बाइबल, पाप और उद्धार – 3
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पाप क्या है? - 3
परमेश्वर के वचन बाइबल में, परमेश्वर द्वारा पाप के विषय सिखाई गई बातों पर ध्यान करते हुए, पिछले दो लेखों में, इस सम्बन्ध में, कि बाइबल के अनुसार पाप क्या है, हम कुछ बहुत महत्वपूर्ण और आधारभूत बातों को देख चुके हैं। हमने देखा है कि:
- बाइबल के अनुसार, पाप की परिभाषा और व्याख्या किसी मनुष्य अथवा मनुष्यों के अनुसार दी गई अथवा कही गई बात नहीं है; वरन इसे स्वयं परमेश्वर ने बताया है। परमेश्वर जो सत्य है, शाश्वत है, सार्वभौमिक है, अपरिवर्तनीय है, युगानुयुग एक सा है (मलाकी 3:6; इब्रानियों 13:8); उसकी कही हुई बातों में भी उसके यही सभी गुण विद्यमान हैं (भजन 89:34; यहेजकेल 12:28)। उसने जो कहा और निर्धारित किया है, अन्ततः प्रत्येक के द्वारा वही माना जाएगा, और उसी के कहे हुए के अनुसार ही सब को और सब कुछ को जाँचा-परखा जाएगा, हर निर्णय लिया जाएगा (यूहन्ना 12:48; 1 कुरिन्थियों 3:11-13)।
- पाप केवल कुछ शारीरिक कार्य करना ही नहीं है, वरन, मूलतः, परमेश्वर के नियमों, उसकी व्यवस्था का उल्लंघन करना है (1 यूहन्ना 3:4)। किसी भी प्रकार का अधर्म पाप है (1 यूहन्ना 5:17), वह चाहे किसी भी बात या परिस्थिति के अन्तर्गत अथवा उद्देश्य से क्यों न किया गया हो।इसीलिए परमेश्वर की दृष्टि में ऐसे सभी प्रकार के विचार, दृष्टिकोण, भावनाएं, मनसा, प्रवृत्ति, कार्य, व्यवहार, इत्यादि पाप हैं जो उसके द्वारा दिए गए धार्मिकता के नियमों और मानकों के अनुसार उचित नहीं हैं, उन मानकों के अनुरूप नहीं हैं।
- पाप में होना एक मानसिक दशा है। हर प्रकार के पाप का आरम्भ मन में होता है, और उचित परिस्थितियों एवँ समय में मन में छुपा वह पाप, शारीरिक क्रियाओं में प्रगट हो जाता है (याकूब 1:14-15; मरकुस 7:20-23)। इसीलिए परमेश्वर की दृष्टि में विचारों में किए गए पाप भी वास्तव में किए गए पापों के समान ही दण्डनीय हैं (मत्ती 5:22, 28)।
जो भी ढिठाई से मन में पाप को रखते हुए, बाहरी रीति से धर्मी बनने का ढोंग रखते हुए परमेश्वर के पास मन के इस दोगलेपन के साथ आते हैं, परमेश्वर उनसे उनके उस दोगलेपन के अनुसार व्यवहार करता है (यहेजकेल 14:3-7)।
परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता के संदर्भ में इसे कुछ और विस्तार से देखते हैं: इस्राएल को दी गई अपनी व्यवस्था के आरम्भ में, परमेश्वर ने सभी के लिए परमेश्वर और अन्य मनुष्यों के साथ सम्बन्धों एवँ व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए अपनी दस आज्ञाएं दीं। ये दस आज्ञाएँ मनुष्य जीवन के प्रत्येक आयाम – परमेश्वर, परिवार और समाज से उसके सम्बन्ध एवँ व्यवहार से सम्बन्ध रखतीं हैं, उन सम्बन्धों के लिए मार्गदर्शन करती हैं, मनुष्यों के व्यवहार को निर्धारित करती हैं। यह एक रोचक तथ्य है कि सँसार के किसी भी देश के संविधान में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इन दस आज्ञाओं की परिधि के बाहर हो। इन दस आज्ञाओं के आरंभिक भाग में परमेश्वर ने मनुष्य के जीवन में अपने स्थान, आदर और मान को किसी भी अन्य को देना, परमेश्वर को कोई या कैसा भी भौतिक स्वरूप देना, वर्जित किया है (निर्गमन 20:1-7)। इसलिए, किसी भी व्यक्ति के द्वारा,- अपने जीवन में परमेश्वर को उसका वह सर्वोच्च आदर एवँ स्थान प्रदान नहीं करना, जिसका वह हकदार है;
- अपने जीवन में परमेश्वर के स्थान पर सँसार की बातों या लोगों को अधिक महत्व देना;- और सच्चे जीवते सृजनहार प्रभु परमेश्वर को, जो आत्मा है (यूहन्ना 4:24), अपने मन के अनुसार बनाए हुए कोई भी भौतिक स्वरूप, मूर्तियों या सृजी गई वस्तुओं के रूप में उपासना करना, उन मन-गढ़न्त नाशमान भौतिक वस्तुओं को ईश्वरीय आदर अथवा महत्व देना, आदि;
सभी परमेश्वर की आज्ञाओं का उल्लंघन हैं, इसलिए पाप है।
इन्हीं दस आज्ञाओं का शेष भाग (निर्गमन 20:8-20), मनुष्य के पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्धों के विषय में है। इन आज्ञाओं का उल्लंघन करना भी, अर्थात पारिवारिक एवँ सामाजिक सम्बन्धों में परमेश्वर के निर्देशों की अवहेलना करना भी पाप है।
