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मंगलवार, 29 अक्टूबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 235

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 80


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (22) 


हम व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों का अध्ययन कर रहे हैं, और वर्तमान में प्रेरितों 2:42 में दी गई चार में से चौथी बात, प्रार्थना करने पर, परमेश्वर के वचन बाइबल के उदाहरणों और हवालों के आधार पर विचार कर रहे हैं। पिछले लेखों में प्रार्थना क्या है, मसीही विश्वासियों को क्यों परमेश्वर के साथ निरन्तर प्रार्थना में लगे रहने है, परमेश्वर किन प्रार्थनाओं का सकारात्मक उत्तर देता है, “विश्वास में” और “यीशु के नाम में” प्रार्थना माँगने का बाइबल के अनुसार अर्थ और उपयोग क्या है, आदि बातों पर विचार करने के बाद, पिछले लेख से हमने मसीहियों में व्याप्त एक अन्य धारणा, ‘प्रभु की प्रार्थना’ के बारे में विचार करना आरम्भ किया था। पिछले लेख में हमने देखा था कि प्रभु यीशु ने यह प्रार्थना पहली बार अपने शिष्यों को अपने “पहाड़ी उपदेश” उपदेश में, प्रार्थना से सम्बन्धित शिक्षाओं (मत्ती 6:5-15) के एक भाग (पद 9-13) के रूप में दी थी; और दूसरी बार इसका उल्लेख लूका 11:1-4 में तब आता है जब शिष्यों ने प्रभु से निवेदन किया कि उन्हें प्रार्थना करना सिखाएं। इन दो बार के अतिरिक्त, पूरे नए नियम में इस ‘प्रभु की प्रार्थना’ का न तो कहीं उल्लेख है, और न ही कहीं इसके किसी तरह से उपयोग किए जाने, या इसके बारे में कोई शिक्षा दिए जाने के बारे में कुछ लिखा है। वर्तमान मसीहियों में इस ‘प्रभु की प्रार्थना’ का जो स्वरूप और प्रयोग देखा जाता है, वह बाइबल में कहीं नहीं दिया गया है, आरम्भिक मसीही विश्वासियों और कलीसियाओं में उसका वैसा कोई निर्वाह नहीं होता था; और यह सब बात में मनुष्यों द्वारा वचन में जोड़ी गई बातें हैं।


अपने पहाड़ी उपदेश में प्रभु अपने शिष्यों को उस समय के धर्म के अगुवों द्वारा सिखाई गई अनेकों गलत धारणाओं और गलत व्याख्याओं का सही स्वरूप बता और सिखा रहा था। हम प्रभु द्वारा बारम्बार कही गई “तुम सुन चुके हो” या इसके समान कोई बात, और फिर “लेकिन मैं तुम से कहता हूँ” या इसके समान कोई बात को पाते हैं। उस समय के यहूदी समाज में प्रचलित धार्मिक व्यवहार और शिक्षाओं के स्वरूप और अर्थ को बदलने के साथ ही प्रभु ने यह भी कहा कि वह वचन को तोड़ने नहीं, उसे पूरा करने के लिए आया है (मत्ती 5:17-18)। तात्पर्य यह है कि पहाड़ी उपदेश में प्रभु अपने शिष्यों को वचन की गलत शिक्षाओं के स्थान पर वास्तविक और सही शिक्षाओं को बता और सिखा रहा था; और इन शिक्षाओं का एक भाग प्रार्थना से सम्बन्धित शिक्षाएं भी थीं, जिन शिक्षाओं में प्रभु ने पहली बार शिष्यों को प्रार्थना का वह स्वरूप दिया, जिसे हम आज ‘प्रभु की प्रार्थना’ कहते हैं। इसलिए यदि उसे वचन में दिए गए उसके वास्तविक स्वरूप में देखा जाए, तो यह प्रभु की कोई “प्रार्थना” नहीं थी, बल्कि सही रीति से परमेश्वर से प्रार्थना करने से सम्बन्धित एक शिक्षा थी। बाद में जब लूका 11:1-4 में प्रभु के शिष्यों ने प्रभु से निवेदन किया कि वह उन्हें प्रार्थना करना सिखाए, तो फिर से प्रभु ने उसी शिक्षा को, जिसे वह मत्ती 6:9-13 में दे चुका था, उनके सामने दोहराया। जैसा हमने पिछले लेख में ध्यान और विचार किया है, सम्पूर्ण वचन में इन दो स्थानों को छोड़, और कहीं पर भी, किसी भी सन्दर्भ में, यह “प्रार्थना” न तो प्रभु द्वारा और न ही शिष्यों द्वारा फिर कभी कही गई, या किसी भी उद्देश्य से प्रयोग की गई, और न ही इससे सम्बन्धित कोई शिक्षा दी गई। यदि यह वास्तव में प्रभु द्वारा सिखाई गई “प्रार्थना” होती, तो स्वाभाविक है कि इस “प्रार्थना” का बहुत महत्व होता; इसे शिष्यों द्वारा उपयोग किया जाता, औरों को सिखाया जाता, इसकी व्याख्या और महत्व को इसके सही उपयोग और आशीषों को वचन में समझाया जाता। हम पहले के एक लेख में, यूहन्ना 15 के बारे में देख चुके हैं, जहाँ प्रभु ने शिष्यों को सिखाया है कि परमेश्वर से प्रार्थनाओं के सकारात्मक उत्तर पाने के लिए उन्हें क्या करना है। यद्यपि इसके लिए यह एक बहुत उपयुक्त समय तथा सन्दर्भ था, लेकिन प्रभु ने यहाँ पर भी इस ‘प्रभु की प्रार्थना” के बारे में कुछ नहीं कहा, उन्हें इस “प्रार्थना” के बारे में न तो याद दिलाया और न ही कुछ और सिखाया। पत्रियों में भी प्रभु के लोगों के द्वारा प्रार्थना के विषय, आवश्यकता, महत्व, आदि के बारे में कई बातें लिखी गई हैं, लेकिन वहाँ पर भी किसी भी सन्दर्भ में इस “प्रार्थना” का कोई उल्लेख, या उससे मिलने वाली किसी भी शिक्षा के बारे में कुछ नहीं कहा गया है।

