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गुरुवार, 29 अगस्त 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 174

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 19


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 2 - संगति (1) 



मसीही विश्वासी के परमेश्वर के वचन के द्वारा बढ़ोतरी के हमारे इस अध्ययन में, वर्तमान में, हम व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बाइबल की शिक्षाओं का अध्ययन कर रहे हैं। हमने देखा है कि प्रेरितों 2 अध्याय में सात शिक्षाएं दी गई हैं, जिनमें से चार प्रेरितों 2:42 में दी गई है। आरम्भिक मसीही विश्वासी, इन चारों शिक्षाओं का लौलीन होकर पालन करते थे, और इन शिक्षाओं को “मसीही जीवन के स्तम्भ” भी कहा जाता है। इन चार में से हमने पहली, अर्थात, परमेश्वर के वचन बाइबल का यत्न से और लौलीन होकर अध्ययन करने को देखा है। आज से हम दूसरे स्तम्भ अर्थात, संगति रखने के बारे में देखना आरम्भ करेंगे।


सृष्टि के आरंभ से ही, संगति रखना मनुष्य के जीवन का एक महत्वपूर्ण भाग रहा है। यह संगति दो तरह की होनी है, पहली परमेश्वर के साथ संगति, जिसके लिए परमेश्वर अदन की वाटिका में मनुष्य के पास आया करता था; और दूसरी मनुष्य की मनुष्य के साथ संगति। आदम की रचना करने, और उसे समस्त पृथ्वी तथा प्रत्येक प्राणी पर अधिकार देने (उत्पत्ति 1:26), उसके लिए एक विशेष वाटिका लगाकर उसको उस में रखने, और उसे उसकी देखभाल की जिम्मेदारी देने (उत्पत्ति 2:8, 15) के बाद, परमेश्वर ने कहा “फिर यहोवा परमेश्वर ने कहा, आदम का अकेला रहना अच्छा नहीं; मैं उसके लिये एक ऐसा सहायक बनाऊंगा जो उस से मेल खाए।” (उत्पत्ति 2:18)। यहां पर हम देखते हैं कि आरम्भ से ही परमेश्वर का उद्देश्य रहा है कि न केवल मनुष्य उसके साथ संगति रखे, वरन उसकी संगति किसी ऐसे के साथ भी हो जो उसके समान है। हव्वा की सृष्टि से पहले परमेश्वर आदम के सामने सारे जीवों को लेकर के आया, और आदम ने उनको उनके नाम दिए (उत्पत्ति 2:19)। लेकिन परमेश्वर द्वारा सारे जीवों को आदम के पास लाने के पीछे एक उद्देश्य और भी था; वह उद्देश्य था कि आदम को भी जता दे, तथा अपने वचन में भी हमेशा के लिए लिखवा दे कि परमेश्वर के द्वारा रचे गए सभी प्राणियों में आदम के तुल्य और उसका सहायक या साथी होने के योग्य और कोई भी नहीं है (उत्पत्ति 2:20)। इसीलिए हम देखते हैं कि सामान्य स्वभाव से मानव जाति एक संगति में या समूह में रहने की प्रवृत्ति रखती है। मनुष्य विभिन्न प्रकार के पशुओं को पालतू बनाकर या उनसे अन्य लाभ पाने के लिए उन्हें अपने साथ रख सकता है, और उनसे बहुत निकटता का व्यवहार भी कर सकता है। किन्तु परिवार केवल अन्य मनुष्यों के साथ मिलकर रहने और संगति रखने से ही बनते हैं, ना कि पशुओं के साथ मिलकर रहने या संगति से।


