मसीही विश्वास एवं शिष्यता – 21
Click Here for the English Translation
मसीही विश्वासी - सदा प्रभु के साथ रहे (2)
पिछले लेख से हमने मरकुस 3:14-15 में दी गई उन तीन बातों के बारे में विचार करना आरम्भ किया है, जो प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों के लिए निर्धारित की हैं; जो आज भी सभी वास्तविक मसीही विश्वासियों के लिए प्रभु की शिष्यता का उद्देश्य हैं। पिछले लेख में हमने पहली बात, कि शिष्य प्रभु के साथ बने रहें के पहले भाग को देखा था। हमने देखा है कि प्रभु के साथ बने रहने में ही मसीही विश्वासी की सुरक्षा है, और व शैतान की युक्तियों से, हानि से बचा रहता है, प्रभु के लिए उपयोगी तथा अपने जीवन में आशीषित रह सकता है। आज हम इसी पहली बात के बार में कुछ और देखेंगे, और प्रभु के साथ बने रहने के महत्व को और आगे की बातों से समझेंगे।
प्रभु के साथ बने रहने के और भी लाभ हैं। प्रभु ने कहा है “हे सब परिश्रम करने वालों और बोझ से दबे लोगों, मेरे पास आओ; मैं तुम्हें विश्राम दूंगा। मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो; और मुझ से सीखो; क्योंकि मैं नम्र और मन में दीन हूं: और तुम अपने मन में विश्राम पाओगे। क्योंकि मेरा जूआ सहज और मेरा बोझ हल्का है” (मत्ती 11:28-30)। ‘जुआ’ या yoke वह उपकरण होता है जो किसान दो बैलों के द्वारा खेत जोतने के लिए प्रयोग करते हैं; जिसके अगले सिरे पर दो बैलों को साथ जोता जाता है और पिछला सिरे के निचले भाग में हल होता है और ऊपरी भाग किसान के हाथ में नियंत्रण के लिए रहता है। मत्ती 11:28-30 के इस आह्वान के साथ प्रभु अपने विश्वासी जन के साथ, सांसारिकता के भारी जुए के स्थान पर अपने हल्के जुए में होकर जुतना चाह रहा है कि उसके साथ मिलकर, उसकी सहायता करते हुए उसके जीवन भर चल सके। जो प्रभु के साथ जुता रहेगा, वह प्रभु से जीवन की हर बात के लिए शांति, मार्गदर्शन, समाधान, और सहायता भी पाता रहेगा। समस्या तब ही होगी जब मसीही विश्वासी या तो प्रभु के हलके जुए को उतार कर फिर से सांसारिकता के उस भारी जुए में जाकर जुत जाए, जिसमें प्रभु उसके साथ नहीं जुत सकता है, या फिर प्रभु को साथ लिए बिना अकेला ही जुए में लगकर अपनी ही शक्ति और युक्ति से कार्य करने का प्रयास करे।
इसीलिए प्रभु ने अपने शिष्यों से कहा “तुम मुझ में बने रहो, और मैं तुम में: जैसे डाली यदि दाखलता में बनी न रहे, तो अपने आप से नहीं फल सकती, वैसे ही तुम भी यदि मुझ में बने न रहो तो नहीं फल सकते। मैं दाखलता हूं: तुम डालियां हो; जो मुझ में बना रहता है, और मैं उस में, वह बहुत फल फलता है, क्योंकि मुझ से अलग हो कर तुम कुछ भी नहीं कर सकते” (यूहन्ना 15:4-5)। जब तक हम प्रभु के साथ जुड़े रहेंगे, तब तक हम प्रभु से जीवनदायक सामर्थ्य, बुद्धि और समझ पाते रहेंगे, और उसके कार्यों को भली-भांति करते रहेंगे। जैसे ही हम अपनी सामर्थ्य, बुद्धि और समझ का सहारा लेंगे, अपनी योग्यता पर भरोसा रखने लगेंगे, प्रभु के कहे के अनुसार नहीं, वरन अपनी समझ और इच्छा अथवा किसी अन्य मनुष्य के कहे के अनुसार करने लगेंगे, तभी हम कठिनाइयों और समस्याओं में पड़ने लगेंगे, और हमें हताशाओं तथा कुंठित होने का सामना करना पड़ेगा। प्रभु की अगुवाई में, इस्राएलियों के लाल समुद्र पार करने के समान (निर्गमन 14 अध्याय), असंभव प्रतीत होने वाली बात भी संभव और सहज हो जाएगी; और बिना प्रभु की अगुवाई तथा सहायता के सरल और साधारण लगने वाली बात भी भारी पराजय बन जाएगी, जैसे यहोशू 7 अध्याय में इस्राएलियों के ऐ नगर में पराजय।