 

इन बातों पर विचार करने से जो बात सामने आती है वह यही है कि यह तथाकथित ‘प्रभु की प्रार्थना’ वास्तव में कोई प्रार्थना नहीं है, वरन प्रार्थना करने के बारे में प्रभु द्वारा दी गई एक शिक्षा है, जिस से सम्बन्धित अन्य बातें हम मत्ती 6:5-15 में पाते हैं। साथ ही मत्ती 6:9-13 का खण्ड, जिसे ‘प्रभु की प्रार्थना’ कहा और माना जाता है, तथा उसी तरह से सिखाया और पालन किया जाता है, वास्तव में प्रार्थना की एक रूपरेखा, एक ढाँचा है, जिसके आधार पर प्रभु के शिष्यों को अपनी प्रार्थनाओं को ढालना और बनाना है; तथा औरों को प्रार्थना करना सिखाना है। प्रभु का उद्देश्य अपने शिष्यों को ऐसे प्रार्थना करना सिखाना था जो प्रभावी हों, कार्यकारी हों; और हम पिछले लेखों में देख चुके हैं कि परमेश्वर प्रभु के सच्चे शिष्यों की उन्हीं प्रार्थनाओं का सकारात्मक उत्तर देता है जो परमेश्वर की इच्छा के अनुसार और परमेश्वर के वचन से सुसंगत हों। प्रभु द्वारा दी गई प्रार्थना की इस रूपरेखा के आधार पर माँगी गई प्रार्थनाएं नि:सन्देह परमेश्वर को स्वीकार्य प्रार्थनाएं होंगी, सकारात्मक उत्तर मिलने वाली प्रार्थनाएं होंगी, और लोगों को मसीही विश्वास में स्थिर और दृढ़ बनाएंगी, आत्मिक जीवन में उन्नत करेंगी। लेकिन प्रभु द्वारा दिए गए इस कारगर उपाय को शैतान ने बिगाड़ कर लोगों के मन में यह गलत धारणा बैठा दी है कि उनके द्वारा इस रूपरेखा, इस ढाँचे को “प्रार्थना” कहकर, बिना समझे यूँ ही बोलते, दोहराते रहने के द्वारा, उसे एक “मन्त्र” के समान प्रयोग करने के द्वारा, परमेश्वर उन से प्रसन्न हो जाएगा, उन्हें परमेश्वर की आशीषें प्राप्त हो जाएंगी, उनकी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। और क्योंकि ऐसा नहीं होता है, इसलिए लोग प्रार्थना करने से उदासीन, परमेश्वर से अप्रसन्न, और सच्चे मसीही विश्वासी बनने से कतराते हैं। और इससे शैतान का लोगों को प्रभु और उद्धार से दूर रखने का उद्देश्य पूरा हो जाता है।

 

अगले लेख में हम इस तथाकथित “प्रभु की प्रार्थना” की रूपरेखा को, प्रार्थना करने के ढाँचे को समझने का प्रयास करेंगे।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


