास करना है। इस विश्वास के साथ किसी को भी व्यवस्था-पालन को नहीं जोड़ना है। साथ ही यरूशलेम के उन अगुवों ने अन्यजातियों से मसीही विश्वास में आए हुए लोगों के लिए यह निर्देश भी दिए कि वे अपने उद्धार से पहले के व्यवहार और जीवन में से चार बातों को छोड़ दें। ये चार बातें हैं, मूरतों की अशुद्धता (अर्थात मूरतों को बलि किए हुओं के माँस), व्यभिचार, गला घोंटे हुओं का माँस, और लहू को खाना। इन चार बातों पर ध्यान करने से प्रकट है कि पहली और दूसरी बात (मूरतों की अशुद्धता, व्यभिचार) परमेश्वर द्वारा दी गई दस आज्ञाओं का उल्लंघन हैं; और तीसरी तथा चौथी बात (गला घोंटे हुओं का माँस, और लहू) भी एक ही बात के दो स्वरूप हैं, अर्थात लहू को खाना। परमेश्वर द्वारा मूसा में होकर इस्राएलियों को दी गई व्यवस्था में भी लहू और लहू लगा हुआ माँस खाना वर्जित था (लैव्यव्यवस्था 3:17; 7:26; 17:10, 14; 19:26)। इस कारण यह प्रश्न सामने आया कि एक ओर तो विवाद और चर्चा करके पवित्र आत्मा की अगुवाई में यह कहा जा रहा है कि व्यवस्था की बातों का पालन करने की कोई आवश्यकता नहीं है। किन्तु साथ ही व्यवस्था की कुछ बातों का पालन करना अनिवार्य करके उससे सम्बन्धित निर्देश भी सभी के पालन के लिए दिए जा रहे हैं। क्या यह वचन में, परमेश्वर की बातों में, एक विरोधाभास को, मनमानी बात को लागू करने को नहीं दिखाता है? आज हम इसी प्रश्न के निवारण के बारे में देखेंगे।
पिछले लेख को हमने इस बात के साथ समाप्त किया था कि परमेश्वर के वचन को यदि उसके सही सन्दर्भ के साथ देखें, विषय से सम्बन्धित अन्य स्थानों पर दी गई बातों के साथ देखें, तो वचन के ही हवालों से बहुत से प्रश्नों का निवारण हो जाता है, और हम गलत अर्थ और व्याख्या से बच जाते हैं। इस आधार पर आज पहले हम लहू और लहू लगे हुए माँस को खाने से सम्बन्धित निर्देश के बारे में वचन की सम्बन्धित बातों को देखते हैं।
सृष्टि के आरम्भ में, परमेश्वर ने जब पशुओं की, और फिर आदम और हव्वा की सृष्टि की, तो सभी को शाकाहारी बनाया था “फिर परमेश्वर ने उन [आदम और हव्वा] से कहा, सुनो, जितने बीज वाले छोटे छोटे पेड़ सारी पृथ्वी के ऊपर हैं और जितने वृक्षों में बीज वाले फल होते हैं, वे सब मैं ने तुम को दिए हैं; वे तुम्हारे भोजन के लिये हैं: और जितने पृथ्वी के पशु, और आकाश के पक्षी, और पृथ्वी पर रेंगने वाले जन्तु हैं, जिन में जीवन के प्राण हैं, उन सब के खाने के लिये मैं ने सब हरे हरे छोटे पेड़ दिए हैं; और वैसा ही हो गया” (उत्पत्ति 1:29-30)। अर्थात सृष्टि के आरम्भ से पृथ्वी के प्राणियों में माँसाहर नहीं था; स्वाभाविक है कि जब पाप-रहित पृथ्वी पर मृत्यु ही नहीं थी, तो मांसाहार कैसे होता? बाद में शाकाहार से मांसाहार की ओर परिवर्तन भी परमेश्वर की ओर से किया गया; और यह नूह के समय के जल-प्रलय के बाद से आरम्भ हुआ। किन्तु परमेश्वर ने उसी समय, मांसाहार की अनुमति देने के साथ ही लहू को खाना वर्जित कर दिया था “सब चलने वाले जन्तु तुम्हारा आहार होंगे; जैसा तुम को हरे हरे छोटे पेड़ दिए थे, वैसा ही अब सब कुछ देता हूं। पर मांस को प्राण समेत अर्थात लोहू समेत तुम न खाना” (उत्पत्ति 9:3-4)। यशायाह 11 अध्याय में, भविष्य में, शैतान की पराजय और पाप का निवारण हो जाने के बाद प्रभु यीशु के भावी राज्य का एक चित्र दिया गया है; उस चित्र में हमारे इस वर्तमान विषय से सम्बन्धित कुछ पद हैं “तब भेड़िया भेड़ के बच्चे के संग रहा करेगा, और चीता बकरी के बच्चे के साथ बैठा रहेगा, और बछड़ा और जवान सिंह और पाला पोसा हुआ बैल तीनों इकट्ठे रहेंगे, और एक छोटा लड़का उनकी अगुवाई करेगा। गाय और रीछनी मिलकर चरेंगी, और उनके बच्चे इकट्ठे बैठेंगे; और सिंह बैल के समान भूसा खाया करेगा। दूधपिउवा बच्चा करैत के बिल पर खेलेगा, और दूध छुड़ाया हुआ लड़का नाग के बिल में हाथ डालेगा” (यशायाह 11:6-8)। अर्थात, जब सृष्टि अपनी पहली पाप-रहित स्थिति में बहाल हो जाएगी, तब पशुओं में भी परस्पर हिंसा और मांसाहार का अन्त हो जाएगा, सभी के मध्य शांति और मेल-मिलाप बहाल हो जाएगा, और सभी फिर से पहले के समान शाकाहारी हो जाएंगे।
