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सोमवार, 18 नवंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 255

 

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व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 100


मसीही जीवन और व्यवस्था का पालन (5) 


व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों पर अध्ययन करते हुए, अभी हम प्रेरितों 15 अध्याय में दी गई बातों पर विचार कर रहे हैं। पिछले लेखों में हमने देखा है कि प्रभु यीशु में विश्वास द्वारा परमेश्वर के अनुग्रह से पापों की क्षमा और उद्धार के सुसमाचार के मूल स्वरूप में किसी भी प्रकार की कोई भी मिलावट, कोई भी बात जोड़ना कतई स्वीकार्य नहीं है; चाहे वह बात पवित्र शास्त्र में से ही क्यों न ली गई हो। इस सन्दर्भ में हमने देखा था कि आरम्भिक कलीसिया और आरम्भिक मसीही विश्वासियों के समय से ही शैतान ने सुसमाचार में मिलावट करके उसे भ्रष्ट करने, उसमें कर्मों के द्वारा धर्मी बनने की बात को भी डालने के प्रयास किए। उस समय शैतान ने विश्वास के साथ खतना करवाने और मूसा द्वारा दी गई व्यवस्था का पालन करने की आवश्यकता को लोगों में बैठाने का प्रयास किया। यरूशलेम में कलीसिया के अगुवों ने इस विषय पर चर्चा की, और पवित्र आत्मा की अगुवाई में निर्णय लिया कि पापों की क्षमा और उद्धार के लिए प्रभु यीशु में विश्वास के साथ खतना करवाने या मूसा की व्यवस्था का पालन करने की कोई आवश्यकता नहीं है; और यह बात सभी कलीसियाओं और विश्वासियों में बता दी गई। किन्तु आज भी शैतान की यही चाल लगभग सभी डिनॉमिनेशनों और मतों में प्रचलित है। फर्क केवल इतना है कि आज मूसा की व्यवस्था के स्थान पर डिनॉमिनेशन या मत के नियमों, रीतियों, और परम्पराओं का पालन करने की अनिवार्यता पर बल दिया जाता है, उसे लागू करवाया जाता है। और कलीसियाओं तथा मतों के लोगों में यह भ्रम बैठा हुआ है कि क्योंकि वे अपनी डिनॉमिनेशन के नियमों, रीतियों, और परम्पराओं का पालन करते हैं, इसलिए वे उद्धार पाए हुए हैं; जो कि सर्वथा गलत है, असंख्य लोगों को अनन्त विनाश में ले जाने का कारण है। साथ ही कई मसीही विश्वासी भी अब भ्रामक शिक्षाओं में पड़कर, परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और स्वीकार्य होने के लिए फिर से व्यवस्था की बातों के पालन करने पर ओर देने लग गए हैं, जो कि कर्मों के द्वारा धर्मी बनने का ही एक स्वरूप है, सुसमाचार के विरुद्ध है, अस्वीकार्य है।

 

सुसमाचार में व्यवस्था पालन को जोड़ने को वर्जित करने के बाद, यरूशलेम के अगुवों ने अन्य जातियों में से मसीही विश्वास में आए लोगों के सन्दर्भ में एक निर्णय और लिया, तथा सभी में पहुँचाया। यह था कि इन विश्वासियों को अपने पुराने जीवन की चार बातों, मूरतों की अशुद्धता (अर्थात मूरतों को बलि किए हुओं के मांस), व्यभिचार, गला घोंटे हुओं का माँस, और लहू को खाना को छोड़ना होगा। इस पर चर्चा करते हुए हमने देखा कि यह हमारे सामने प्रश्न रखता है कि एक ओर तो मसीही विश्वास के जीवन में व्यवस्था पालन की अनिवार्यता को मना किया जा रहा है; किन्तु साथ ही ऐसी बातों के करने के लिए भी निर्देश गए हैं, जो व्यवस्था की बातों का पालन करने का आभास देते हैं। इस प्रतीत होने वाले विरोधाभास पर विचार करते हुए, हमने पिछले लेख में देखा था कि आम धारणा के विरुद्ध, क्यों लहू का, और लहू के साथ मांस का खाना व्यवस्था कि बात नहीं है। वरन, यह व्यवस्था के दिए जाने से बहुत पहले, नूह के समय में, परमेश्वर द्वारा दी गई आज्ञा है, जिसे व्यवस्था में दोहराया गया है। जो अन्यजातियों से मसीही विश्वास में आने के द्वारा परमेश्वर के पास वापस लौट आए हैं, उन्हें फिर से उसी मूल निर्देश का पालन करने के लिए कहा गया है। आज हम इसी सन्दर्भ में मूरतों की अशुद्धता और व्यभिचार के बारे में इसी दृष्टिकोण से देखेंगे, कि क्या इन्हें मना करना व्यवस्था पालन से सम्बन्धित है कि नहीं।