Things Related to Christian Living – 80


The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (22)

    We are studying things related to practical Christian living, and presently are considering the fourth of the four things given in Acts 2:42, prayer, on the basis of the examples and references given in the Bible. In the previous articles, having seen what prayer is, why Christian Believers should continually stay connected to God in prayer, what kind of prayers does God answer in the affirmative, the meaning and utilization of asking “in faith” and “in the name of Jesus,” etc., from the previous article we have begun to consider another wrong concept about the ‘Lord’s Prayer.’ In the previous article we had seen that the Lord Jesus has spoken of this “prayer” (Matthew 6:9-13) for the first time to His disciples as a part of His teachings related to prayer (Matthew 6:5-15) in the Sermon on the Mount; the second time this “prayer” is given is in Luke 11:1-4, when the disciples had requested the Lord to teach them to pray. Other than these two instances, in the whole of the New Testament there is no mention of this ‘Lord’s Prayer,’ nor of using it in any manner, nor of giving any teachings about it at any place. The form and utilization of this “prayer” as practiced by the current Christians, has not been given in the Bible. It was never practiced the way it is being practiced nowadays, amongst the initial Christian Believers and the initial churches. All of these are man-made additions to the Word.


In His Sermon on the Mount, the Lord is telling and teaching His disciples the correct form of the incorrect teachings given to them by the then religious leaders. We find the Lord repeatedly using “you have heard” or something to that effect, and then “but I tell you,” or something to that effect. While changing the form and meaning of the prevalent religious practices of the then Jewish society, the Lord also says that He has not come to break the Law but to fulfill it (Matthew 5:17-18). The implication is that in the Sermon on the Mount, the Lord is telling and teaching His disciples the actual and correct teachings; and a part of these teachings were the teachings related to prayer, and the form of prayer given to the disciples by the Lord, which today is known as the ‘Lord’s Prayer.’ Therefore, if it is seen in the actual form as it has been given in the Word, then it is not prayer said by the Lord, but a teaching or instruction on correctly or appropriately praying to God. Later, when in Luke 11:1-4 the disciples requested the Lord to reach them to pray, then the Lord repeated the same teaching that He had given to them in Matthew 6:9-13 once again. As we have noted and considered in the previous article, other than these two instances, this “prayer” has not been stated anywhere else in the whole of the Word, neither by the Lord, nor by any of His disciples, in any context; nor has it ever been used for any purpose, nor has any teaching been given about it at any time. If it really was a “prayer” taught by the Lord, then quite naturally, it would be something of great significance; the disciples would have used it, would have taught it to others, its exposition and importance and its appropriate use and the consequent blessings would have been taught in God’s Word. We have seen in an earlier article about John chapter 15, where the Lord has taught the disciples what they need to do to receive positive answers from God for their prayers. Though this would have been a very appropriate time and context for this, but here too, the Lord did not say anything related to the ‘Lord’s Prayer’, did not remind the disciples about the “prayer” nor did he teach them anything more about it. Even in the letters, there are many things written by the Lord’s people related to prayer, its necessity, importance etc.; but there too, this “prayer” has never been mentioned in any context, nor has anything been said about any teaching related to it.


On considering these things, the thing that becomes apparent is that this so-called ‘Lord’s Prayer’ in reality, is not a prayer, but is a teaching, an instruction given by the Lord on prayer, and we find the other related instructions in the other verses of Matthew 6:5-15. The section of Matthew 6:9-13, which is popularly known, taught and followed as being the ‘Lord’s Prayer’ is actually an outline, a framework, based on which the disciples of the Lord should mold and construct their prayers, as well as teach others about how to pray. The Lord’s purpose was to teach His disciples how to pray effectively and functionally; and we have seen in the previous articles that even for the true disciples of the Lord, God answers in the affirmative only those prayers that are in His will and consistent with His Word. Prayers said according to this outline or framework given by the Lord will undoubtedly be those that are acceptable to God, and answered affirmatively by Him. This in turn, will make these people firm and steady in their Christian faith, and edify them in their spiritual lives. But Satan has corrupted this Lord given method of effective prayer, and has established this false concept in their hearts that by their ritually and perfunctorily repeating over and over again this outline or framework for effective prayers as a “prayer,” by using it as a chant or a “mantra” God will be pleased with them, and they will receive God’s blessings, their problems will be solved. And since this does not happen, therefore people become disinterested in praying, unhappy with God, and shy away from becoming true Christian Believers. And this serves Satan's purpose of keeping people away from the Lord and salvation very well.


In the next article we will try to understand the outline or framework of this so-called ‘Lord’s Prayer.’


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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