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रविवार, 6 अक्टूबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 212

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 57


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 3 - प्रभु-भोज (32) 

उन्नति के लिए (1) 

प्रभु भोज के बारे में अपने इस अध्ययन में हमने देखा था कि व्यावहारिक मसीही जीवन के लिए प्रेरितों 2:42 में चार बातें दी गई हैं, आरम्भिक मसीही विश्वासी जिनका लौलीन होकर पालन किया करते थे। इससे वे अपने आत्मिक जीवनों में उन्नत हुए, हर प्रकार की परिस्थिति में वे अपने मसीही विश्वास में स्थिर और दृढ़ खड़े रह सके, और कलीसियाएं भी बढ़ती गईं। इसी कारण इन चार बातों को मसीही जीवन के स्तम्भ भी कहा जाता है। इसकी तुलना में कुरिन्थुस कि मण्डली के मसीही विश्वासी थे जिन्होंने इन चारों बातों का लौलीन होकर पालन नहीं किया, वरन उन्हें एक औपचारिकता बना लिया, रीति के समान उनका पालन करने लगे, और उनमें अपने ही मन के अनुसार बातों का जोड़-तोड़ कर लिया। परिणामस्वरूप उनके आत्मिक जीवन बहुत गिर गए, और वे अपने मसीही विश्वास में स्थिर और दृढ़ होकर खड़े नहीं रह सके। इन चार में से तीसरी बात, प्रभु भोज के बारे में हमने नए नियम से सुसमाचारों में से प्रभु यीशु के द्वारा प्रभु भोज की स्थापना के बारे में देखा था कि प्रभु भोज का सही स्वरूप “एक ही रोटी और एक ही प्याला” है, और इसके अभिप्रायों के बारे में भी हम देख चुके हैं। इसके बाद हमने प्रभु की मेज़ के बारे में गलतफहमियों और उसमें गलत रीति से भाग लेने, और मेज़ के दुरुपयोग के बारे में 1 कुरिन्थियों 11:17-34 देखा, और प्रभु भोज से संबंधित कुछ अन्य महत्वपूर्ण बातों के बारे में 1 कुरिन्थियों 10:16-22 से देखा। पिछले लेख में हमने 1 कुरिन्थियों 10:22 से इन बातों के निष्कर्ष के बारे में देखा। इस लेख में, हम प्रभु भोज से संबंधित एक और विषय के बारे में देखेंगे, जिसे पवित्र आत्मा ने पौलुस के द्वारा 1 कुरिन्थियों 10:23-24 में उठाया है।


यद्यपि यह विषय प्रभु की मेज़ के संदर्भ में तो कहा गया है, किन्तु यह मसीही विश्वास और जीवन से संबंधित अनेकों अन्य बातों पर भी उतना ही लागू होता है। इसके बारे में जानकारी रखना मसीही विश्वासियों के लिए बहुत सहायक होगा, विशेषकर उन जटिल परिस्थितियों में जिनका सामना उन्हें अपने विश्वास की यात्रा के दौरान करना पड़ेगा; इसलिए उन्हें इसके बारे में जानना चाहिए, और समय तथा आवश्यकता के अनुसार इसका उपयोग करते रहना चाहिए। 1 कुरिन्थियों 10:23 में लिखा है, “सब वस्तुएं मेरे लिये उचित तो हैं, परन्तु सब लाभ की नहीं: सब वस्तुएं मेरे लिये उचित तो हैं, परन्तु सब वस्तुओं से उन्नति नहीं।” जैसा कि इस पद के लेख से प्रकट है, बहुधा ऐसी परिस्थितियाँ होंगी जिनमें व्यक्ति कार्यविधि और वैधानिक दृष्टिकोण से तो सही होगा, किन्तु नैतिक तथा आत्मिक रीति से गलत और परमेश्वर को अस्वीकार्य होगा। इस बात को समझने के लिए हमें यह समझना और ध्यान रखना अनिवार्य है कि परमेश्वर केवल बाहरी स्वरूप और कार्य को नहीं देखता है, वरन व्यक्ति के मन को, उसके हृदय को देखता है (1 शमूएल 16:7; यिर्मयाह 11:20; 20:12) और उसके मन की बातों के अनुसार उसका आँकलन करता है। इसीलिए दाऊद ने अपने पुत्र सुलैमान को, उसे उत्तरदायित्व देते समय चिताया था, “और हे मेरे पुत्र सुलैमान! तू अपने पिता के परमेश्वर का ज्ञान रख, और खरे मन और प्रसन्न जीव से उसकी सेवा करता रह; क्योंकि यहोवा मन को जांचता और विचार में जो कुछ उत्पन्न होता है उसे समझता है। यदि तू उसकी खोज में रहे, तो वह तुझ को मिलेगा; परन्तु यदि तू उसको त्याग दे तो वह सदा के लिये तुझ को छोड़ देगा” (1 इतिहास 28:9)।


इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण है दाऊद द्वारा योआब को साथ लेकर बतशेबा के पति ऊरिय्याह को मरवाने का षड्यंत्र रचना, क्योंकि वह उसके द्वारा गर्भवती थी (2 शमूएल 11:14-17)। कार्यविधि तथा वैधानिक रीति से, राजा और सेना का प्रधान सेनापति होने के नाते यह दाऊद का अधिकार था कि वह किसी भी सैनिक को कहीं पर भी नियुक्त करे, और योआब पर भी यह बाध्य था कि वह राजा की आज्ञा का पालन करे। लेकिन वास्तविक बात और दाऊद के मन में छुपी हुई बात तो अपने पाप को ऊरिय्याह तथा लोगों से छुपाने के लिए, ऊरिय्याह को मरवा देना था। योआब भी दाऊद की इस कुटिल और दुष्ट योजना को कार्यान्वित करने के लिए सहमत हो गया, और इस प्रकार दाऊद के पाप का भागी हो गया। बाद में जब परमेश्वर ने अपने नबी नातान के द्वारा दाऊद का इस बात के लिए सामना किया, तब दाऊद ने जो किया था उसे ऊरिय्याह की हत्या करना कहा (2 शमूएल 12:7-12)। दाऊद ने अपने किए को उचित दिखाने के लिए जो पर्दा बनाया था, वह उसके पीछे छुप नहीं सका, अपने आप को अपने पापों के दुष्परिणामों से बचा नहीं सका, यद्यपि उसने जो किया, वह राजा होने के नाते उसके अधिकारों के अन्तर्गत था। परमेश्वर ने उसका न्याय केवल उसके मन की दशा के अनुसार किया; उसके अनुसार नहीं, जैसा उसने बाहरी रीति से दिखाया था।

 

हम जिन पदों पर विचार कर रहे हैं, 1 कुरिन्थियों 10:23-24, वे हमें सिखाते हैं कि हमारा ध्यान अपनी प्रत्येक स्थिति का आँकलन करके उसके प्रत्युत्तर को, प्राथमिक रीति से, प्रत्युत्तर के द्वारा ‘उन्नति’ होने के आधार पर देने का होना चाहिए। हम जो भी कहने या करने का विचार कर रहे हैं, क्या उससे हमारी तथा कलीसिया की उन्नति होती है कि नहीं। यदि उन्नति नहीं होती है, तो चाहे वह व्यवहारिक एवं वैधानिक रीति से सही और उचित भी हो, और संसार के माप-दण्डों के अनुसार स्वीकार्य भी हो, लेकिन फिर भी वह मसीही विश्वासी के लिए अनुचित और अस्वीकार्य है। पौलुस अगले ही पद में इस बात की पुष्टि करते हुए कहता है, “कोई अपनी ही भलाई को न ढूंढे, वरन औरों की” (1 कुरिन्थियों 10:24)। इसी बात को पौलुस और अधिक विस्तार से प्रभु यीशु मसीह के जीवन के उदाहरण के द्वारा फिलिप्पियों 2:1-11 में समझाता है। जो लोग प्रभु की मेज़ में भाग लेते हैं, जब वे योग्य रीति से भाग लेने के लिए अपने आप को जाँच रहे होते हैं, तब उन्हें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि क्या उनके जीवनों से कलीसिया की उन्नति होती है, और वे स्वयं भी उन्नति करते हैं कि नहीं। अगले लेख में हम उन्नति करने के बारे में विचार करेंगे।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 


