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रविवार, 16 जून 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 102

 

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आरम्भिक बातें – 63

हाथ रखना – 11

 

पिछले लेख में हमने प्रेरितों के काम के अध्याय 10 और 11 से देखा था कि पवित्र आत्मा उन अन्यजातियों को दिया गया, जिन्होंने विश्वास किया था (प्रेरितों 11:17), अचानक ही, बिना किसी पूर्वाभास अथवा किसी प्रकार की कोई तैयारी के, परमेश्वर की इच्छा में, और सब के सामने खुली रीति से दिया गया। इस रीति से पवित्र आत्मा का दिया जाना यरूशलेम की कलीसिया के प्रेरितों और अगुवों के लिए इस बात की पुष्टि थी कि अन्यजातियों का परमेश्वर के परिवार में जुड़ना, उन का प्रभु की एकमात्र सार्वभौमिक, विभाजित न हो सकने वाली कलीसिया का एक अँग बनना, प्रभु की दुल्हन उस की देह का एक भाग बनना, परमेश्वर की इच्छा में था; और इस से यरूशलेम की कलीसिया के प्रेरितों और अगुवों ने अन्यजाति विश्वासियों को कलीसिया में स्वीकार कर लिया (प्रेरितों 11:18)। यह आरंभिक कलीसिया की प्रणाली थी कि कलीसिया से सम्बन्धित बातों को प्रेरितों और अगुवों द्वारा परमेश्वर की अधीनता में विचार-विमर्श करने के द्वारा निर्धारित किया जाता था, और सभी विवादास्पद बातें उन के पास लाई जाती थीं कि सही समाधान पता लगाया जा सके (प्रेरितों 15:1-6; गलतियों 2:1-2)। यरूशलेम में प्रेरित और अगुवे, प्रार्थना, विचार-विमर्श, और परमेश्वर की अगुवाई से (प्रेरितों 15:28) जो भी निर्धारित करते थे, उसे फिर अन्य कलीसियाओं को भी बता दिया जाता था, ताकि यह सभी के लिए समान रीति से पालन की जाने वाली बात हो (प्रेरितों 15:23-31; 16:4)। इसलिए यह अनिवार्य था कि अन्यजाति विश्वासियों का कलीसिया में सम्मिलित किया जाना उन के द्वारा स्वीकार किया जाए। उन की स्वीकृति से यहूदियों और अन्यजातियों के बीच की दीवारें टूट गईं, और वे दोनों प्रभु की कलीसिया में एक हो कर रहने वाले बन गए।

आज हम प्रेरितों के काम पुस्तक के जिन तीन पदों के बारे में बात करते आ रहे हैं, उन में से एक, प्रेरितों 8:17, को देखेंगे। इन तीन पदों (प्रेरितों 8:17; 9:17; 19:6), के आधार पर कुछ समुदाय और डिनॉमिनेशन यह झूठी शिक्षा तथा गलत सिद्धान्त प्रचार करते और सिखाते हैं कि पवित्र आत्मा प्रेरितों या कलीसिया के अगुवों के हाथ रखने के द्वारा दिया जाता है। जबकि बाइबल यह स्पष्ट सिखाती है कि नया-जन्म पाए हुए प्रत्येक मसीही विश्वासी को उस के उद्धार पाते ही, अर्थात उस के पापों से पश्चाताप कर के प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार करने तथा अपना जीवन उसे समर्पण करने के पल से ही, परमेश्वर द्वारा पवित्र आत्मा दे दिया जाता है, जैसा कि हम ऊपर के अनुच्छेद में और पिछले लेखों में बाइबल के अन्य पदों से देख चुके हैं। पवित्र आत्मा का दिया जाना विश्वासी के अथवा उस के लिए किसी अन्य मनुष्य के द्वारा किए गए किसी भी कार्य के द्वारा नहीं है। इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छः आरम्भिक बातों में से चौथी, “हाथ रखना” पर ज़ारी हमारे इस अध्ययन में, पिछले कुछ लेखों में हम इन तीनों पदों की सही व्याख्या और समझ के लिए पृष्ठभूमि बनाते चले आ रहे हैं। हमने बाइबल के उदाहरणों तथा दैनिक व्यवहार की बातों से देखा है कि किसी पर हाथ रखने के द्वारा, हम उस व्यक्ति के साथ एकता और मिलाप को भी व्यक्त करते हैं, साथ ही उसे आश्वस्त भी करते हैं कि हम उस के साथ खड़े हैं, और उस की किसी भी परेशानी में उसे शान्ति या सांत्वना देते हैं।