प्रभु यीशु मसीह से, उनकी पृथ्वी की सेवकाई के दिनों में यहूदियों के एक धार्मिक अगुवे ने उन्हें परखने के लिए एक प्रश्न किया था, और प्रभु के उत्तर से वह फिर निरुत्तर हो गया। यह वार्तालाप हमारे वर्तमान सन्दर्भ के लिए महत्वपूर्ण है: “और उन में से एक व्यवस्थापक ने परखने के लिये, उस से पूछा। हे गुरु; व्यवस्था में कौन सी आज्ञा बड़ी है? उसने उस से कहा, तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है। और उसी के समान यह दूसरी भी है, कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख। ये ही दो आज्ञाएं सारी व्यवस्था और भविष्यद्वक्ताओं का आधार है” (मत्ती 22:35-40)। प्रभु यीशु के इस उत्तर में मनुष्य के परमेश्वर तथा अन्य मनुष्यों के प्रति व्यवहार और सम्बन्ध का सार है; इसीलिए उन्होंने यह भी कहा कि परमेश्वर की सारी व्यवस्था, इन्हीं दो आज्ञाओं पर आधारित है। इसका स्पष्ट निष्कर्ष है कि मनुष्य के किसी भी विचार या व्यवहार में जहाँ भी इनमें से एक भी आज्ञा का उल्लंघन हुआ, वहीं मनुष्य पाप की दशा में आ गया; परमेश्वर की व्यवस्था का उल्लंघन करने के कारण, पाप का दोषी ठहराया गया है।
परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार, अदन की वाटिका में मनुष्य द्वारा किए गए उस प्रथम पाप के बाद से मनुष्य में पाप करने की प्रवृत्ति ने घर कर लिया, और तब से सँसार का प्रत्येक मनुष्य पाप स्वभाव, तथा पाप करने की प्रवृत्ति के साथ जन्म लेता है “इसलिये जैसा एक मनुष्य के द्वारा पाप जगत में आया, और पाप के द्वारा मृत्यु आई, और इस रीति से मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गई, इसलिये कि सब ने पाप किया” (रोमियों 5:12)। इसका सर्व-विदित और प्रत्यक्ष प्रमाण है, जब हम मानवीय व्यवहार एवँ क्रियाओं का, पाप के प्रति बाइबल के इन उपरोक्त व्यापक दृष्टिकोणों के सन्दर्भ में, आँकलन करते हैं, तो यह प्रगट हो जाता है कि परमेश्वर की दृष्टि में कोई भी मनुष्य पाप से अछूता नहीं है, सभी मनुष्य किसी-न-किसी रीति से पापी होने की परिभाषा में आ जाते हैं। इस कारण अपनी स्वाभाविक दशा में, सभी मनुष्यों ने मन-ध्यान-विचार-मनसा-दृष्टिकोण, व्यवहार या कर्मों के द्वारा पाप किया है; वे चाहे किसी भी धर्म, जाति, देश, आदि के क्यों न हों, इसलिए सभी मनुष्य परमेश्वर की महिमा से रहित और परमेश्वर के साथ संगति रखने के अयोग्य हैं, “इसलिये कि सब ने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं” (रोमियों 3:23) और सृष्टि के आरम्भ में पाप के विषय परमेश्वर द्वारा कहे गए दण्ड, मृत्यु (उत्पत्ति 2:17), के भागी हैं, “क्योंकि पाप की मजदूरी तो मृत्यु है, परन्तु परमेश्वर का वरदान हमारे प्रभु मसीह यीशु में अनन्त जीवन है” (रोमियों 6:23)।
पाप की इस अपरिहार्य प्रतीत होने वाली समस्या के ईश्वरीय समाधान, “... परन्तु परमेश्वर का वरदान हमारे प्रभु मसीह यीशु में अनन्त जीवन है” (रोमियों 6:23), के बारे में हम अगले लेख में देखना आरम्भ करेंगे।
यदि आप ने अभी भी अपने पापों के लिए प्रभु यीशु से क्षमा नहीं मांगी है, तो अभी आपके पास अवसर है। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा।
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The Bible, Sin, and Salvation – 3
What Is Sin? - 3
In the last two articles, while considering what God has taught about sin in His Word, the Bible, we have looked at some very important and fundamental things about what sin is according to the Bible. We have seen that:
- According to the Bible, sin has been defined by God Himself; not what it may have been defined and explained by any person or persons. God is true, eternal, omnipotent, unchanging, the same always and everywhere (Malachi 3:6; Hebrews 13:8); and all of these qualities of Him are also present in His Word, i.e., in whatever He says and does (Psalm 89:34; Ezekiel 12:28). Whatever He has said and determined, ultimately, only that will be followed and obeyed by all, and eventually everything will be judged, every decision will be made according to His will and what He has said (John 12:48; 1 Corinthians 3:11-13).