 

मूरतों की अशुद्धता, अर्थात मूरतों को बलि किए हुओं के मांस का खाना यद्यपि व्यवस्था में सीधी रीति से निषेध नहीं किया गया है। किन्तु क्योंकि यह यहोवा परमेश्वर को छोड़ किसी और की उपासना करने तथा मूर्तियों की देवी-देवताओं के समान उपासना करने के साथ संलग्न है, इसलिए यह दस में से पहली दो आज्ञाओं का उल्लंघन है। इसी तरह से व्यभिचार भी उन दस में से सातवीं आज्ञा का उल्लंघन है। इसलिए, अन्यजातियों में से परमेश्वर की ओर लौटने वालों के लिए, परमेश्वर की मूल आज्ञाओं का पालन करना, और इन बातों से अलग होना भी आवश्यक है। किन्तु हमारे सामने प्रश्न यह है कि क्या यह व्यवस्था का पालन नहीं है? यह प्रश्न इसलिए सामने आता है क्योंकि आम समझ और धारणा यही है कि दस आज्ञाएँ मूसा द्वारा दी गई व्यवस्था का एक भाग हैं। किन्तु यदि हम निर्गमन की पुस्तक में दिए गए और व्यवस्थाविवरण की पुस्तक में स्मरण करवाने के लिए दोहराए क्रम को देखते हैं, तो यह प्रकट हो जाता है कि परमेश्वर ने दस आज्ञाएँ पहले और अलग से दी थीं, और वे विधियाँ, पर्व, भेंट, बलिदान, नियम, आदि जिन्हें सामूहिक रीति से “मूसा की व्यवस्था” कहा जाता है, उन्हें अलग से और बाद में दिया था।


निर्गमन 19 अध्याय में हम देखते हैं कि मिस्र से निकलकर और लाल समुद्र को पार करने के बाद, इस्राएलियों ने सीनै के जंगल में, सीनै पर्वत के नीचे डेरे डाले (निर्गमन 19:1-2), और परमेश्वर के साथ वाचा बांधी कि वे उसकी हर बात का पालन करेंगे (निर्गमन 19:8)। अब यहाँ पर 9 पद पर ध्यान कीजिए; तब यहोवा ने मूसा से कहा कि वह लोगों को तैयार होने के लिए कहे, जिससे जब परमेश्वर मूसा से बातें करे, तो वे लोग उन बातों को सुनें; और शेष अध्याय लोगों की इसी तैयारी और परमेश्वर की बात सुनने से सम्बन्धित है। फिर 20 अध्याय इस वाक्य के साथ आरम्भ होता है “तब परमेश्वर ने ये सब वचन कहे” (निर्गमन 20:1); साथ ही इसी वृतान्त को व्यवस्थाविवरण 5 अध्याय से भी देखिए। निर्गमन 20:1-17 परमेश्वर द्वारा बोली गई दस आज्ञाएँ हैं। इस्राएलियों ने उन बातों को, उन दस आज्ञाओं को सुना, वे बहुत डर गए, और जब मूसा उनके पास नीचे आया तो उन्होंने उससे कहा कि उनमें परमेश्वर की वाणी सुनने की हिम्मत नहीं है, इसलिए मूसा ही सुनकर उन्हें आकर बताया करे (निर्गमन 20:18-22; व्यवस्थाविवरण 5:23-27)। यह दस आज्ञाओं का पहली बार दिया जाना था, जो मौखिक था, और इससे अधिक और कुछ न कहा, अर्थात, व्यवस्था की अन्य कोई विधि या रीति इसके साथ नहीं दी गई थी (व्यवस्थाविवरण 5:22)। पद निर्गमन 20:20 बताता है कि यह परमेश्वर द्वारा उनकी परीक्षा, और उनके मनों में उसके भय को स्थापित करने के लिए था। इसके बाद की बात के लिए, और हमारे प्रश्न के उत्तर को समझने के लिए व्यवस्थाविवरण 5:30-31 बहुत महत्वपूर्ण पद हैं। इन दो पदों में हम देखते हैं कि परमेश्वर ने पहले तो मूसा के अतिरिक्त सभी इस्राएलियों को उनके डेरों में वापस भेजा, लेकिन मूसा से कहा कि वह वहीं परमेश्वर के सम्मुख खड़ा रहे। और तब परमेश्वर ने मूसा से इन दस आज्ञाओं के अतिरिक्त अपनी व्यवस्था इस्राएलियों को सिखाने के लिए उसे देने की बात की “इसलिये तू जा कर उन से कह दे, कि अपने अपने डेरों को लौट जाओ। परन्तु तू यहीं मेरे पास खड़ा रह, और मैं वे सारी आज्ञाएं और विधियां और नियम जिन्हें तुझे उन को सिखाना होगा तुझ से कहूंगा, जिस से वे उन्हें उस देश में जिसका अधिकार मैं उन्हें देने पर हूं मानें” (व्यवस्थाविवरण 5:30-31)।

