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शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 231

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 76


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (18) 


व्यावहारिक मसीही जीवन में प्रेरितों 2:42 में दी गई चार बातों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। इन चारों बातों के लौलीन होकर पालन करने से, आरम्भिक मसीही विश्वासी अपने विश्वास में स्थिर और दृढ़ होते गए, सँख्या में बढ़ते गए, और कलीसियाएं भी बढ़ती गईं। इन चारों बातों का एक परम्परा के समान औपचारिक निर्वाह करने के कारण, इन चारों के बारे में मसीही समाज में अनेकों गलत शिक्षाएं और अनुचित धारणाएं घर कर गईं। इन चारों में से पहली तीन बातों के बाइबल के अनुसार सही स्वरूप और निर्वाह को देखने के बाद, हम इस समय इनमें से चौथी बात, प्रार्थना करने के बारे में परमेश्वर के वचन बाइबल से सीख रहे हैं। मसीहियों में यह आम धारणा है कि परमेश्वर की यह प्रतिज्ञा है कि जो भी प्रार्थनाएं “विश्वास से” और “यीशु के नाम में” माँगी जाएंगी, वह उन सभी का सकारात्मक उत्तर देगा। अपने इस अध्ययन में हमने देखा है कि ऐसा प्रभु की बातों को उनके सन्दर्भ से बाहर लेकर और उनकी गलत व्याख्या करने, गलत अर्थ देने के कारण है। परमेश्वर कि यह प्रतिज्ञा सभी लोगों की हर तरह की प्रार्थनाओं के लिए नहीं है। वरन केवल प्रभु के सच्चे, समर्पित, और आज्ञाकारी शिष्यों की परमेश्वर की इच्छा के अनुसार तथा उसके वचन से सुसंगत प्रार्थनाओं के लिए ही है। इस बात को समझने के लिए हम बाइबल में से प्रभु और शिष्यों द्वारा किए गए अद्भुत कार्यों से सीख रहे हैं। अभी तक हमने देखा है कि प्रभु के सच्चे, समर्पित, और आज्ञाकारी शिष्य भी तब ही सेवकाई और अद्भुत कार्य करने पाए जब उन्होंने उन कार्यों को प्रभु की अनुमति और उसकी सामर्थ्य के अन्तर्गत किया। जब उन्होंने अपनी इच्छा के अनुसार उन्हीं कार्यों को करना चाहा, तो नहीं करने पाए। इसी सन्दर्भ में हमने पिछले लेख में देखा था कि प्रभु ने अपने स्वर्ग पर उठाए जाने से पहले, शिष्यों को यरूशलेम से लेकर पृथ्वी के छोर तक सुसमाचार प्रचार की जो सेवकाई सौंपी थी, उसे वे केवल पवित्र आत्मा और उसकी सामर्थ्य पाने के बाद ही करने पाए थे। आज हम इसी बात को आगे देखेंगे। 


हम देख चुके हैं कि प्रभु ने जो सेवकाई शिष्यों को अपने स्वर्ग पर उठाए जाने के समय सौंपी थी, वह उससे भिन्न नहीं थी, जो उन्होंने प्रभु की पृथ्वी की सेवकाई के दिनों में, प्रभु के निर्देशानुसार और मार्गदर्शन में की थी। तब, उस समय उस सेवकाई को करने के लिए, उनके साथ प्रभु की सामर्थ्य थी। अब प्रभु के चले जाने के बाद उन्हें इसी सेवकाई को फिर से, वैसे ही प्रभावी रीति से करने के लिए, उसी ईश्वरीय मार्गदर्शन और सामर्थ्य की आवश्यकता थी। पवित्र आत्मा के उनमें आकर निवास करने के बाद, पवित्र आत्मा की सामर्थ्य उनको उपलब्ध हो गई, और वे फिर से वही सेवकाई, उसी रीति से, प्रभावी रीति से करने पाए। यह एक बार फिर दिखाता है कि प्रभु के वे शिष्य, अपनी प्रार्थनाओं को केवल “विश्वास से” माँगने, या “यीशु के नाम में” माँगने से कुछ नहीं कर सकते थे। उनकी प्रार्थनाओं और सेवकाई को सम्भव और प्रभावी होने के लिए उनमें परमेश्वर की सामर्थ्य भी अनिवार्य थी। किन्तु आज मसीही समाज में व्याप्त गलत शिक्षाओं और अनुचित धारणाओं के कारण, कोई भी केवल यह कहकर कि वह “विश्वास से” या “प्रभु यीशु के नाम से” प्रार्थना को माँग रहा है, आशा रखता है कि परमेश्वर उसकी प्रार्थना का सकारात्मक उत्तर देने के लिए बाध्य है। और जब बात उनकी इच्छा के अनुसार पूरी नहीं होती है, तो फिर उसका दोष परमेश्वर, प्रभु यीशु, मसीही विश्वास, प्रार्थना की आवश्यकता और औचित्य, आदि को दिया जाता है। कोई यह देखने का प्रयास नहीं करता है कि प्रार्थना में इन वाक्यांशों के प्रयोग के विषय वचन की सही शिक्षाएं क्या हैं। कलीसियाओं के अगुवे, पादरी, और प्रचारक भी वचन की सही समझ और शिक्षा के स्थान पर रूढ़िवादी गलत और अनुचित शिक्षाओं का ही प्रचार और प्रसार करते रहते हैं। बजाए प्रभु के चरणों पर बैठकर समर्पित और सच्चे मन से, वचन से यह सीखने के कि प्रभु ने प्रार्थना का उत्तर देने के बारे में वास्तव में कहा क्या है। 