परमेश्वर का वचन हमें दिखता है कि संगति में या सहभागिता में रहना क्यों अनिवार्य है, और कैसे परमेश्वर ने अपने वचन में इसके बारे में विभिन्न निर्देश और उदाहरण भी दिए हैं। हम “दस आज्ञाओं” (निर्गमन 20:1-17) में, जो परमेश्वर की व्यवस्था का निचोड़ या उनका केंद्रीय स्तम्भ हैं, देखते हैं कि पहली चार आज्ञाएँ मनुष्य और परमेश्वर के सम्बन्ध के बारे में हैं, और बताती हैं कि मनुष्य किस आधार पर परमेश्वर से सम्बन्ध बनाये रख सकता है। और अगली छः आज्ञाएँ, मनुष्य के मनुष्य के साथ एक मनोहर और सामंजस्य पूर्ण सम्बन्ध बनाए रखने के बारे में हैं; यह सम्बन्ध पारिवारिक, या समाज अथवा पड़ोसियों के साथ हो सकता है। राजा सुलैमान ने संगति के लाभ के बारे में लिखा कि किस प्रकार एक व्यक्ति दूसरे को उभार सकता है उसको बेहतर कर सकता है “जैसे लोहा लोहे को चमका देता है, वैसे ही मनुष्य का मुख अपने मित्र की संगति से चमकदार हो जाता है” (नीतिवचन 27:17)। राजा सुलैमान ने संगति रखने या सहभागिता में रहने के अन्य लाभों के बारे में भी लिखा “एक से दो अच्छे हैं, क्योंकि उनके परिश्रम का अच्छा फल मिलता है।” “फिर यदि दो जन एक संग सोए तो वे गर्म रहेंगे, परन्तु कोई अकेला क्योंकर गर्म हो सकता है?” “यदि कोई अकेले पर प्रबल हो तो हो, परन्तु दो उसका सामना कर सकेंगे। जो डोरी तीन तागे से बटी हो वह जल्दी नहीं टूटती।” (सभोपदेशक 4:9, 11, 12)। जब प्रभु यीशु मसीह ने अपने शिष्यों को उनकी पहली सेवकाई के लिए भेजा, तब दो-दो के जोड़ों में भेजा (मरकुस 6:7)। प्रभु ने अपने शिष्यों से यह प्रतिज्ञा भी की, कि उसके लोग जब भी संगति में जमा होंगे, तो न केवल वह उनके मध्य में होगा, बल्कि यदि वे एक मन होंगे, तो परमेश्वर उन्हें उनका माँगा हुआ भी दे देगा (मत्ती 18:19-20)।


इस संगति का, चाहे वह परमेश्वर से हो अथवा मनुष्य से, मूलभूत या मौलिक आधार परिवार है। परमेश्वर ने अपने लोगों, अपने अनुयायियों, अपने चुने हुओं को अपनी सन्तान, और स्वयं को उनका पिता कहा है (निर्गमन 4:22; व्यवस्थाविवरण 14:1; 2 शमूएल 7:14; यशायाह 43:6; यिर्मयाह 31:9; होशे 1:10; 2 कुरिन्थियों 6:18; आदि)। इसी प्रकार से, हम सारे विश्व में मानव जाति में देखते हैं कि मनुष्य अपने परिवार के साथ एक प्राथमिक और मुख्य संगति बनाए रखने के प्रयास में रहता है, उनके लिए प्रावधान करता है, और अपने परिवार को औरों से बचाए रखने के प्रयास करता है। साथ ही परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति के साथ कोई निकट सम्बन्ध या गहरे लगाव को व्यक्त करने के लिए, बहुधा पारिवारिक सम्बन्धों को व्यक्त किया जाता है, जैसे कि परिवार के बाहर के लोगों के लिए कहना “यह हमारे भाई/बहन के समान है,” या “यह हमारे पिता/माता के समान है,” या यह कहना कि “यह तो हमारे परिवार के सदस्य के समान है,” या यह कि “हम तो एक ही परिवार हैं” आदि। दूसरे शब्दों में, निकट की संगति को पारिवारिक भावनाओं के साथ जोड़ के रखना, उन्हें उसी तरह से व्यक्त करना, मानव जाति की मानसिकता में गहराई से बसा हुआ है।


अगले लेख में हम यहीं से आगे बढ़ेंगे और संगति से सम्बन्धित कुछ अन्य बातों को देखेंगे।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Things Related to Christian Living – 19


