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शनिवार, 5 अक्टूबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 211

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 56


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 3 - प्रभु-भोज (31) 

भाग लेने का निष्कर्ष (2) 

हम 1 कुरिन्थियों 10:16-22 से मसीही विश्वासी द्वारा प्रभु के मेज़ में भाग लेने से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बातों के बारे में देखते आ रहे हैं। ये बातें भाग लेने वाले के जीवन में अनिवार्य हैं तथा स्वतः ही लागू हो जाती हैं। पिछले लेख में हमने पद 21 से देखा था कि जो प्रभु की मेज़ में भाग लेते हैं, उनके लिए दुष्टात्माओं की मेज़ में भाग लेना; अर्थात, संसार और शैतानी बातों के साथ समझौते का जीवन जीना वर्जित है। पद 22 हमें बताता है कि यदि परमेश्वर के लोग उसके अनाज्ञाकारी बने रहते हैं और संसार तथा उसकी बातों, शैतानी ताकतों के साथ जुड़े रहते हैं, तो यह प्रभु को रिस दिलाता है, और फिर वह इसी के अनुसार कार्य करता है। परमेश्वर द्वारा रिस के अन्तर्गत काम करने को समझने के लिए हमने देखा है कि परमेश्वर उनके प्रति जो उसके लोग हैं उनपर अपने पूरे हक के साथ उन्हें अपना बनाकर रखने वाला रहता है; उन्हें अपने हाथों से कभी नहीं जाने देता है। वह उन्हें त्यागता नहीं है, उनके दुराचारी और परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता के जीवन के कारण वे अपना उद्धार तो नहीं खोते हैं, किन्तु उन्हें अवश्य ही परमेश्वर की ताड़ना को झेलना पड़ता है, और यदि आवश्यक होता है तो यह ताड़ना बहुत गंभीर भी हो सकती है; लेकिन परमेश्वर उन्हें कभी त्यागता नहीं है, अपने पास से कभी निकाल नहीं देता है।

 

यह बात ध्यान में रखते हुए, अब हम पद 22 को आगे देख सकते हैं, और यह समझ सकते हैं कि परमेश्वर के रिस लेने का क्या अर्थ है। हमारी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि रिस लेकर काम करने को नकारात्मक रीति से देखें, क्योंकि हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवनों में इस भावना को ऐसे ही कार्यान्वित होते हुए देखा जाता है। किन्तु मूल यूनानी भाषा में जो शब्द प्रयोग किया गया है उसका यह अर्थ नहीं होता है। यूनानी भाषा के जिस शब्द को हिन्दी में ‘रिस दिलाने’ के लिए प्रयोग किया गया है, उसका शब्दार्थ होता है “उकसाया जाना, या प्रतिद्वंद्वी होकर काम करना”। इसलिए प्रभु द्वारा किसी के प्रति रिस में होकर कुछ करने का तात्पर्य है प्रभु को उकसाना या उत्तेजित करना कि वह अपने हक को बनाए रखने के लिए कार्य करे। प्रभु अपने विश्वासियों से असीम प्रेम करता है; इतना कि उसने उनके उद्धार तथा उसके साथ फिर से मेल-मिलाप में आ जाने के लिए अपने एकलौते पुत्र को बलिदान कर दिया (यूहन्ना 3:16; रोमियों 5:1, 11), वह उनके अन्दर पवित्र आत्मा के द्वारा निवास करता है (1 कुरिन्थियों 3:16; 6:19), और अपने स्‍वर्गदूतों को उनकी सेवा-टहल करने वाली आत्माएं बना दिया है (इब्रानियों 1:14)। इसके प्रत्युत्तर में वह चाहता है कि उसके लोग केवल उसी से प्रेम करें, केवल उसी के बनकर रहें (2 कुरिन्थियों 5:15); अपने प्रेम और भावनाओं को किसी और के प्रति न रखें, उसे हल्के में न लें, औरों में से किसी एक के समान उससे विभाजित प्रेम न रखें।