इन हवालों से हम देखते हैं कि मांसाहार सृष्टि के मूल स्वरूप की नहीं, पाप में बिगड़े हुए स्वरूप की बात है। लेकिन उस बिगड़ी हुई स्थिति में भी, मांसाहार की अनुमति देते समय, परमेश्वर ने मनुष्यों को लहू खाना वर्जित किया था। बाद में जब परमेश्वर द्वारा अपने लोगों के लिए व्यवस्था दी, तो उस व्यवस्था में इस लहू खाने के निषेध को स्मरण करवाया गया। लहू खाना वर्जित करना व्यवस्था से पहले से ही दी गई बात है; व्यवस्था में उसे केवल स्मरण करवाया गया है। अन्यजाति, जो यहोवा परमेश्वर से और उसकी बातों से दूर हो चुके थे, वे मांसाहार की अनुमति के साथ परमेश्वर द्वारा दिए गए इस निषेध से भी दूर हो चुके थे, और अन्य बातों के उल्लंघन की तरह, इस बात का भी उल्लंघन करने लगे थे। अब, जब मसीही विश्वास में आने के साथ वे यहोवा परमेश्वर के पास लौट आए, तो उन्हें फिर से यहोवा परमेश्वर के निर्देशों को बताना, और उनका पालन करवाना आवश्यक था। इसीलिए यरूशलेम के अगुवों ने इस निर्देश को सभी के लिए दिया।
इससे हम देखते हैं कि लहू खाना या लहू लगे हुए माँस को खाना वर्जित करना, व्यवस्था की किसी बात का पालन करने के लिए कहना नहीं था, वरन व्यवस्था से भी बहुत पहले, अब्राहम और उसके वंशज इस्राएलियों के पृथ्वी पर आने से भी बहुत पहले, परमेश्वर द्वारा दिए गए मांसाहार से सम्बन्धित आरम्भिक निर्देश का पालन करने के लिए कहना था। इसे व्यवस्था के पालन के साथ जोड़ना वचन की गलत व्याख्या करना और गलत अर्थ देना होगा। अगले लेख में हम व्यवस्था और दस आज्ञाओं के मध्य सम्बन्ध को देखेंगे और उस सन्दर्भ में मूर्तियों की अशुद्धता और व्यभिचार से अलग हो जाने के लिए दिए गए निर्देश को समझेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Practical Christian Living – 99
Christian Living and Observing the Law (4)
While considering the things related to practical Christian living from Acts chapter 15, we have seen that the Apostles, Elders, all leaders of the Church in Jerusalem, under the guidance of the Holy Spirit decided that for salvation and reconciliation with God only believing on the work accomplished on the Cross of Calvary by the Lord Jesus, and His resurrection is necessary. There is no need to add the observing of the Law to this faith. Along with this the leaders of the Jerusalem Church also gave instructions to those who had come into the Christian faith from the Gentiles, that they should leave aside four things which they used to do before coming to faith and their salvation. They were to separate from things polluted by idols (things offered to idols), from sexual immorality, from things strangled, and from eating blood. On paying attention to these four things, it is apparent that the first two (things polluted by idols and sexual immorality) are a disobeying of part of the Ten Commandments, and the third and fourth things (things strangled, and blood) are two forms of one thing i.e., eating blood. In the Law given by God through Moses, eating of blood and anything with blood has been forbidden (Leviticus 3:17; 7:26; 17:10, 14; 19:26). Therefore, this question has come up before us that on the one hand after a lot of debate and discussion, under the guidance of the Holy Spirit, it has been decided and instructed that there is no need to observe and follow the Law. But then, on the other hand, some things from the Law are being stated as mandatory and everyone is to observe and follow the related instructions. Does this not show a contradiction, an arbitrariness in implementing God’s Word? Today we will consider answering this question.