- Sin is not merely doing something physically, but, essentially, it is to violate God's laws (1 John 3:4). Iniquity or unrighteousness of any kind is sin (1 John 5:17), no matter what the circumstances, or the purpose behind committing it.- That is why all such thoughts, attitudes, feelings, intentions, tendencies, actions, behaviors, etc., which are not according to the rules and standards of righteousness given by Him, and do not conform to those standards, are sin in the eyes of God.
- Being in sin is a state of the mind and heart. Every type of sin begins in the mind, and the sin hidden in the mind manifests itself in physical activities in convenient circumstances and time (James 1:14–15; Mark 7:20–23). That is why in the eyes of God, sins committed in a person’s thoughts are as punishable, as sins actually committed physically (Matthew 5:22, 28).
Those who come to God with hypocrisy of heart, showing themselves to be righteous outwardly, while hiding sin in their heart, God treats them according to their hypocrisy (Ezekiel 14:3-7).
Let's look at this in some more detail in the context of disobedience towards God: At the beginning of his Law given to Israel, God gave his Ten Commandments for everyone, to govern man’s relationships and behavior with God and with other human beings. These Ten Commandments deal with each and every aspect of human life – man’s relationship and behavior with God, with family, and with society. They serve as a guide for maintaining those relationships, and for determining the mutual behavior of human beings. It is an interesting fact that there is nothing in the constitution of any country in the world that is outside the purview of these Ten Commandments. In the opening part of these Ten Commandments, God forbids man to give His, i.e., God’s status, His honor, and His dignity to anyone else; or to make any kind of physical representation of God (Exodus 20:1–7). Therefore, for any person,
- not to give God the highest respect and place He deserves in one’s life;
- giving more importance to the things or people of the world than to God in one’s life; and,- according divine reverence to, and worshiping the true and living Creator God, the Lord who is Spirit (John 4:24), in the form of any man-made physical form represented in perishable material things, or as idols made according to man’s imagination, or considering Him to have the form of any creature created by God, etc.
These, and all such things are all violations of God's commandments, and therefore, are sin.
The remainder of these Ten Commandments (Exodus 20:8-20) deal with man's family and social relationships. To disobey these commandments is also a sin, since that is disobeying God's instructions for family and social relationships and responsibilities.
The Lord Jesus Christ, during his earthly ministry, was asked a question by a religious leader of the Jews who wanted to test him, and the Lord’s answer put him at a loss for words. This conversation is important to our current context: “Then one of them, a lawyer, asked Him a question, testing Him, and saying, "Teacher, which is the great commandment in the law?" Jesus said to him, "'You shall love the Lord your God with all your heart, with all your soul, and with all your mind.' This is the first and great commandment. And the second is like it: 'You shall love your neighbor as yourself.' On these two commandments hang all the Law and the Prophets" (Matthew 22:35-40). This answer from the Lord Jesus summarizes man's expected behavior and relationship towards God and other human beings. That is why He also said that the whole Law of God is based on these two commandments. The clearly evident conclusion is that wherever any one of these commands is violated in any thought or behavior of man, there man has come to be in the state of sin; being guilty of having transgressed God’s Law and committed sin.
According to God's Word the Bible, since that first sin committed by man in the Garden of Eden, the tendency to sin has taken roots in man. Since then onwards, every human being in the world is born with a sin nature, with a tendency to sin, "Therefore, just as through one man sin entered the world, and death through sin, and thus death spread to all men, because all sinned" (Romans 5:12). This is very well seen and evidenced by the fact that, when we assess human behavior and actions in the context of the above-mentioned broad-ranging Biblical views of sin, it becomes apparent that in God's eyes no man is free from sin, all human beings fall into the definition of being a sinner in some way or the other. Therefore, in their natural state, all human beings have sinned in mind-attitude-thought-tendency-perspective, behavior or actions. No matter what their religion, race, country, etc. may be, all human beings fall short of the glory of God and are unworthy of fellowship with God, “for all have sinned and fall short of the glory of God” (Romans 3:23) And are deserving of God's punishment of sin, death, as He had said at the beginning of their creation (Genesis 2:17), "For the wages of sin is death, but the gift of God is eternal life in Christ Jesus our Lord" (Romans 6:23).
The divine solution to this seemingly insurmountable problem of sin, "...but the gift of God is eternal life in Christ Jesus our Lord" (Romans 6:23), we will begin to look at in the next article.
If you still haven't asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, you still have a chance right now. Voluntarily, with a sincere and wholly submissive heart, with sincere repentance of your sins, please say a short prayer, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, and have committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." This sincere decision to allow the Lord to change your heart and mind, taken with an honest heart will make this life of yours and the life of the hereafter into heavenly life.