पाप और उद्धार को समझना – 15
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पाप का समाधान - उद्धार - 12
प्रभु यीशु का निष्पाप, निष्कलंक जीवन
हमने उद्धार से संबंधित तीसरे और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न कि “इसके लिए यह इतना आवश्यक क्यों हुआ कि स्वयं परमेश्वर प्रभु यीशु को स्वर्ग छोड़कर सँसार में बलिदान होने के लिए आना पड़ा?” पर विचार आरंभ किया है। आदम और हव्वा के पापा के कारण उत्पन्न हुई इस विडंबना के लिए कि पाप को दण्डित भी किया जाए, किन्तु मनुष्य मृत्यु में, अर्थात, परमेश्वर की संगति से अनन्तकाल के लिए अलग भी न हो, परमेश्वर ने जो समाधान दिया, उसके लिए सभी मनुष्यों के लिए उनके पापों को अपने ऊपर उठा लेने और उन पापों के दण्ड को उनके स्थान पर सहन कर लेने वाले ऐसे मनुष्य की आवश्यकता थी, जो पृथ्वी पर ही जन्मा हो, जिसने अपने गर्भ में आने से लेकर अपनी मृत्यु तक अन्य मनुष्यों के समान ही हर परिस्थिति को सहन किया हो, और फिर भी उसने कभी कोई पाप नहीं किया हो। साथ ही इस मनुष्य में कुछ और विशेष गुण भी होने चाहिए थे; परमेश्वर को कोई ऐसा मनुष्य चाहिए था जिसका जीवन माता के गर्भ में आने के समय से ही पूर्णतः निष्पाप और निष्कलंक हो, इतना सामर्थी हो कि मृत्यु उसे वश में न रख सके, और इतना कृपालु हो कि मनुष्यों के पापों को स्वेच्छा से अपने ऊपर लेकर, उनके दण्ड को मनुष्यों के स्थान पर सह ले, और फिर प्रतिफल को मनुष्यों में सेंत-मेंत बाँट दे। केवल ऐसा मनुष्य ही पाप के दण्ड को सभी के लिए चुका सकता था, और मनुष्य को मृत्यु से स्वतंत्र कर के, उनका मेल-मिलाप परमेश्वर से करवा सकता था, अदन की वाटिका में खोई गई स्थिति को मनुष्यों के लिए वापस बहाल कर सकता था। अन्यथा, यदि उस मनुष्य में अपना स्वयं का कोई भी पाप होता, तो फिर वह जो भी बलिदान देता, जो भी कार्य करता, वह उसके अपने पाप के लिए ही होता; वह औरों के पाप के लिए अपना बलिदान नहीं दे सकता था।
किन्तु ऐसा पूर्णतः सिद्ध मनुष्य, पाप में पतित मनुष्यों में से आ पाना संभव नहीं था, क्योंकि आदम और हव्वा के पाप के बाद से प्रत्येक मनुष्य पाप के स्वभाव के साथ ही अपनी माता के गर्भ में आता है और शिशु अवस्था से ही पाप की प्रवृत्ति को प्रकट करता रहता है। इसलिए मनुष्यों की प्रणाली के अनुसार माता के गर्भ में पड़ने और जन्म लेने वाला कोई भी मनुष्य पूर्णतः निष्पाप, पवित्र, और निष्कलंक, इस बलिदान के लिए सिद्ध नहीं ठहर सकता। इसीलिए, उत्पत्ति 3:15 में परमेश्वर ने जब इस उद्धारकर्ता की भविष्यवाणी की, तो उसे “स्त्री के वंश” का बताया; अर्थात, वह मनुष्यों के प्रणाली के अनुसार, किसी पुरुष के कारण माता के गर्भ में नहीं आएगा, वरन केवल स्त्री से ही होगा। इसी लिए यह करने के लिए परमेश्वर ने एक कुँवारी, मरियम को चुना, और उसे बताया गया कि पवित्र आत्मा की सामर्थ्य के द्वारा परमेश्वर उसकी कोख में एक आश्चर्यकर्म करेगा; उसमें से सारे जगत का उद्धारकर्ता जन्म लेगा, और मरियम ने अपने आप को प्रभु परमेश्वर के कार्य के लिए समर्पित कर दिया (लूका 1:26-38)। मरियम की स्वीकृति के बाद, परमेश्वर ने इस महान कार्य के लिए तैयार की गई एक विशेष देह (इब्रानियों 10:5) को मरियम की कोख में डाला। वहाँ वह मरियम की कोख में किसी भी अन्य मनुष्य के समान विकसित हुआ, और समय के अनुसार प्रभु यीशु मसीह ने एक शिशु के रूप में जन्म लिया। उनके गर्भ में आने के समय से लेकर के उनके पृथ्वी के जीवन पर्यंत वे निष्पाप, निष्कलंक, पवित्र, और सिद्ध रहे; उनकी देह में मनुष्य के किए गए पाप का प्रभाव नहीं था।
न केवल प्रभु यीशु के मनुष्य बनने की प्रक्रिया पाप के प्रभाव से अछूती थी, वरन उनका जीवन भी पूर्णतः पाप से अछूता था “और तुम जानते हो, कि वह इसलिये प्रगट हुआ, कि पापों को हर ले जाए; और उसके स्वभाव में पाप नहीं” (1 यूहन्ना 3:5); “न तो उसने पाप किया, और न उसके मुंह से छल की कोई बात निकली” (1 पतरस 2:22)। प्रभु यीशु ने अपनी आलोचना करने वालों को खुली चुनौती दी, “तुम में से कौन मुझे पापी ठहराता है? और यदि मैं सच बोलता हूं, तो तुम मेरी प्रतीति क्यों नहीं करते?” (यूहन्ना 8:46)। वह हमेशा, सभी का भला करता और परमेश्वर के राज्य की शिक्षा देता हुआ स्थान-स्थान पर जाता रहा, लोगों से मिलता रहा, “कि परमेश्वर ने किस रीति से यीशु नासरी को पवित्र आत्मा और सामर्थ्य से अभिषेक किया: वह भलाई करता, और सब को जो शैतान के सताए हुए थे, अच्छा करता फिरा; क्योंकि परमेश्वर उसके साथ था” (प्रेरितों 10:38)।