We had concluded the last article by saying that if we see God’s Word in its correct context, see it along with related things given at other places, then from the references of the Word many questions automatically get answered, and we are saved form any misinterpretations and misunderstandings. On this basis, today, first we will see about the instruction regarding eating of blood and of meat with blood, through the related references from the Word.
At the beginning of creation, when God created the animals, and then created Adam and Eve, He had created them all to be vegetarians “And God said, "See, I have given you [Adam and Eve] every herb that yields seed which is on the face of all the earth, and every tree whose fruit yields seed; to you it shall be for food. Also, to every beast of the earth, to every bird of the air, and to everything that creeps on the earth, in which there is life, I have given every green herb for food"; and it was so” (Genesis 1:29-30). In other words, the creatures of the world were not meat-eaters from the beginning of creation; which is only natural, since in a world without sin, there was no death, then how could there be meat-eating? Later on, the change to meat-eating from vegetarianism was also done by God; and it started after the flood in the time of Noah. But at the time of allowing meat-eating, God had simultaneously also forbidden the eating of blood “Every moving thing that lives shall be food for you. I have given you all things, even as the green herbs. But you shall not eat flesh with its life, that is, its blood” (Genesis 9:3-4). In chapter 11 of Isaiah, in the future, after Satan has been defeated, the problem of sin has been resolved and settled, a word-picture of the future reign of the Lord Jesus has been given; in this picture there are some verses related to our present topic “The wolf also shall dwell with the lamb, The leopard shall lie down with the young goat, The calf and the young lion and the fatling together; And a little child shall lead them. The cow and the bear shall graze; Their young ones shall lie down together; And the lion shall eat straw like the ox. The nursing child shall play by the cobra's hole, And the weaned child shall put his hand in the viper's den” (Isaiah 11:6-8). In other words, when the creation has been restored to its initial sinless state, then even amongst the animals the violence and meat-eating will also come to an end, there will be peace and reconciliation amongst all creatures, and everyone will revert to being vegetarian, as they were in the beginning.
From these references we see that meat-eating is not a part of the original creation, but is something that came in after sin had corrupted the creation. But even in that state of corruption, while giving the permission for meat-eating, God had forbidden mankind from eating blood. Therefore, not eating blood is something that was instructed before the giving of the Law. Later, when God gave His Law to His people, then in that Law, He put in the reminders for the eating of blood being forbidden. Eating of blood was forbidden long before the Law; the Law only reminds about it. The Gentiles, who had moved away from Jehovah God, had also moved away from this prohibition; and like they were violating other instructions of God, they were also violating this instruction from God. Now, through coming into the Christian faith, they had returned to Jehovah God; so, it became necessary to remind them about God’s instructions and ask them to obey them. Therefore, the leaders in Jerusalem gave this instruction for everyone to follow.
We see from this that to forbid eating blood or meat with blood, was not asking them to obey anything from the Law; rather it was asking them to obey an instruction given very early, even before Abraham and his descendants the Israelites came on earth. To associate it with obeying the Law will be misunderstanding and misinterpreting God’s Word. In the next article we will see the relationship between the Law and the Ten Commandments, and then, in that context, we will consider about the instruction for leaving the things polluted by idols (things offered to idols), and sexual immorality.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.