यह और भी स्पष्ट तथा समझने में सरल हो जाता है जब हम ध्यान करते हैं कि इस सृष्टि में केवल दो ही “शक्तियाँ” हैं; पहली है परमेश्वर, जो सृष्टिकर्ता और सृष्टि का स्वामी है और उसकी बातें तथा उसके स्वर्गदूत; और दूसरी है शैतान, जो विद्रोही स्वर्गदूत है तथा शैतान के अनुयायी। शैतान और उसके अनुयायी अब परमेश्वर के बैरी और विरोधी हैं, अपने अनन्त विनाश के लिए नरक में डाले जाने के समय की प्रतीक्षा में हैं। इनके अतिरिक्त और कोई शक्ति अथवा शक्ति का स्त्रोत नहीं है। इसलिए प्रत्येक जन या तो परमेश्वर के साथ जुड़ा है, उससे संबंधित है; अन्यथा स्वतः ही शैतान के साथ है और उसका अनुयायी है। इसलिए कोई भी, विशेषकर परमेश्वर की संतान, अर्थात मसीही विश्वासी, यदि अपने प्रेम और भावनाओं को परमेश्वर या उसकी बातों के अतिरिक्त किसी भी अन्य के साथ बाँटना चाहता है, तो वह केवल शैतान और उसके अनुयायियों और उनकी बातों के साथ ही कर सकता है। और यह स्वाभाविक है कि यह परमेश्वर को कदापि स्वीकार नहीं होगा, उसे घिनौना लगेगा, और वह रिस के साथ व्यवहार करेगा। यदि मसीही विश्वासी परमेश्वर की चेतावनियों और डाँटे जाने से नहीं सुधरता है, अपने व्यवहार को ठीक नहीं करता है, परमेश्वर की ओर नहीं लौटता है, तो फिर परमेश्वर को उपयुक्त कार्यवाही करनी पड़ेगी।

 

इसे एक पारिवारिक स्थिति के समान समझिए, जहाँ एक परिवार का एक बच्चा माता-पिता के प्रति अनाज्ञाकारी रहता है, अपने व्यवहार को नहीं सुधारता है, उसे दिए गए निर्देशों का पालन नहीं करता है, और अपने व्यवहार के द्वारा परिवार के नाम को खराब कर रहा है। यदि यह बच्चा माता-पिता की मौखिक चेतावनियों और डाँट को नहीं सुनता और मानता है, तो उसके प्रति अपने प्रेम में होकर, और उसे भविष्य में किसी बड़ी हानि या बुराई से बचाने के लिए, उन्हें दृढ़ता के साथ कार्यवाही करनी पड़ती है, उसकी ताड़ना भी करनी पड़ती है। उनकी ताड़ना उसके प्रति उनके प्रेम और देख-भाल का प्रमाण है, उसपर उनके हक का तथा उस हक को कार्यान्वित करने का प्रमाण है, और उस बच्चे को वापस परिवार की सुरक्षा तथा देख-रेख में ले लेने के लिए है। परमेश्वर ने यही बात इब्रानियों 12:5-11 में भी कही है। इसलिए प्रभु का रिस के अन्तर्गत कार्य करना उस सांसारिक रीति से कार्य करना नहीं है, जैसा कि हम सामान्यतः समझते हैं। वरन, यह उसके प्रेम और देखभाल का चिह्न है, अपने लोगों को शैतान की युक्तियों से सुरक्षित रखने के लिए की गई कार्यवाही है। अब हम प्रभु को “रिस दिलाने” को समझ सकते हैं कि यह परमेश्वर द्वारा अपने असीम प्रेम के अमूल्य पात्र की देख-भाल और सुरक्षा के लिए उकसाए जाकर उसे लौटा कर अपने पास ले आने के लिए किया जाने वाला कार्य है। अपने बच्चे को अपने पास सुरक्षित रखने के लिए परमेश्वर को जो कुछ भी करना होगा, वह करेगा (1 कुरिन्थियों 5:5), चाहे वर्तमान में उसकी कार्यवाही कठोर और दुखदायी ही क्यों न हो।

 

पौलुस एक आलंकारिक प्रश्न “क्या हम उस से शक्तिमान हैं?” के साथ निष्कर्ष को समाप्त करता है। कहने का अभिप्राय है कि क्योंकि कोई भी सृजा हुआ सृजनहार परमेश्वर से बढ़कर सामर्थी नहीं हो सकता है, इसलिए सृजे हुए को सृजनहार प्रभु परमेश्वर की अधीनता और आज्ञाकारिता में बने रहना है; बजाए इसके कि वह अपने ही विचार और धारणाएं बनाकर चले और उनके साथ अपने आप को परमेश्वर पर थोपे। दूसरे शब्दों में, पौलुस कह रहा था कि परमेश्वर की अधीनता और आज्ञाकारिता में बने रहने में ही हमारी भलाई है; न कि अपनी ही इच्छा और समझ के अनुसार कुछ करने और फिर उसके दुष्परिणाम उठाने के द्वारा।

 

