पाप और उद्धार को समझना – 39
Click Here for the English Translation
पाप का समाधान - उद्धार - 36
कुछ संबंधित प्रश्न और उनके उत्तर (4a)
पिछले लेख में हमने देखा था कि उद्धार कभी खोया या गँवाया नहीं जा सकता है, वह अनन्तकालीन ही है; किन्तु उद्धार पाया हुआ व्यक्ति यदि पाप में बना रहे, तो उसे न केवल पृथ्वी पर ताड़ना सहनी पड़ती है, वरन उसके स्वर्गीय प्रतिफलों पर भी उसके पापों का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। और इसीलिए, बहुतेरे ऐसे लोग भी होंगे जो अपनी इस लापरवाही के व्यवहार के कारण स्वर्ग में छूछे हाथ प्रवेश करेंगे - वे अपने उद्धार को तो नहीं गँवाएंगे, किन्तु अपनी आशीषों और प्रतिफलों को गँवा देंगे, और फिर अपना स्वर्गीय अनन्तकाल खाली हाथ ही बिताएंगे। पाप और उद्धार से संबंधित सामान्यतः पूछे जाने वाले प्रश्नों की शृंखला में आज हम इसी विषय से संबंधित एक और प्रश्न पर विचार करते हैं।
प्रश्न: क्या उद्धार पाया हुआ व्यक्ति पाप कर सकता है? यदि वह करे तो उसका क्या परिणाम और समाधान है?
उत्तर: जैसा हमने उद्धार या नया जन्म पाने के विषय में देखा था, उद्धार या नया जन्म पाना उस व्यक्ति के जीवन में एक आजीवन ज़ारी रहने वाली प्रक्रिया का केवल आरंभ मात्र है। उद्धार पाते ही व्यक्ति सिद्ध नहीं हो जाता है, वरन प्रभु यीशु मसीह का, उसके वचन की आज्ञाकारिता में, अनुसरण करते जाने के द्वारा वह मसीही विश्वास और प्रभु की शिष्यता के जीवन में परिपक्व होता चला जाता है, प्रभु यीशु की समानता में अधिकाधिक ढलता चला जाता है। परमेश्वर का वचन हमें एक अद्भुत, अनपेक्षित, किन्तु बहुत सांत्वना देने वाले तथ्य से भी अवगत करवाता है - प्रभु यीशु के साथ रहने और चलने वाले शिष्य भी सिद्ध नहीं थे; उनसे भी पाप हो जाता था; उन्हें भी अपने पापों के लिए प्रभु से क्षमा और बहाली माँगनी पड़ती थी! बाइबल के कुछ पदों को देखिए:
* प्रेरित यूहन्ना ने लिखा: “यदि हम कहें, कि हम में कुछ भी पाप नहीं, तो अपने आप को धोखा देते हैं: और हम में सत्य नहीं” (1 यूहन्ना 1:8); “यदि कहें कि हम ने पाप नहीं किया, तो उसे झूठा ठहराते हैं, और उसका वचन हम में नहीं है” (1 यूहन्ना 1:10)। इन पदों में यूहन्ना द्वारा प्रयुक्त “हम” पर ध्यान करें - प्रेरित अपने आप को भी उन लोगों के साथ सम्मिलित कर लेता है, जिनके लिए वह यह पत्री लिख रहा है। साथ ही वह यह स्पष्ट कर देता है कि यदि कोई यह दावा करता है कि उसने पाप नहीं किया है, तो न केवल वह झूठा है, वरन परमेश्वर को भी झूठा ठहरा देता है। लेकिन साथ ही यूहन्ना समाधान भी लिखता है: “...और उसके पुत्र यीशु का लहू हमें सब पापों से शुद्ध करता है” (1 यूहन्ना 1:7); “यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पापों को क्षमा करने, और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है” (1 यूहन्ना 1:9)।
* प्रेरित पौलुस ने लिखा, “क्योंकि मैं जानता हूं, कि मुझ में अर्थात मेरे शरीर में कोई अच्छी वस्तु वास नहीं करती, इच्छा तो मुझ में है, परन्तु भले काम मुझ से बन नहीं पड़ते। क्योंकि जिस अच्छे काम की मैं इच्छा करता हूं, वह तो नहीं करता, परन्तु जिस बुराई की इच्छा नहीं करता वही किया करता हूं। परन्तु यदि मैं वही करता हूं, जिस की इच्छा नहीं करता, तो उसका करने वाला मैं न रहा, परन्तु पाप जो मुझ में बसा हुआ है” (रोमियों 7:18-20)। अपने शरीर के पाप करने की इस प्रवृत्ति से दुखी और कुंठित होकर, जिससे उसे निरंतर जूझते रहना पड़ता है, पौलुस प्रश्न उठाता है, “मैं कैसा अभागा मनुष्य हूं! मुझे इस मृत्यु की देह से कौन छुड़ाएगा?” (रोमियों 7:24); और फिर तुरंत ही पवित्र आत्मा की अगुवाई में स्वयं ही उत्तर भी दे देता है, “सो अब जो मसीह यीशु में हैं, उन पर दण्ड की आज्ञा नहीं: क्योंकि वे शरीर के अनुसार नहीं वरन आत्मा के अनुसार चलते हैं। क्योंकि जीवन की आत्मा की व्यवस्था ने मसीह यीशु में मुझे पाप की, और मृत्यु की व्यवस्था से स्वतंत्र कर दिया” (रोमियों 8:1-2)।
इसी प्रकार नए नियम की विभिन्न मसीही मंडलियों को परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में लिखी गई पत्रियों के सभी लेखक अपनी पत्रियों में मसीही विश्वासी के जीवन में पाप की वास्तविकता के विभिन्न आयामों के विषय लिखते हैं। अर्थात वे पवित्र आत्मा की प्रेरणा में स्वीकार कर रहे हैं कि कोई भी मसीही विश्वासी इस संसार में, पाप करने का स्वभाव रखने वाली अपनी इस नश्वर देह में रहते हुए, पाप करने की प्रवृत्ति और संभावना से मुक्त नहीं है; सिद्ध नहीं है। सभी को उद्धार के बाद भी पाप की समस्या से जूझना पड़ता है; सभी को इसका समाधान चाहिए होता है, क्योंकि मसीही विश्वासियों और परमेश्वर का बैरी, शैतान, निरंतर मसीही विश्वासियों को पाप में गिराने और फँसाने के प्रयासों में लगा रहता है। इसीलिए परमेश्वर हमें आश्वस्त करता है कि जब भी और जैसे ही हमें अपने पाप का बोध हो, हम उससे क्षमा माँग लें, और वह हमको क्षमा कर देगा और बहाल कर देगा; अब हमपर दण्ड की आज्ञा नहीं है, वरन प्रभु यीशु में होकर अनुग्रह और कृपा प्रदान की गई है।
अगले लेख में हम इस विषय को ज़ारी रखते हुए देखेंगे कि यदि उद्धार पाए हुए और न पाए हुए, दोनों ही पाप कर सकते हैं, तो फिर उद्धार पाने का क्या लाभ? तो फिर उद्धार पाए हुए और न पाए हुए व्यक्ति में क्या अंतर?