जैसा कि हम पिछले लेखों में देख चुके हैं, यहूदी लोग सामरियों से कोई मेल-जोल नहीं रखते थे। अब, प्रेरितों 8 में हमारे सामने फिलिप्पुस है जो सामरियों के मध्य में सेवकाई कर रहा है, और सामरियों ने सुसमाचार को स्वीकार किया है। प्रेरितों 8:17 में लिखा है “तब उन्होंने उन पर हाथ रखे और उन्होंने पवित्र आत्मा पाया।” यह पद प्रेरित पतरस और यूहन्ना के द्वारा उन पर हाथ रखे जाने के बाद सामरी विश्वासियों के पवित्र आत्मा प्राप्त करने के बारे में है। सुसमाचार प्रचारक फिलिप्पुस ने सामरिया के एक गाँव में सुसमाचार प्रचार किया, दुष्टात्माओं को निकाला, और कई लोगों को चँगा किया (प्रेरितों 8:5-7), और वहाँ के लोगों ने फिलिप्पुस की बातों पर विश्वास किया (प्रेरितों 8:11-13)। फिलिप्पुस की इस सेवकाई के बारे में पता चलने पर, यरूशलेम की कलीसिया ने पतरस और यूहन्ना को वहाँ भेजा कि पता करें कि सामरिया में क्या हो रहा है। वहाँ आ कर फिलिप्पुस की सेवकाई के प्रभावों को देखने के बाद उन दोनों ने प्रभु में विश्वास करने वाले उन सामरी विश्वासियों के लिए प्रार्थना की, कि उन्हें पवित्र आत्मा दिया जाए, उस के बाद उन पर हाथ रखे, और तब उन सामरियों को पवित्र आत्मा प्राप्त हुआ (प्रेरितों 8:14-17)। परमेश्वर द्वारा यह इसलिए किया गया जिस से कि यरूशलेम की कलीसिया को कोई संदेह न रहे, स्पष्ट पुष्टि हो जाए कि सामरी भी विश्वास में कलीसिया के अन्य लोगों के समान ही हैं और परमेश्वर के परिवार का अँग हैं।

ऐसा प्रतीत होता है कि विश्वास में आने के बाद भी इन सामरियों को पवित्र आत्मा दिया जाना एक उद्देश्य से रोक कर रखा गया था। अब फिलिप्पुस की सेवकाई और उन के मध्य प्रकट पवित्र आत्मा के कार्यों के साथ ही, यरूशलेम से आए प्रेरितों के द्वारा उन पर हाथ रखे जाने से यरूशलेम की कलीसिया के सामरियों के साथ एकता और मिलाप में होने को व्यक्त करने, और परमेश्वर द्वारा उन पर अपना पवित्र आत्मा डाले जाने के द्वारा, जैसा हम ने पिछले लेख में अन्यजाति विश्वासियों के लिए देखा था, इन सभी बातों के कारण अब किसी के लिए किसी भी प्रकार के सन्देह की कोई सम्भावना नहीं रह गई थी कि प्रेरितों 1:8 के निर्देश के अनुरूप, सामरी भी अब परमेश्वर के परिवार और प्रभु की कलीसिया के एक अँग थे। जैसा कि अन्यजातियों के लिए किया गया, यहाँ पर भी यह केवल एक बार किया गया कार्य था; और एक बार जब परमेश्वर द्वारा यह सन्देश यरूशलेम की कलीसिया को दे दिया गया, और उन के द्वारा इसे स्वीकार कर लिया गया, तो फिर इसे कभी दोहराया नहीं गया। ध्यान कीजिए, पतरस और यूहन्ना के द्वारा हाथ रखने से पहले, उन दोनों ने परमेश्वर से सामरियों को पवित्र आत्मा दिए जाने के लिए प्रार्थना की। ऐसा नहीं था कि वे दोनों प्रेरित इस बात को मान कर चल रहे थे कि वे सामरियों पर हाथ रखेंगे, और परमेश्वर उन्हें पवित्र आत्मा देने के लिए बाध्य हो जाएगा; वे किसी घमण्ड में नहीं थे, वरन परमेश्वर के आज्ञाकारी थे। परमेश्वर द्वारा पवित्र आत्मा देना उन के हाथ रखने से नहीं था, बल्कि परमेश्वर द्वारा सामरियों के विश्वास करने को स्वीकार करने के कारण था, और अब परमेश्वर उन के इस विश्वास की पुष्टि यरूशलेम की कलीसिया से आए इन प्रेरितों के सामने कर रहा था, जिस से कि अन्य कलीसियाएँ भी उन्हें इसी प्रकार से स्वीकार कर लें। अगले लेख में हम प्रेरितों 9:17 और 19:6 के बारे में विचार करेंगे।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


The Elementary Principles – 63

Laying on of Hands - 11

 

