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आरम्भिक बातें – 101
परमेश्वर की क्षमा और न्याय – 7
पाप के प्रभाव, प्रतिफल, और परिणाम – 4
इब्रानियों 6:1-2 में दी गई आरंभिक बातों में से छठी बात, “अन्तिम न्याय” पर हमारे इस अध्ययन में, हम इस समय एक महत्वपूर्ण बिन्दु पर हैं, जहाँ हम प्रत्येक मसीही विश्वासी के प्रभु यीशु मसीह द्वारा किए जाने वाले न्याय को समझने का प्रयास कर रहे हैं। पिछले लेखों में देख चुके हैं कि परमेश्वर का वचन बाइबल इस बात को बिलकुल स्पष्ट कर देता है कि यह न्याय स्वर्ग अथवा नरक जाने का निर्धारण करने के लिए नहीं होगा, क्योंकि यह निर्णय तो प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपने लिए, यहीं पृथ्वी पर ही कर लेता है। जो यीशु को प्रभु स्वीकार कर के अपना जीवन उसे समर्पित कर देते हैं, और उसके साथ रहने का निर्णय ले लेते हैं, वे अपने निर्णय के अनुसार, पृथ्वी से जाने के बाद प्रभु के साथ, उसके निवास स्थान, अर्थात स्वर्ग में रहेंगे। लेकिन जो प्रभु यीशु का अपना उद्धारकर्ता होने का, उसको समर्पित रहने का तिरस्कार करते हैं, उस से दूर रहने का निर्णय लेते हैं, वे अपने इस निर्णय के अनुसार, पृथ्वी से कूच करने के बाद, वहाँ भेज दिए जाएँगे जहाँ पर प्रभु परमेश्वर नहीं है, अर्थात नरक में।
हमने यह भी देखा है कि बाइबल हमें बताती है कि प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही के जीवन को बारीकी से जाँचा जाएगा और उद्धार पाने के बाद से उसने जैसा मसीही जीवन जिया है, मन में जो बातें रखी हैं, उसके अनुसार उसे प्रतिफल और परिणाम देने के लिए उसका न्याय किया जाएगा। परमेश्वर का वचन हमें सिखाता है कि इस न्याय के लिए विश्वासी के जीवन की प्रत्येक बात, भली हो या बुरी, प्रकट की जाएगी और सभी का न्याय किया जाएगा। उनके लिए जो यह मानते हैं कि क्योंकि परमेश्वर का वचन हमें आश्वस्त करता है कि परमेश्वर पाप क्षमा करके उन्हें अपनी पीठ के पीछे फेंक देता है, और उन्हें भुला देता है, न्याय की इस बात से उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि परमेश्वर के वचन में विरोधाभास लाया जा रहा है, क्योंकि वे कहते हैं कि तो फिर वे पाप फिर से कैसे प्रकट किये जाएंगे, सब बातों का न्याय कैसे हो सकेगा? इसमें ज़रा सा भी, लेश मात्र भी सन्देह नहीं है कि परमेश्वर का वचन निश्चित ही यह प्रतिज्ञाएँ और आश्वासन देता है। लेकिन इन आश्वासनों के कारण परमेश्वर के वचन में कोई विरोधाभास नहीं है, यदि परमेश्वर के इन प्रावधानों को पवित्र शास्त्र के अन्य सम्बन्धित खण्डों और पदों के साथ देखा और समझा जाए तो। हम इसी दुविधा का परमेश्वर के वचन से निवारण करने का प्रयास कर रहे हैं; और इसके लिए हम वापस अदन की वाटिका में गए हैं, यह देखने के लिए कि मानव जाति और सृष्टि में पाप के प्रवेश के साथ और क्या कुछ हुआ है।