किन्तु अभी, यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
*************************************************************************
Understanding Sin and Salvation – 39
The Solution For Sin - Salvation - 36
Some Related Questions and their Answers (4a)
In the previous article we had seen that salvation is eternal and can never be lost or revoked; but a saved or Born-Again person, if he continues in sin, then not only does he have to suffer chastening on earth, but his heavenly rewards are also adversely affected; and there will be many who will enter heaven empty handed because of their careless attitude - they have not lost their salvation, but have lost their heavenly rewards because of their careless and wayward life after being saved, and will spend their eternity empty-handed. Today, in this series on common questions related to salvation, being Born-Again and sin, we will look at another question that is often raised by people.
Question: Can a saved, a Born-Again person sin? If he does sin, then what are the consequences, and what is the remedy?
Answer: As we have already seen, salvation and being Born-Again is just the beginning of a lifelong process in the saved person’s life. No one becomes perfect at the moment of being saved or Born-Again; but by continuing in fellowship with the Lord, in obedience to God’s Word, by living as a disciple of the Lord Jesus, the person continues to grow in maturity and in the likeness of the Lord Jesus. God’s Word presents to us a wonderful, unexpected, but a very reassuring fact as well - even the Disciples who lived with and learned directly from the Lord, were not perfect; they too committed sins; they too had to confess their sins to the Lord and receive forgiveness for them from Him. Consider some verses from the Bible:
* The Apostle John wrote: “If we say that we have no sin, we deceive ourselves, and the truth is not in us” (1 John 1:8); “If we say that we have not sinned, we make Him a liar, and His word is not in us” (1 John 1:10). In these verses, please note the use of “we” by John - the Apostle is also including himself, along with those to whom he is writing this letter, for the contents of his letter. Along with this he also makes it clear that if anyone claims not to have sinned, then not only is he a deceiver, but is also making God a liar. But simultaneously, John also provides the solution: “...and the blood of Jesus Christ His Son cleanses us from all sin” (1 John 1:7); “If we confess our sins, He is faithful and just to forgive us our sins and to cleanse us from all unrighteousness” (1 John 1:9).
* The Apostle Paul wrote about his own experiences, “For I know that in me (that is, in my flesh) nothing good dwells; for to will is present with me, but how to perform what is good I do not find. For the good that I will to do, I do not do; but the evil I will not to do, that I practice. Now if I do what I will not to do, it is no longer I who do it, but sin that dwells in me” (Romans 7:18-20). Frustrated and irritated at the tendency to sin present in his body, with which he has to constantly struggle, Paul raises the question “O wretched man that I am! Who will deliver me from this body of death?” (Romans 7:24); and then immediately, through the Holy Spirit, also provides the answer, “There is therefore now no condemnation to those who are in Christ Jesus, who do not walk according to the flesh, but according to the Spirit. For the law of the Spirit of life in Christ Jesus has made me free from the law of sin and death” (Romans 8:1-2).
Similarly, in all the letters written to the various New Testament Churches by various authors under the guidance of the Holy Spirit, all of them have written about the reality of sin in its various forms and dimensions, in the lives of Christian Believers. In other words, through the Holy Spirit of God, they are all acknowledging that no Christian Believer, living in this world and in this perishing body with the sin nature, is free from the tendency and possibility of committing sin; none is perfect. Everyone, even after salvation, has to struggle with their sin nature, the problem of sinning; and everybody needs a solution for this. This is because the enemy of God and Christian Believers, is constantly at work to entice the Believers to sin, make them fall in sin. Therefore, God assures us that whenever and as soon as we realize having fallen into sin, we should confess it to Him, seek His forgiveness, and He will forgive and restore us; now we are no longer under condemnation of sin, the grace of the Lord Jesus has delivered us from the condemnation.
In the next article we will continue with this question and ponder over the argument "Then what is the benefit of being saved or Born-Again? If both can sin, then what difference, if any, is there between a saved and an unsaved person?"
But for now, if you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.