In the previous article, we have seen from Acts chapters 10 and 11 that the Holy Spirit was given to the Gentiles who believed (Acts 11:17), it was given spontaneously, in the will of the Lord God, openly. The giving of the Holy Spirit in this manner served to affirm to the Apostles and Elders in the Church at Jerusalem, that it was in God’s will that the Gentiles should also be joined to the family of God as His children, be members of the one, universal, indivisible Church of the Lord Jesus, be a part of the Lord’s Bride and Body; and because of this the Apostles and Elders in Jerusalem accepted the Gentile Believers into the Church (Acts 11:18). It was the practice in the initial Church that the matters related to the Church were deliberated upon and decided under the guidance of God by the Apostles and Elders of the Jerusalem Church, and all controversial matters were brought to them for knowing the right thing to do (Acts 15:1-6; Galatians 2:1-2). What the Apostles and Elders in Jerusalem decided through prayer, deliberations, and God’s guidance (Acts 15:28), was then conveyed to the other churches and was accepted by everyone as the standard practice for all the Churches (Acts 15:23-31; 16:4). Therefore, it was essential that the Church in Jerusalem accept this inclusion of the Gentile Believers into the Church. Their acceptance served to break down the barriers between the Jewish and the Gentile Believers, and brought them to live together as one in the Church of the Lord.

Today we will consider one of the three verses from the book of Acts which we have been referring to, i.e., Acts 8:17. On the basis of these three verses (Acts 8:17; 9:17; 19:6), some sects and denominations preach and teach a false teaching, a wrong doctrine, that the Holy Spirit is given by the laying on of hands by the Apostles or the Church Elders। Whereas the Bible clearly teaches that the Holy Spirit is received by the Born-Again Christian Believer at the moment of his salvation, i.e., his repenting of sins, believing in the Lord Jesus as his savior, and submitting his life to the Lord, as we have seen in the paragraph above, and from other Bible verses in the preceding articles. The giving of the Holy Spirit is not by any human efforts of any kind by the Believer, or by anyone else for him. In our study of “laying on of hands,” the fourth of the six elementary principles given in Hebrews 6:1-2, over the past few articles we have been building a background for correctly interpreting and understanding these three verses from Acts. We have seen from Biblical examples, as well as examples from our day-to-day life that by placing hands on someone, we also convey a feeling of unity, of solidarity with that person, as well as assuring him of our standing with him, and comforting him for anything that may be disturbing him.

As we have seen in the earlier articles, the Jews did not mingle with the Samaritans. Now in Acts 8 we have Philip ministering among them, and the Samaritans accepting the gospel. It is written in Acts 8:17 “Then they laid hands on them, and they received the Holy Spirit.” This verse is about the Samaritan Believers receiving the Holy Spirit after the Apostles Peter and John had laid hands on them. Philip the evangelist ministered the gospel, cast out evil spirits, and healed many people in a village of Samaria (Acts 8:5-7), and the people there believed in what Philip preached (Acts 8:11-13). On hearing about this ministry of Philip, the Apostles in the Church at Jerusalem sent Peter and John to see what was happening in Samaria. Having come and seen the results of Philip’s ministry they prayed for these Samaritans who had believed in the Lord to receive the Holy Spirit, and then laid hands on them, and these Samaritans received the Holy Spirit (Acts 8:14-17).  This was done by God to affirm to the Church in Jerusalem that the Samaritans are also the same as others in faith in the Church, and are part of God’s family.

It seems that the giving of the Holy Spirit to these Samaritans, after their coming to faith in the Lord had been held back for a reason. Now, after Philip’s ministry and the works through the Holy Spirit being evident in them, by the Apostles from Jerusalem laying their hands on these Samaritan Believers and thereby conveying their unity and solidarity with them, and God openly pouring out His Holy Spirit upon them, as we have seen about the Gentile Believers in the last article, there was no reason for any doubt left that in accordance with Acts 1:8, the Samaritans too were a part of God’s family and the Lord’s Church. Like for the Gentiles, this too was a ‘one-time’ act; and once this message had been conveyed by God and accepted by the Church in Jerusalem, it was never repeated again. Take note, before laying of hands, Peter and John had prayed for God to give them the Holy Spirit; it was not that the two Apostles took it for granted that on their laying on of hands upon the Samaritans, God would be constrained to grant the Samaritans the Holy Spirit; they were not presumptuous, but were obedient to God. The giving of the Holy Spirit was not because of their laying on of hands, but because of God having accepted the faith of those Samaritans, and was now demonstrating His acceptance of the Samaritans to these Apostles from the Jerusalem Church, so that others too would similarly accept them. In the next article we will consider Acts 9:17 and 19:6

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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