पिछले दो लेखों में हमने देखा है कि पहले पाप के साथ मानव जाति के लिए मुख्यतः तीन बातें साथ में आईं – सबसे पहली – मृत्यु, दो प्रकार से – आत्मिक (मनुष्य का परमेश्वर से अलग हो जाना) और शारीरिक (मनुष्य का मनुष्य से अलग हो जाना); और जैसा हम देख चुके हैं, कलवरी के क्रूस पर प्रभु यीशु द्वारा दिए गए बलिदान में विश्वास करने के द्वारा उद्धार प्राप्त करना, मृत्यु की इस दशा को अनन्त जीवन की बहाली के लिए पलट दिया जाना, और मनुष्य का परमेश्वर के, तथा मनुष्य का मनुष्यों के साथ मेल-मिलाप हो जाना है। दूसरी बात, पाप आजीवन दुःख, परिश्रम, और तकलीफें सहने का श्राप भी लेकर आया; यह ऐसा श्राप है जो इस पापमय देह के साथ जुड़ा हुआ है। इसीलिए ये बातें परमेश्वर द्वारा प्रत्येक जन की देखभाल करने से भी नहीं जाती हैं, और न ही उद्धार पाने और पापों की क्षमा प्राप्त होने, तथा परमेश्वर की सन्तान बन जाने से हट जाती हैं। तीसरी बात है, परमेश्वर से मिला आश्वासन कि जो सच में उसके पास लौट आते हैं, उसे अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, उनके लिए उनके स्वर्गीय निवास-स्थान में उसने कुछ अत्यन्त अद्भुत तैयार कर के रखा हुआ है; वह इतना विलक्षण है कि मानवीय समझ की क्षमताओं से बिल्कुल परे है; और उनके द्वारा उद्धार पाने के बाद जीए गए मसीही जीवन और मनों में रखी गई बातों के अनुपात में उन्हें दिया जाएगा। दूसरे शब्दों में परमेश्वर अपने प्रत्येक विश्वासी को उसके लिए सर्वथा उचित और उपयुक्त प्रतिफल देगा। जो परमेश्वर के लिए जीते और उसकी तथा उसके वचन की आज्ञाकारिता में कार्य करते हैं, उनके लिए स्वर्गीय प्रतिफलों वाला अनन्तकाल प्रतीक्षा कर रहा है।
लेकिन यहाँ पर एक व्यावहारिक समस्या भी है; क्योंकि यहाँ पर यह मान लिया जाता है कि विश्वासी के द्वारा की गई केवल भली बातों का ही न्याय होगा, और उन्हीं के लिए प्रतिफल मिलेंगे। यह मान्यता इसलिए है क्योंकि जो वास्तव में नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी हैं, वे अपने पाप, जो उनसे जाने-अनजाने में प्रतिदिन के जीवन में होते रहते हैं, जब भी उन्हें उन पापों का एहसास होता है, वे उनका अँगीकार करके, उनके लिए परमेश्वर से क्षमा भी माँगते रहते हैं। और यह परमेश्वर का आश्वासन है कि यदि हम अपने पापों को मान लें तो वह उन्हें क्षमा करके हमें बहाल भी कर देता है (1 यूहन्ना 1:9)। इसलिए उन थोड़े से पापों के अतिरिक्त, जो किसी कारण से अँगीकार किए जाने और क्षमा माँगे जाने से रह गए हों, सच्चे विश्वासी के अधिकाँश पाप क्षमा हो चुके हैं; और क्योंकि परमेश्वर क्षमा करके भुला देता है, इसलिए सच्चे विश्वासियों के जीवनों में बहुत ही कम कुछ ऐसा होगा जो बुरा है और जिसका न्याय किया जाना चाहिए। लेकिन इसी मान्यता ने विश्वासियों में यह प्रवृत्ति भी उत्पन्न की है कि वे परमेश्वर के इस प्रावधान का दुरुपयोग करें। इस प्रवृत्ति के अन्तर्गत, बहुत से विश्वासी पाप करते हैं, उसका लाभ उठाते हैं, उसके बाद उसका अँगीकार करके उसके लिए परमेश्वर से क्षमा माँग लेते हैं; और फिर आवश्यकता के अनुसार फिर से पाप कर लेते हैं, और यही चक्र चलता रहता है, क्योंकि पाप क्षमा होने के बाद भुला दिया गया और विश्वासी बहाल कर दिया गया। उन्होंने यह सोच भी कैसे लिया कि परमेश्वर ऐसा मूर्ख है कि पापों को क्षमा करने और भुला देने की प्रतिज्ञा देते समय उसने इस सम्भावना के बारे में सोचा नहीं होगा, इसका कोई प्रावधान नहीं किया होगा? ये लोग ऐसा क्यों समझते हैं कि परमेश्वर को यह एहसास नहीं हुआ होगा कि पापी मनुष्य, शैतान के मार्गदर्शन में, परमेश्वर की क्षमा और उदारता का इस तरह से दुरुपयोग करेगा?