 

इसके बाद फिर हम निर्गमन 24:12 में देखते हैं कि परमेश्वर ने मूसा को अपने पास बुलाया, कि वह उसे आज्ञा लिख कर और व्यवस्था दे “तब यहोवा ने मूसा से कहा, पहाड़ पर मेरे पास चढ़, और वहां रह; और मैं तुझे पत्थर की पटियाएं, और अपनी लिखी हुई व्यवस्था और आज्ञा दूंगा, कि तू उन को सिखाए” (निर्गमन 24:12)। अर्थात हम स्पष्ट देखते हैं कि परमेश्वर ने व्यवस्था और उन दस आज्ञाओं में भिन्नता की। मूसा चालीस दिन और रात पर्वत पर परमेश्वर के साथ रहा (निर्गमन 24:18) और परमेश्वर उसे अपनी व्यवस्था और मिलाप वाले तम्बू तथा अन्य सम्बन्धित बातों को सिखाता रहा। जब लोगों ने देखा कि मूसा के आने में विलम्ब हो रहा है तो उन्होंने हारून से कहकर एक बछड़ा बनाया और उसकी उपासना करने लगे (निर्गमन 32:1-8)। परमेश्वर ने मूसा को पर्वत से नीचे इस्राएलियों के पास भेजा, और वह साक्षी की दोनों तख्तियों को लिए हुए नीचे उतर आया, लेकिन इस्राएलियों की हालत और व्यवहार को देखकर वह क्रोधित हुआ और उन दोनों तख्तियों को पटक कर तोड़ डाला (निर्गमन 32:15-20)। इसके बाद निर्गमन 34:1 में परमेश्वर ने मूसा को फिर से अपने पास पत्थर की दो तख्तियों के साथ बुलाया, और परमेश्वर ने उससे कहा कि उन तख्तियों पर वह फिर से वही वचन लिखेगा जो उसने पहली तख्तियों पर लिखे थे “फिर यहोवा ने मूसा से कहा, पहिली तख्तियों के समान पत्थर की दो और तख्तियां गढ़ ले; तब जो वचन उन पहिली तख्तियों पर लिखे थे, जिन्हें तू ने तोड़ डाला, वे ही वचन मैं उन तख्तियों पर भी लिखूंगा” (निर्गमन 34:1)। हम व्यवस्थाविवरण 9:10; 10:4 से देखते हैं कि परमेश्वर ने उन तख्तियों पर वे दस आज्ञाएँ लिखी थीं जो उसने होरेब पर्वत पर से, निर्गमन 20:1-17 में, इस्राएलियों से बोली थीं; और जब दोबारा मूसा को परमेश्वर ने फिर से अपने पास बुलाया तो जो तख्तियाँ मूसा साथ लेकर गया था, उन तख्तियों पर भी वही दस आज्ञाएँ परमेश्वर ने फिर से लिख कर दे दीं, और उन तख्तियों को बाद में वाचा के सन्दूक में रख दिया गया (व्यवस्थाविवरण 5:22; 10:5; इब्रानियों 9:4)।

 