प्रभु यीशु ने शिष्यों को यूहन्ना 14 से 16 अध्यायों में परमेश्वर पवित्र आत्मा के उनकी सहायता के लिए उनमें आकर रहने, और उन्हें सामर्थ्य देने के बारे में सिखाया था। पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से शिष्यों द्वारा की जाने वाली सेवकाई के सन्दर्भ में हम उसी खण्ड में से एक पद देखते हैं, “परन्तु सहायक अर्थात पवित्र आत्मा जिसे पिता मेरे नाम से भेजेगा, वह तुम्हें सब बातें सिखाएगा, और जो कुछ मैं ने तुम से कहा है, वह सब तुम्हें स्मरण कराएगा” (यूहन्ना 14:26)। यहाँ पर हम स्पष्ट देखते हैं कि पवित्र आत्मा प्रभु के सच्चे शिष्यों का सहायक है; वह उन्हें प्रभु के वचन को सिखाता है; वह उन्हें प्रभु की बातें याद दिलाता है। पिछले लेखों में हम देख चुके हैं कि प्रभु के सच्चे शिष्यों की केवल उन्हीं प्रार्थनाओं के सकारात्मक उत्तर मिलते हैं, जो परमेश्वर की इच्छा के अनुसार, और उसके वचन से सुसंगत होती हैं। प्रभु के शिष्यों में निवास करने वाला पवित्र आत्मा, उन्हें यही करने में सहायता करता है - प्रभु के वचन को ध्यान करवाता है, इसलिए वे वचन से सुसंगत प्रार्थना माँग सकते हैं, और प्रभु की बातें याद दिलाता है, इसलिए वे शिष्य प्रभु की इच्छा को ध्यान करते हुए उसी इच्छा के अनुसार प्रार्थनाएं माँग सकते हैं। क्योंकि पवित्र आत्मा की सहायता से परमेश्वर द्वारा प्रार्थनाओं के सकारात्मक उत्तर देने की शर्तें पूरी हो जाती हैं, इसीलिए प्रभु के सच्चे शिष्यों की, पवित्र आत्मा की अगुवाई में की गई प्रार्थनाएं सुनी जाती हैं, और पूरी भी की जाती हैं। इसीलिए प्रभु ने शिष्यों को पवित्र आत्मा के आने तक, और उन्हें पवित्र आत्मा की सामर्थ्य और सहायता उपलब्ध होने तक प्रतीक्षा करने के लिए कहा। यदि वे शिष्य अपनी ही समझ और इच्छा के अनुसार सेवकाई पर निकलते, प्रभु के नाम में कुछ अद्भुत कार्य करने का दावा करते और फिर असफल रहते, तो आरम्भ होते ही सेवकाई असफल हो जाती, शिष्यों की हिम्मत टूट जाती, उनमें विश्वास के स्थान पर अविश्वास आ जाता, और सुसमाचार प्रचार का सारा काम अस्त-व्यस्त हो जाता। 


इसी बात, “विश्वास से” और “यीशु के नाम में” में प्रार्थना माँगने को और आगे बढ़ाते हुए हम इस विषय पर कुछ और बातें अगले लेख में सीखेंगे।

   