नए अथवा पुराने नियम के किसी भी परमेश्वर के जन या भविष्यद्वक्ता, या प्रेरित के जीवन और कार्यों को देख लें; सभी में आपको यही बात मिलेगी - जब तक वे प्रभु की अगुवाई में, प्रभु के कहे के अनुसार, प्रभु की सामर्थ्य और समझ के सहारे कार्य करते रहे, वे हमेशा ही हर परिस्थिति में हर बात पर जयवंत ही रहे। किन्तु जब भी उन्होंने अपनी या किसी अन्य मनुष्य की इच्छा या सलाह के अनुसार कार्य किया, उन्हें अन्ततः पराजय और समस्याएं ही हाथ लगीं, उनके सभी कार्य, सभी योग्यताएं और युक्तियाँ विफल हो गए, कुछ स्थाई और फलदायी नहीं रहा। प्रभु ने हमारी अगुवाई करते रहने की प्रतिज्ञा की है “मैं तुझे बुद्धि दूंगा, और जिस मार्ग में तुझे चलना होगा उस में तेरी अगुवाई करूंगा; मैं तुझ पर कृपा दृष्टि रखूंगा और सम्मत्ति दिया करूंगा” (भजन 32:8)। इसीलिए प्रभु अपने शिष्यों से चाहता है कि वे सब से पहले उसके साथ बने रहने के पाठ को सीखें, और अपनी समझ का सहारा न लें, तब ही शिष्यों के मार्ग सफल होंगे “तू अपनी समझ का सहारा न लेना, वरन सम्पूर्ण मन से यहोवा पर भरोसा रखना। उसी को स्मरण कर के सब काम करना, तब वह तेरे लिये सीधा मार्ग निकालेगा” (नीतिवचन 3:5-6)। नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी होने के नाते, हमें उसके साथ-साथ, धैर्य और विश्वास के साथ चलते रहना सीखना है - न उससे आगे भागने का प्रयास करना है और न आलसी होकर उससे पीछे रह जाना है। प्रभु के लिए उपयोगी और आशीषित होने के लिए मसीही विश्वासी को सबसे पहले उसके साथ बने रहने, और प्रभु को निर्देश देने की बजाए प्रभु के कहे के अनुसार करते रहने वाला बनना है। तब ही वह विश्वासी अपने मसीही जीवन में आगे बढ़ने और कार्यकारी तथा परिपक्व होने पाएगा।
इसलिए यदि आप अभी तक अपना जीवन प्रभु यीशु मसीह के नाम में, किन्तु अपनी अथवा अन्य मनुष्यों की ही सामर्थ्य, समझ, और शिक्षाओं अथवा युक्ति तथा योग्यता, के अनुसार जीते रहने का प्रयास करते रहें हैं, तो फिर आपको अपने जीवन में एक आमूल-चूल, एक मौलिक परिवर्तन करने की तात्कालिक आवश्यकता है। समय तथा अवसर के रहते आज ही, अभी ही, इस व्यर्थ एवं निष्फल धारणा एवं मान्यता से निकलकर प्रभु यीशु मसीह की वास्तविक शिष्यता में आ जाएं, और हर समय हर बात के लिए उसके साथ उसकी आज्ञाकारिता में बने रहने को निभाना आरंभ कर लें। कहीं ऐसा न हो कि जब परलोक में आँख खुले तब पता लगे कि आप अपनी ही जिन धारणाओं और मान्यताओं का सारे जीवन बड़ी निष्ठा से निर्वाह करते रहे उससे आपको कोई लाभ नहीं हुआ है, और अब उस गलती को सुधारने का कोई अवसर पास नहीं है; अब तो केवल अनन्तकाल का दण्ड ही मिलेगा। यदि आप अभी भी संसार के साथ और संसार के समान जी रहे हैं, या परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह की मानसिकता में भरोसा रखे हुए हैं, तो आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है।
यदि आपने अभी तक नया-जन्म, उद्धार नहीं प्राप्त किया है, प्रभु से अपने पापों के लिए क्षमा नहीं माँगी है, तो आपके पास या करने के लिए अभी समय औ अवसर है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
और
कृपया अपनी स्थानीय भाषा में अनुवाद और प्रसार करें
*************************************************************************
Christian Faith & Discipleship – 21
Christian Believer – Always With the Lord (2)
In the previous article, we began to consider the three things given in Mark 3:14-15 by the Lord, and ordained for His disciples; and which, even today, are the purpose for the true Christian Believers for being the Lord's disciples. From the last article we have been considering the first of these three things, to remain with the Lord, and seen its first part. We have seen that remaining with the Lord is the safety and security of the Christian Believer, that is where they are safe from the satanic ploys and harms; and can live a life useful for the Lord, be blessed. Today, we will see some more about this first thing, and understand further the importance of remaining with the Lord.