ये दस आज्ञाएँ वास्तव में परमेश्वर की सभी आज्ञाओं और निर्देशों का सार, उनका संक्षिप्त रूप हैं; इसलिए ये परमेश्वर की उस व्यवस्था का प्रारूप तो हैं जिन्हें बाद में परमेश्वर ने मूसा को विस्तार से दिया; किन्तु अपने आप में ये वह “मूसा की व्यवस्था” नहीं हैं, जिसके सन्दर्भ में हम बात कर रहे हैं, और जिसके पालन के विषय यह प्रश्न उठा है। यहाँ पर शब्द “व्यवस्था” के बारे में एक अन्य बात का भी ध्यान रखने की आवश्यकता है कि वचन में कुछ स्थानों पर इस शब्द को मूसा द्वारा लिखी बाइबल की पहली पाँच पुस्तकों के लिए (1 राजाओं 2:3; मत्ती 5:17; लूका 16:16; गलतियों 3:10), या उस व्यवस्था की किसी एक विधि के लिए (लैव्यव्यवस्था 7:7), कभी पुराने नियम की किसी पुस्तक के लिए (यूहन्ना 10:34 और भजन 82:6; 1 कुरिन्थियों 14:21 और यशायाह 28:11), कभी सम्पूर्ण पुराने नियम के लिए (भजन 19:7; यूहन्ना 12:34), कभी दस आज्ञाओं के सन्दर्भ में (याकूब 2:11), कभी मसीही विश्वास के निर्वाह (रोमियों 3:27), कभी मसीही विश्वास से सम्बन्धित व्यक्तिगत व्यवहार (रोमियों 7:23) के लिए भी प्रयोग किया गया है। तात्पर्य यह कि शब्द “व्यवस्था” को केवल “मूसा की व्यवस्था” नहीं समझा जाना चाहिए, वरन सन्दर्भ तथा इस शब्द के प्रयोग के अनुसार उसके अर्थ को देखना, समझना, और व्याख्या करनी चाहिए।

  

इस संक्षिप्त समीक्षा से हम परमेश्वर के वचन के आधार पर देखते हैं कि दस आज्ञाएँ परमेश्वर की व्यवस्था से पहले दी गई थीं, मूसा की व्यवस्था का भाग नहीं थीं, और मूसा की व्यवस्था परमेश्वर द्वारा दस आज्ञाओं को देने के बाद दी गई थी। क्योंकि पहली बार कही गई, फिर दूसरी बार तख्तियों पर लिख कर दी गई ये दस आज्ञाएँ तख्तियों के तोड़ दिए जाने कारण, जब तीसरी बार मूसा को दी गईं, तब वह उन्हें परमेश्वर द्वारा दी गई व्यवस्था की बातों के साथ लेकर आया था (निर्गमन 34:29; व्यवस्थाविवरण 10:5), इसलिए लोगों में यह आम गलतफहमी है कि दस आज्ञाएँ भी व्यवस्था का एक भाग हैं। किन्तु जैसा हमने सम्बन्धित बातों को क्रमवार देखने से पाया है, दस आज्ञाएँ व्यवस्था की विधियों से भिन्न और उनसे पहले कही तथा दी गई आज्ञाएँ हैं। इसलिए प्रेरितों 15:20, 29 की चार बातों के सन्दर्भ में यरूशलेम के अगुवों द्वारा दी गई आज्ञाएँ, उस “मूसा की व्यवस्था” का पालन नहीं है जिसके बारे में प्रेरितों 15 में चर्चा की गई, तथा जिस व्यवस्था को कुछ लोग लागू करवाना चाहते थे, और जिस व्यवस्था के सन्दर्भ में विरोधाभास से सम्बन्धित यह प्रश्न है।

 

इसलिए अन्यजाति विश्वासियों को मूर्तिपूजा और सम्बन्धित बातों, व्यभिचार, लहू के और लहू के साथ मांस को खाने से दूर रहने के जो निर्देश दिए गए, उनके लिए यह नहीं कहा जा सकता है कि वे मूसा की व्यवस्था का पालन करने की आज्ञा देने के समान थे। इससे एक बार फिर यह स्पष्ट हो जाता है कि परमेश्वर के वचन में त्रुटि अथवा विरोधाभास नहीं है; आवश्यकता उसे उसके सही स्वरूप में और सही सन्दर्भ में, अन्य स्थानों पर दी गई सम्बन्धित बातों के साथ देखने तथा समझने की है।


अगले लेख में हम यहाँ से आगे देखेंगे।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


Things Related to Practical Christian Living – 100


Christian Living and Observing the Law (5)

 