उस समय के धर्म के अगुवे – फरीसी, शास्त्री, सदूकी, व्यवस्थापक, आदि, उसे पसंद नहीं करते थे, क्योंकि वह सत्यवादी एवं स्पष्टवादी था, और उनके दोगलेपन को तथा स्वार्थ के लिए उनके द्वरा परमेश्वर के वचन के दुरुपयोग को खुलकर प्रकट कर देता था। किन्तु फिर भी वे उसके विषय जानते और समझते थे कि परमेश्वर उसके साथ है, और वह परमेश्वर की ओर से बोलता तथा कार्य करता है, और उसकी इस बात को स्वीकार करते थे: “फरीसियों में से नीकुदेमुस नाम एक मनुष्य था, जो यहूदियों का सरदार था। उसने रात को यीशु के पास आकर उस से कहा, हे रब्बी, हम जानते हैं, कि तू परमेश्वर की ओर से गुरु हो कर आया है; क्योंकि कोई इन चिन्हों को जो तू दिखाता है, यदि परमेश्वर उसके साथ न हो, तो नहीं दिखा सकता” (यूहन्ना 3:1-2); “सो उन्होंने अपने चेलों को हेरोदियों के साथ उसके पास यह कहने को भेजा, कि हे गुरु; हम जानते हैं, कि तू सच्चा है; और परमेश्वर का मार्ग सच्चाई से सिखाता है; और किसी की परवाह नहीं करता, क्योंकि तू मनुष्यों का मुंह देखकर बातें नहीं करता” (मत्ती 22:16)। किन्तु साथ ही, प्रभु यीशु के विषय यह जानते-मानते हुए भी वे उससे शत्रुता रखते थे, उसे पत्थरवाह करना चाहते थे “यहूदियों ने उसको उत्तर दिया, कि भले काम के लिये हम तुझे पत्थरवाह नहीं करते, परन्तु परमेश्वर की निन्दा के कारण और इसलिये कि तू मनुष्य हो कर अपने आप को परमेश्वर बनाता है” (यूहन्ना 10:33)।
उसकी सच्चाई को जानते हुए भी उन्होंने उसे मार डालने का षड्यंत्र बनाया, क्योंकि उसकी ख्याति के कारण उन्हें अपनी कुर्सी हिलती हुए दिखने लगी थी “इस पर महायाजकों और फरीसियों ने मुख्य सभा के लोगों को इकट्ठा कर के कहा, हम करते क्या हैं? यह मनुष्य तो बहुत चिन्ह दिखाता है। यदि हम उसे यों ही छोड़ दे, तो सब उस पर विश्वास ले आएंगे और रोमी आकर हमारी जगह और जाति दोनों पर अधिकार कर लेंगे। तब उन में से काइफा नाम एक व्यक्ति ने जो उस वर्ष का महायाजक था, उन से कहा, तुम कुछ नहीं जानते। और न यह सोचते हो, कि तुम्हारे लिये यह भला है, कि हमारे लोगों के लिये एक मनुष्य मरे, और न यह, कि सारी जाति नाश हो” (यूहन्ना 11:47-50)।
प्रभु यीशु का जन्म और जीवन, निष्पाप, निष्कलंक, पवित्र, और सिद्ध था; और वह अपने अनुयायियों को भी अपने इसी स्वरूप में ढालता चला जाता है “...तो प्रभु के द्वारा जो आत्मा है, हम उसी तेजस्वी रूप में अंश अंश कर के बदलते जाते हैं” (2 कुरिन्थियों 3:18); परमेश्वर पिता प्रभु यीशु के सभी शिष्यों, मसीही विश्वासियों को, अपने पुत्र, प्रभु यीशु के स्वरूप में देखना चाहता है, “क्योंकि जिन्हें उसने पहिले से जान लिया है उन्हें पहिले से ठहराया भी है कि उसके पुत्र के स्वरूप में हों ताकि वह बहुत भाइयों में पहलौठा ठहरे” (रोमियों 8:29)। प्रभु यीशु न तो कोई धर्म देने आया, न अपने शिष्यों से चाहा कि वे उसके नाम में कोई धर्म आरंभ करें, या लोगों का धर्म परिवर्तन करें। वह पापी मनुष्यों के मन और जीवन को बदलने, उन्हें अपने स्वर्गीय स्वरूप और स्वभाव में ढालने, और परमेश्वर के साथ रहने वाले बनाने के लिए आया। और यह किसी धार्मिक प्रक्रिया अथवा कर्म-कांड के द्वारा नहीं, प्रभु यीशु में विश्वास, पापों के लिए पश्चाताप, और प्रभु के प्रति समर्पण करने के द्वारा संभव है।
यदि आप ने अभी भी नया जन्म, उद्धार नहीं पाया है, अपने पापों के लिए प्रभु यीशु से क्षमा नहीं मांगी है, तो अभी आपके पास अवसर है। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपको जगत के न्याय से बचाकर स्वर्ग की आशीषों का वारिस बना देगा। क्या आप आज, अभी यह निर्णय लेंगे?