There are other benefits as well of being with the Lord. The Lord has said, “Come to Me, all you who labor and are heavy laden, and I will give you rest. Take My yoke upon you and learn from Me, for I am gentle and lowly in heart, and you will find rest for your souls. For My yoke is easy and My burden is light."” (Matthew 11:28-30). The ‘yoke’ is that piece of equipment whose front part the farmers put across the necks of two bullocks, to bind them together, and the hind part has the pointed metal tip to plough the fields. The top part, across the necks, is controlled by the farmer to guide and control the bullocks properly while ploughing. In this invitation of Matthew 11:28-30, the Lord Jesus is expressing the desire that His Believer come out of the heavy yoke of sin and worldliness, and join Him, be yoked with Him in His light yoke, travel the rest of the life journey along with the Lord, so that the Lord can help him all along the way. If the Christian Believer stays with the Lord, remains yoked with Him then the Lord will continue to give him peace, guidance, solutions, and help in all things throughout life’s journey. The Believer will face problems only if he decides to unyoke himself and either get yoked back with the heavy yoke of sin and worldliness - a yoke in which the Lord Jesus can never be with him; or the Believer decides to do things in his way, through his own strength, wisdom, and efforts, without taking the help of the Lord.
That is why the Lord said to His disciples, “Abide in Me, and I in you. As the branch cannot bear fruit of itself, unless it abides in the vine, neither can you, unless you abide in Me. I am the vine, you are the branches. He who abides in Me, and I in him, bears much fruit; for without Me you can do nothing” (John 15:4-5). So long as we are joined with the Lord, we will continue to receive from Him the life-giving strength, wisdom, and discernment to do things. But the moment we decide to trust in our own strength, wisdom, and discernment, in our own abilities, if we walk and work according to what seems right to us or what some other person tells us to do, instead of what the Lord instructs us to do, we will start falling into difficulties and problems, we will have to face frustrations and disappointments. When we walk and do according to what the Lord says, then as happened for the Israelites, the insurmountable problem of crossing the Red Sea will become possible and easy (Exodus chapter 14); but without the help and guidance of the Lord, even the seemingly easy and ordinary thing will become a cause of a heavy defeat, as happened with Joshua and the Israelites at Ai (Joshua chapter 7).
Look up the life of any Prophet, Apostle, or person of God, in either the Old or the New Testament, and you will find this in all of them - as long as they carried out their ministry in the guidance of the Lord, through the strength and wisdom of the Lord, they always remained victorious over every situation, everything. But if they started to do things according to their own will or wisdom, or under guidance of any other person, eventually they suffered heavy loss and defeats; all their works, abilities, and cleverness failed, nothing remained stable and fruitful in their lives. The Lord has promised to give us the right guidance “I will instruct you and teach you in the way you should go; I will guide you with My eye” (Psalms 32:8). It is for this reason that the Lord wants that His disciples should first and foremost learn the lesson of being with Him, learning from Him, and should not trust in their own wisdom and ways of doing things, only then will they be successful in all that they do “Trust in the Lord with all your heart, And lean not on your own understanding; In all your ways acknowledge Him, And He shall direct your paths” (Proverbs 3:5-6). As a Born-Again Believer, we need to learn to patiently be with Him and walk with Him - neither try to run ahead of Him, nor be lethargic and tardy and lag behind in the pace He sets for us. To be useful and fruitful for the Lord, and be blessed in his life by the Lord, the Christian Believer has to first learn to be with the Lord; not to instruct the Lord about things, but to be instructed by the Lord for everything. Only then will that Believer grow in His Christian life, become mature, effective, and fruitful for the Lord.
Therefore, if so far you have been living your life in the name of the Lord, but doing according to your own will, thoughts, desires, and abilities, or according to the guidance of some other person(s), then it is absolutely necessary that you effect a radical change in your outlook and life. If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
&
Please Translate and Propagate in your Regional Language