While studying the things related to practical Christian living, presently we are considering the things given in Acts chapter 15. We have seen in the preceding articles that addition or mixing of anything to the gospel of forgiveness of sins and salvation by the grace of God through faith in the Lord Jesus is absolutely unacceptable; even though the thing being added or mixed may have been taken from the Scriptures. We had seen in this context that from the time of the initial Church and the initial Christian Believers, Satan had begun to corrupt the gospel by mixing being righteous by works into it. At that time Satan tried to add the necessity of circumcision and of obeying the Law of Moses into it. The Church leaders in Jerusalem discussed the matter, and under the guidance of the Holy Spirit came to the decision that for the forgiveness of sins and salvation, other than faith in the Lord Jesus, there is no need for circumcision or following the Law of Moses; and this was spread amongst all the churches and the Christian Believers. But even today this devious concept is still prevalent amongst nearly all the denominations and sects. The only difference is that instead of following the Law of Moses, now the emphasis is on following the rules, rituals, and traditions of the denominations and the sects, and this is enforced on the members. Moreover, there is this misconception amongst the people of denominations and sects that since they are obeying the rules, rituals, and traditions of their sect or denomination, therefore, they are saved; which is totally wrong and countless people are going into eternal destruction because of this. Also, many Christian Believers, because of falling for deceptive teachings, have started to teach and follow the Law of Moses for being righteous in God’s eyes and being acceptable to Him; which is another form of being righteous by works, is contrary to the gospel, and is unacceptable.


After forbidding the adding of following the Law of Moses to the gospel, the Jerusalem Church leaders took another decision related to those who had come into the Christian faith from the Gentiles, and this too was spread amongst all. The decision was that these Believers must give up on four things that they had been doing before salvation. These were things polluted by idols (things offered to idols), from sexual immorality, from things strangled, and from eating blood. While considering these we had seen that this places a question before us that on the one hand the following of the Law of Moses is being forbidden for practical Christian living; on the other, instructions are being given which seem to suggest the observance of the Law. While considering this apparent contradiction, we had seen why, contrary to the common misconception, the forbidding of eating of blood and meat with blood is not following the Law. Rather, it is something that had been given by God much before the giving of the Law, during Noah’s time, and was repeated in the Law. Those Gentiles who had returned to God through coming into Christian faith, they were now being instructed to follow that original instruction given by God. Today, in the same context, we will consider about the pollution of idols and adultery from the same perspective, and see whether forbidding them is related to following the Law.


The pollution of idols, i.e., the eating of meat of animals sacrificed to idols, although is not forbidden directly and in these very words in the Law. But since it is related to the worship of something other than of Jehovah God and with the worship of idols as gods and goddesses, therefore, it is disobeying the first two of the Ten Commandments. Similarly, adultery is the disobeying of the seventh of the Ten Commandments. Therefore, for those Gentiles who had returned to God, it was necessary that they follow the original instructions given by God, and separate themselves from these things. But the question this has put before us is that is this not following the Law? This question has come up since the common understanding is that the Ten Commandments are a part of the Law of Moses. But if we look at the sequence of events given in the book of Exodus, which have been repeated for remembrance in the book of Deuteronomy, then it becomes evident that God had given the Ten Commandments first, and separately. Those practices, feasts, sacrifices, rules and regulations, etc. which are collectively known as “The Law of Moses” were given later and separately by God.


In Exodus chapter 19 we see that after coming out of Egypt and having crossed the Red Sea, the Israelites came to the wilderness of Sinai and camped there at the base of mount Sinai (Exodus 19:1-2), and they entered into a covenant with God that they will do whatever God asks them to do (Exodus 19:8). Now, pay attention to verse 9 over here; God then told Moses to ask the people to prepare themselves, so that when God speaks to Moses, then they should hear what He says; and the rest of the chapter is about how they were to prepare themselves. Then chapter 20 begins with the words “And God spoke all these words, saying” (Exodus 20:1); please see this narrative from Deuteronomy 5 also. Exodus 20:1-17 are the Ten Commandments spoken by God. The Israelites heard the Ten Commandments, were very afraid, and when Moses came down to them, they told him that they did not have the courage to listen to God, therefore Moses should go and listen to God, and then come and tell them what God had to say (Exodus 20:18-22; Deuteronomy 5:23-27). This was the first giving of the Ten Commandments, and nothing more was added to them, i.e., nothing else related to the Law was said or given along with this (Deuteronomy 5:22). The verse Exodus 20:20 tells us that God did this to test them and to establish His fear in their hearts. To understand what happened next and to understand the answer to our question, Deuteronomy 5:30-31 are very important verse for us. We see written in these verses that first God asked except for Moses, all the Israelites to go back to their tents, but He asked Moses to stay behind and stand by Him. It was then that God told Moses that, besides the Ten Commandments, He would also give him the Law so that he would teach it to the Israelites “Go and say to them, "Return to your tents." But as for you, stand here by Me, and I will speak to you all the commandments, the statutes, and the judgments which you shall teach them, that they may observe them in the land which I am giving them to possess” (Deuteronomy 5:30-31).