इसलिए, प्रभु भोज में भाग लेने का निष्कर्ष है कि प्रभु भोज में भाग लेने वाले पर यह बाध्य है कि वह संसार और सांसारिकता की बातों से अलग होकर रहे, अन्यथा परमेश्वर के अनाज्ञाकारी होने के लिए परमेश्वर की ताड़ना सहने के लिए तैयार रहे।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Things Related to Christian Living – 56


The Four Pillars of Christian Living - 3 - Breaking of Bread (31)

The Conclusion of Participation (2)

We have been considering from 1 Corinthians 10:16-22, some important things related to the participation in the Lord’s Table by a Christian Believer; things that automatically become applicable and mandatory for the Believer, through his participation in the Holy Communion. In the previous article we had seen from verse 21, that for those who participate in the Lord’s Table, it is forbidden to partake in the table of the demons, i.e., to live a life of association or compromise with the world and satanic forces. Verse 22 tells us that if God’s people persist in disobeying Him and associate with the world and its ways, with satanic forces, it provokes the Lord to jealousy, and He then acts accordingly. To understand God’s acting in jealousy, we had seen how God is very possessive of those who are His; and never lets them go from His hands. He does not forsake them, the Believers never lose their salvation because of their wayward living and disobedience; but for their waywardness, the people of God are chastised by God, even severely if it so required; but God never discards them, casts them away from Himself.


With this in mind, we can now look at verse 22, and what God’s being jealous means. Our normal tendency is to think of jealousy as a negative trait, as something wrong, since that is how we see this feeling in our day-to-day lives. But that is not how this word has been used for God in the original Greek language here. The word in the Greek language, that has been translated as jealousy in English literally means “to stimulate alongside, i.e., excite to rivalry.” Therefore, to provoke the Lord to jealousy implies to stimulate Him or provoke Him to act out of His possessiveness. The Lord loves His Believers, His children, immeasurably; so much that He gave His only begotten Son to redeem them and to have them reconciled with Him (John 3:16; Romans 5:1, 11), He lives within them as the Holy Spirit (1 Corinthians 3:16; 6:19), and has made His angels their ministering spirits (Hebrews 1:14). In return, He expects them to love Him, and Him alone (2 Corinthians 5:15); to not divide their love and affections with others, and treat Him casually as one of those whom His people love.


This becomes clearer and justifiable when we ponder and realize that there are only two ‘powers’ in this universe; one is God, the creator and owner of this universe and His angels, and the other is Satan, the rebellious angel, and his followers. Satan and his followers are all now the rivals and enemies of God, biding their time till they are finally destroyed and cast into everlasting hell in God’s time. There is no other power or source of any power, other than these two, and everyone is either associated with God, or else is automatically associated with God’s enemy and rival, Satan i.e., every person, can either be associated and joined with God, or with Satan and be his follower. So, if anyone, particularly a child of God, i.e., a Christian Believer, desires to share his love and affection, or associate with anyone other than God or anything that is not from God, then he can only be sharing or associating it, with Satan or his minions and their things. This quite naturally will not only be unacceptable, but even abhorrent to God; and He will act accordingly. If the Christian Believer does not respond to God’s cautions and admonitions, does not mend his ways and turn back to God whole-heartedly, then God will have to act accordingly.

 

Think of it as a family-situation where a child is being disobedient to parents, is not mending his ways, persists in living contrary to the instructions given to him and is dishonoring the name of the family because of his life and behavior. If such a child does not listen to verbal cautions and admonitions, from the parents, then out of their love for the child and to safeguard him from future severe harm and harsh consequences, they have to act firmly, and resort to chastising him. Their chastisement is an act of love, is because of their possessiveness for him, and to draw the child back into the safety and care of the family. God has said the same in Hebrews 12:5-11. So, the Lord’s jealousy is not jealousy in the worldly sense, but is an act of love and care, to keep His people safe from the wiles of the devil. Now we can understand that the term “provoke to jealousy” implies, to be stimulated to act for the protection and care of someone who is God’s precious possession, and to do whatever needs to be done to bring God’s child back into God’s fold, even if it is hurting and painful for now, but is beneficial from the eternal perspective (1 Corinthians 5:5).


Paul then concludes with a rhetorical question, “Are we stronger than He?” The implication is that since no creature can ever be stronger than the Creator God, therefore, the creature has to live in submission and obedience to the Creator Lord God; instead of trying to impose himself upon God and enforce his own thoughts and ways upon God. It is an indirect way of saying that we will do well to stay obedient and submissive to God, which is the best for us, instead of doing things according to our own fancy and suffer harmful consequences for doing so.


Therefore, the conclusion of participating in the Holy Communion for the participant is that because of his participation, it is binding upon him to stay away from the world and its ways; else be ready to suffer God’s chastisement for being disobedient to God.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


 

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