परमेश्वर के न्याय के साथ इन बातों के ताल-मेल को हम अगले लेख में देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 101
God’s Forgiveness and Justice – 7
The Effects, Results and Rewards of Sin - 4
In our consideration of “Eternal Judgment,” the sixth elementary principle of Hebrews 6:1-2, we are in a crucial stage of trying to understand the judgment that every Christian Believer will have to go through, with the Lord Jesus as our judge. In the previous articles we have seen that God’s Word the Bible makes it very clear that this judgment will not be to decide going to heaven or hell, for that decision is made by every person on his own, while here on earth. Those who accept Jesus as Lord and savior and decide to be with Him, they, after departure from earth will go to be with Him, where He is, in heaven. Whereas those who reject the Lord Jesus as their savior and decide not to submit to him, decide to stay away from Him here on earth, after their departure from earth, will, as per their own choice, be sent to the place away from the Lord God, i.e. hell.
We have also seen that the Bible tells us that every Born-Again Christian Believer will be thoroughly evaluated and judged, to give him his rewards and consequences of the Christian life he has lived and the things he has kept in his heart since his being saved or being Born-Again. God’s Word teaches us that for this judgement everything about the Believer, whether good or bad, will be laid open and judged. This seems to bring in a contradiction in God’s Word for those who believe that since God’s Word assures us that God forgives sins, throws them behind His back, and forgets them, so how can these forgiven sins be brought up again? There is no absolutely no doubt that God’s Word does make those promises and gives these assurances; but these assurances do not bring in any contradiction if God’s provisions are seen and interpreted properly in light of other related Scriptural passages. It is this very dilemma that we are trying to understand from God’s Word; and to do this we have gone back to the Garden of Eden to see what all happened with the entry of sin into mankind and the creation.
In the previous two articles we have seen that essentially, the first sin brought in three things for mankind – firstly death – both spiritual (man’s separation from God) and physical (man’s separation from man); and as we have seen, salvation, through faith in the sacrifice of the Lord Jesus on the cross of Calvary, is the reversal of this state of death to eternal life, and for restoration of fellowship between man and God, and also man and man. Secondly sin brought the curse of lifelong toil, pain, and misery; and this curse is tied to this sinful body for a person’s lifetime. Therefore, these are not eliminated despite the care given by God to every person, nor even with salvation, forgiveness of sins, and becoming children of God. Thirdly, God have the assurance that those who return back to Him and submit to Him, for them in their eternal heavenly abode, He has kept ready something so marvelous, that it is beyond human capacity and capabilities of understanding; and will be given in proportion to the Christian lives His people have lived and the things they have kept in heart while here on earth after, since after their salvation. In other words, God will give every Believer his fair and just rewards, and an eternity of heavenly rewards awaits those who live and work for God, in obedience to Him and His Word.
But there is a practical problem here; because the inherent assumption is that it is only everything good that the Believers have done that will be evaluated for these rewards. This assumption is because the truly Born-Again Christian Believers, since they very often keep confessing the sins they may commit in their day-to-day lives, and ask for God’s forgiveness for them, as and when they realize them; and it is God’s assurance that if we confess our sins He forgives and restores us (1 John 1:9), therefore except for a few sins that may inadvertently have gone unconfessed, most of the sins would already be confessed and forgiven. Hence, since what God has forgiven, He has also forgotten, so there is hardly anything bad that remains to be judged in a Believer’s life. This belief has given rise to the tendency of misusing God’s forgiving and forgetting as a license to sin by many Believers. As per their need, they sin, enjoy the benefits of their sin, then confess and ask its forgiveness from God, and then repeat it again, as and when required; and this cycle keeps getting repeated, since after being forgiven, sin is forgotten and the Believer is restored back. Why do they even think that God was foolish had not thought about this possibility, and had made no arrangements for it, when He gave this promise of forgiving and forgetting sin? Why do they assume that God did not realize sinful mankind under the guidance of Satan, would so misuse His provision and benevolence?
We will consider how these things count with God’s justice in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.