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


Things Related to Christian Living – 76


The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (18)


The four things given in Acts 2:42 have a very important role in practical Christian living. Because of steadfastly observing those four things, the initial Christian Believers could stand firm in their faith, increased in numbers, and the churches also increased. Today because of observing these four things as a ritual, a formality, many wrong teachings and wrong concepts have come into Christianity. Having seen the Biblically correct form and observance about the first three of the four things, we are now learning about the fourth, i.e., praying, from God’s Word the Bible. There is a common notion amongst the Christians that God has promised to answer all prayers made to Him “in faith” or “in the name of Jesus” in the affirmative. We have seen in this study that this notion is because of taking the Lord’s statements out of their context and giving wrong meanings to them. The Biblical fact is that this promise from God is not for all kinds of prayers made by anyone. Rather, it is for the prayers that are in accordance with God’s will and consistent with His Word, and are made by the true, surrendered, and obedient disciples of the Lord. To understand this thing we are considering the miraculous works done by the Lord and His disciples, written in the Bible. So far, we have seen that even the true, surrendered, obedient disciples of the Lord could do the ministry and miraculous works only under the permission and power given by the Lord. When they tried to do the same on their own, they could not do them. In this context we had seen in the previous article that before His ascension to heaven, the Lord had given the ministry of preaching the gospel starting from Jerusalem, to the end of the world, to His disciples; but they were to do it only after receiving the Holy Spirit and His power. Today we will consider this further.


We have seen that the ministry the Lord had given to the disciples at the time of His ascension, was no different from the ministry they had carried out during the earthly ministry of the Lord Jesus, under His guidance and instructions. At that time, they had with them the power of the Lord. Now, after the Lord having gone, to do the same ministry equally effectively, they needed a similar divine guidance and power. Once the Holy Spirit came to reside in them, His power became available to them, and they could do the same ministry equally effectively. This once again illustrates that those disciples of the Lord could not do anything by merely asking their prayers “in faith” or “in the name of Jesus.” For their prayers to be possible and effective, they also required the power of God with them. But today, because so many wrong teachings and concepts are so prevalent in Christianity, everyone and anyone is asking prayers and then simply adding “in faith” or “in the name of Jesus” to them, and then expecting that God will be constrained to fulfill them just as they have demanded. And when things do not work out according to their expectations, then God, Lord Jesus, Christian faith, the necessity and rationale for prayer, etc. are held responsible for the failure. Nobody cares to see and find out what the true teachings related to using these phrases, as given in the Bible, are. The Church Elders, Pastors, and preachers, instead of giving the correct teachings based on proper understanding of God’s Word, continue to preach and teach the traditional wrong teachings and wrong concepts. They continue to do this instead of sitting at the Lord’s feet with a truly surrendered and obedient heart to learn what the Lord has actually said about answering prayers.


The Lord Jesus taught His disciples, in John chapters 14 to 16, about the Holy Spirit coming to reside in them as their helper, and empowering them. From this section of doing ministry with the help and power of the Holy Spirit, let us consider one verse appropriate to our current study, “But the Helper, the Holy Spirit, whom the Father will send in My name, He will teach you all things, and bring to your remembrance all things that I said to you” (John 14:26). Here we see clearly stated that the Holy Spirit is the helper of the disciples of the Lord; He teaches them the Word of God; He brings the things of the Lord to their remembrance. In the previous articles we have learnt that even for the true disciples of the Lord, only those of their prayers are answered affirmatively by God, which are in the will of God and are consistent with His Word. The Holy Spirit residing in the disciples helps them in doing this - He reminds them of God’s Word, so they can ask prayers consistent with the Word of God; He brings to their remembrance the things of the Lord, so they remember things and can pray according to the Lord's will. Because with the help of the Holy Spirit, the conditions necessary for an affirmative answer to prayers by God are fulfilled, therefore the prayers of the true disciples of the Lord, made under the guidance of the Holy Spirit are also fulfilled. It was for this reason that the Lord asked the disciples to wait till they received the Holy Spirit, and had His power and help available for their ministry. If those disciples had gone out for ministry on their own, had made claims to do some wondrous thing in the name of the Lord, and then failed in doing it, then their ministry would have been a failure from its very beginning, the disciples would have lost their faith and courage, would have become discouraged, and the whole work of the ministry would have become unsettled and ineffective.


In the next article we will carry this further and learn some more things about asking “in faith” or “in the name of Jesus”.

 

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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