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English Translation


Things Related to Christian Living – 57


The Four Pillars of Christian Living - 3 - Breaking of Bread (32)

For Edification (1)

In our study about the Holy Communion or the Lord’s Table we have seen that in Acts 2:42 four things related to practical Christian living have been given, and the initial Christian Believers used to steadfastly follow them. Because of this they were edified in their spiritual lives, stood steady and firm in their Christian faith despite all kinds of circumstances, and the churches also continued to grow. That is why these four are also known as the four “Pillars of Christian Living.” In contrast, were the Christian Believers of Corinth, who did not follow these four things steadfastly; but turned them into a formality, a ritual, and manipulated them, added and took away things from them according to their own fancy. Consequently, their spiritual lives fell down greatly, they could not stand firm in their Christian faith. The third of these four things is participating in the Lord’s Table or the Holy Communion. We had seen that the correct form of the Holy Communion, as established by the Lord Jesus at the time of instituting the Holy Communion was of “one bread and one cup” for everyone; and we have seen the implications of this also. We then studied about the misunderstandings and misuse of the Table, and the correct manner of participating in it from 1 Corinthians 11:17-34, and some other issues related to participation on the Holy Communion from 1 Corinthians 10:16-22. In the last article we have seen the conclusion from 1 Corinthians 10:22. In this article on this study about the Holy Communion, we will see one more point that the Holy Spirit raises through Paul, stated in 1 Corinthians 10:23-24.

 

Although this point is in context of the Lord’s Table, but is also equally applicable to many other issues related to Christian Faith and living. Knowing about it will help the Christian Believers in many perplexing situations that they will face in their journey of faith; so they should remain aware of it, and use it. It is written in 1 Corinthians 10:23, “All things are lawful for me, but not all things are helpful; all things are lawful for me, but not all things edify.” As is evident from the text of the verse, there will often be situations where one can be technically and legally correct, but still be morally and ethically wrong or unacceptable to the Lord. To understand this point, we need to remember that God does not look at the externals, but at the heart (1 Samuel 16:7; Jeremiah 11:20; 20:12), and judges a person according to what is in his heart. Therefore, David cautioned his son Solomon, as he was handing over the charge to him, “As for you, my son Solomon, know the God of your father, and serve Him with a loyal heart and with a willing mind; for the Lord searches all hearts and understands all the intent of the thoughts. If you seek Him, He will be found by you; but if you forsake Him, He will cast you off forever” (1 Chronicles 28:9). So, while a person may be technically and legally right, he can be morally and ethically totally wrong.


A very good illustration of this is David’s plotting with Joab, of the killing of Uriah, the husband of Bathsheba, since she was pregnant with David’s child (2 Samuel 11:14-17). Technically and legally, as the King and Commander-in-Chief of his troops, David had the right to station any soldier anywhere, and Joab too had to comply with the king’s orders. But the actual situation and the thing in David’s heart was to have Uriah eliminated, to hide his own sin from Uriah and the people. Joab agreed to carry out David’s wicked plan, and thus became a party to David’s sin. Later when God confronts David through His prophet Nathan, Nathan, on God’s behalf, calls what David had done as murdering Uriah (2 Samuel 12:7-12). David could not hide behind the deception he had created, and could not absolve himself from the consequences of his sins, though he was well within his rights as King. God judged him only by what was in his heart and not by what he presented on the outside.


  Of the verses we are considering, 1 Corinthians 10:23, teach us that our primary concern should be to assess every situation and our response to it on the criteria of edification. Whatever we think of doing, does it edify us and the Church or not? If it does not edify, then even if it is technically and legally correct and acceptable by the standards of the world, yet it is unacceptable for a Christian Believer. Paul affirms it in the very next verse, “Let no one seek his own, but each one the other's well-being” (1 Corinthians 10:24). Paul explains this thought in some more detail in Philippians 2:1-11, using the Lord Jesus as the role model and example. Those who participate in the Lord’s Table, when examining themselves to partake in a worthy manner, should make sure that their lives have served to edify the Church, and they themselves are edified as well. In the next article we will look into some more detail about this edification.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 


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