The Four Pillars of Christian Living - 2 - Fellowship (1)



As part of the study on the Christian Believer’s growth through God’s Word, we are now studying Biblical teachings related to practical Christian living. We have seen that in Acts chapter 2, seven teachings are given, four of them being in Acts 2:42. The initial Christian Believers continued steadfastly in these four teachings; and they are also known as the “Pillars of Christian Living.” Of these four, we have seen about the first one, i.e., diligently and steadfastly studying God’s Word the Bible. From today we will take up the second ‘Pillar’ i.e., “Fellowship.”


Since creation, Fellowship has been an important aspect of man’s life. This fellowship was meant to be two-fold - fellowship with God, for which God used to come down to man in the Garden of Eden; and fellowship of man with man. Having created Adam, given him dominion over every creature and all the earth (Genesis 1:26); having planted a special Garden for him and placed him in it to tend it (Genesis 2:8, 15), God said “And the Lord God said, ‘It is not good that man should be alone; I will make him a helper comparable to him’” (Genesis 2:18). Here we see that since the very beginning it has been God’s intention that not only should man fellowship with Him, but should also fellowship with one “comparable to him.” Before creating Eve, God brought all the creatures to Adam, and Adam gave them all their names (Genesis 2:19). But there was also another purpose in God’s bringing all the creatures to Adam; it was to show to Adam, and have it recorded for all times in His Word, that amongst all the creatures created by God, there is none comparable to Adam and worthy of being his helper or companion (Genesis 2:20). Therefore, we see that mankind in general tends to live and stay in fellowship, in groups with each other. Man may have various kinds of animals as pets or for other benefits, and may even be closely attached to them, but families are only built in companionship with other humans, not with animals.


God’s Word shows us the necessity of living in companionship or fellowship, and how God has given us the necessary instructions and various examples for this in His Word. We see in the Ten Commandments (Exodus 20:1-17), which are the core, or the gist of God’s Law, that the first four Commandments teach about the basis of man’s relationship with God - the basics of man fellowshipping with God. And the next six Commandments are about man’s having and maintaining a harmonious relationship with man; within the family, as well as in the society or neighborhood.  King Solomon spoke of the advantage of fellowship wherein one uplifts or improves the other “As iron sharpens iron, So a man sharpens the countenance of his friend.” (Proverbs 27:17). King Solomon also emphasized the benefits of fellowship or companionship “Two are better than one, Because they have a good reward for their labor.” “Again, if two lie down together, they will keep warm; But how can one be warm alone?”; “Though one may be overpowered by another, two can withstand him. And a threefold cord is not quickly broken.” (Ecclesiastes 4:9, 11, 12). The Lord Jesus sent out His disciples in pairs for their ministry (Mark 6:7). The Lord also promised that when His people gather together in fellowship, not only is He also there amongst them, but when they are of one mind, God will grant them their prayers “Again I say to you that if two of you agree on earth concerning anything that they ask, it will be done for them by My Father in heaven. For where two or three are gathered together in My name, I am there in the midst of them” (Matthew 18:19-20).


The basic unit of this fellowship, whether with God or with man, is the family. God has called His people, His followers, His chosen ones, His children, and called Himself as their Father (Exodus 4:22; Deuteronomy 14:1; 2 Samuel 7:14; Isaiah 43:6; Jeremiah 31:9; Hosea 1:10; 2 Corinthians 6:18; etc.). Similarly, we see in mankind all over the world, that man tries to maintain a primary fellowship within his family, amongst his family members; and tries to provide for and protect his own family from others. To express a close relationship or attachment to others outside of the family, the names of familial relationships are invoked, calling the non-familial members to be “like a brother/sister,” or, “like father/mother,” or saying “he/she is like a family member,” or, “we are one family.” In other words, close fellowship and family-feelings are inherently interlinked in the psyche of mankind.


We will carry on from here in the next article, and see some other aspects related to fellowship.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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