After this, we see from Exodus 24:12 that God asked Moses to come up to Him so that He would write the Ten Commandments and give him the Law “Then the Lord said to Moses, "Come up to Me on the mountain and be there; and I will give you tablets of stone, and the law and commandments which I have written, that you may teach them."” (Exodus 24:12). In other words, we see clearly that God differentiated between the Ten Commandments and the Law. Moses stayed with God for forty days and nights (Exodus 24:18), and God kept teaching him about the Law and the Tabernacle. When the people saw that Moses’s coming was delayed, they made Aaron make a golden calf for them, and started to worship it (Exodus 32:1-8). God sent Moses down from the mountain to the Israelites, and he came down with the two tablets of the Testimony, but on seeing the condition and behavior of the Israelites, he became very angry, and cast the two tablets down, breaking them (Exodus 32:15-20). After this, God called Moses to come to him with two tablets of stone (Exodus 34:1), and told him that He will once again write on those tablets the same words that he had first written on the tablets which he broke “And the Lord said to Moses, "Cut two tablets of stone like the first ones, and I will write on these tablets the words that were on the first tablets which you broke” (Exodus 34:1). We see from Deuteronomy 9:10; 10:4 that God wrote on those tablets the same Ten Commandments which He had spoken to the Israelites in Exodus 20:1-17 from Mount Horeb. Now, when God had again called Moses to Him along with two stone tablets, then on those tablets also He wrote the same Ten Commandments, and those tablets were placed in the Ark of the Covenant (Deuteronomy 5:22; Hebrews 9:4).


These Ten Commandments are the distillation, the concise form of all the commandments and instructions of God; therefore, although they are the antecedent of the Law which God gave later in detail to Moses; but as such, they are not the “Law of Moses” in context of which we are seeing here, and about which the question had come up before us. There is another thing that needs to be seen, understood, and kept in mind about the word “law.” In God’s Word, this word “law” has been used in various ways; at some places it is used for the first five books of the Bible written by Moses (1 Kings 2:3; Matthew 5:17; Luke 16:16; Galatians 3:10), or for some ritual given in the Law (Leviticus 7:7); sometimes it is used for some book of the Old Testament (John 10:34 and Psalm 82:6; 1 Corinthians 14:21 and Isaiah 28:11); at times it is used for the whole of the Old Testament (Psalm 19:7; John 12:34), at times in relation to the Ten Commandments (James 211), sometime regarding living by the Christian faith (Romans 3:27), at others for the personal behavior related to Christian faith (Romans 7:23). The thing to be understood is that the word “law” has not always been used for the “Law of Moses” therefore, it should always be seen and understood in its context and then interpreted accordingly.


From this brief review, on the basis of God’s Word we see that the Ten Commandments had been given before the Law, and they are not a part of the Law of Moses, which was given by God later, after giving the Ten Commandments. The first time they were spoken, then the second time they were written on tablets and the tablets of the Ten Commandments were broken, therefore the third time when they were given by God, Moses brought them along with the Law (Exodus 34:29; Deuteronomy 10:5), therefore there is this common misconception amongst people that the Ten Commandments are a part of the Law of Moses. But as we have seen by sequentially looking at the related things, the Ten Commandments are separate from the Law, having been given before the Law. Therefore, in context of the four things said in Acts 15:20, 29, the instructions given by the leaders in the Church at Jerusalem, are not instructions to follow the “Law of Moses” which some people wanted to be added to the gospel and was discussed in Jerusalem, in Acts 15; and so, there is no contradiction here about not associating the Law with the gospel and in the giving of these instructions.


Therefore, the instructions given to the Gentile Believers related to idolatry, adultery, eating blood and meat with blood, cannot be said to be instructions as for following the Law. This once again makes it clear that there is no contradiction or error in the Bible; the necessity is of seeing things in their correct form, in their correct context, along with things given at other places in the Bible, then understanding and interpreting it accordingly.


In the next article we will see ahead from here.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


 

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