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Understanding Sin and Salvation – 15
The Solution For Sin - Salvation - 12
Sinless, Spotless Life of the Lord Jesus
We have started to consider the third and most important question about salvation, “Why was it so necessary for this that Lord God Jesus Christ Himself had to leave heaven, and come down to earth to be sacrificed?” For the dilemma created by the sin of Adam and Eve for God, that sin should be punished, but that man should not be eternally separated from His fellowship, i.e., suffer death, the solution that God gave required a man, who is born on earth, has endured every circumstance as any other person from his conception to his death and yet has never sinned, and who would be willing to take the sins of all mankind upon himself, bear the punishment of those sins in their place. Besides, this man should have some other special qualities as well; God required a man who was completely sinless and spotless from the time he came into his mother's womb; so powerful that death cannot subdue him, and be so gracious that he would willingly take the sins of man upon himself, bear their punishment in the place of man and then freely distribute the rewards among men. Only such a man could bear the punishment of sin for all of mankind, free man from death, and reconcile them to God, thereby restoring back to man the state he lost in the Garden of Eden. If that man had any sin of his own, then whatever sacrifice he would have made, whatever work he would have done, it would have been only for his own sin; he could not have sacrificed himself for the sin of others.
But it was not possible for such a perfect man to come from among men already impure because of sin. Since the sin of Adam and Eve, every man comes into his mother's womb with the sin nature and continues to manifest the tendency of sin from infancy till death. Therefore, according to the manner of men, no man who is naturally conceived in a mother’s womb and is born can be perfect for this sacrifice, since he cannot ever be completely sinless, holy, and unblemished since conception. That is why, when God foretold this Savior in Genesis 3:15, he described him as "the seed of the woman”; i.e., he will only be born from the woman as all others are, but will not come into the womb of the mother because of a man, as is the natural manner of men. That is why God chose a virgin, Mary, to do this, and she was told that by the power of the Holy Spirit, God would do a miracle in her womb; through her the Savior of the whole world would be born, and Mary submitted herself to the work of the Lord God (Luke 1:26-38). After Mary's approval, God put a special body prepared for this great work into Mary's womb (Hebrews 10:5). From then onwards, developing like any other human being in Mary's womb, at the fulfillment of time, the Lord Jesus Christ was born as an infant. Since the time He came into her womb till he lived His life on earth, He remained sinless, spotless, holy, and perfect; His body was not influenced by the sin committed by man.
Not only was the process of the Lord Jesus becoming man untouched by the influence of sin, but His life was also completely untouched by sin. “And you know that He was manifested to take away our sins, and in Him there is no sin.” (1 John 3:5); “Who committed no sin, Nor was deceit found in His mouth” (1 Peter 2:22). The Lord Jesus openly challenged those who criticized Him, “Which of you convicts Me of sin? And if I tell the truth, why do you not believe Me?” (John 8:46). He always did good to all, and went from place to place, meeting the people, teaching them about God's kingdom, “how God anointed Jesus of Nazareth with the Holy Spirit and with power, who went about doing good and healing all who were oppressed by the devil, for God was with Him” (Acts 10:38).
The religious leaders of that time — the Pharisees, the Scribes, the Sadducees, the Lawyers, etc., did not like him, because he was honest and forthright, always spoke the truth and openly exposed their duplicity and their abuse of God's Word for their own selfish motives. But yet they well knew, accepted, and understood of Him that God was with Him, and that He spoke and worked on behalf of God: “There was a man of the Pharisees named Nicodemus, a ruler of the Jews. This man came to Jesus by night and said to Him, "Rabbi, we know that You are a teacher come from God; for no one can do these signs that You do unless God is with him” (John 3:1-2); “And they sent to Him their disciples with the Herodians, saying, "Teacher, we know that You are true, and teach the way of God in truth; nor do You care about anyone, for You do not regard the person of men” (Matthew 22:16). Despite knowing and acknowledging this about the Lord Jesus, they hated Him, and wanted to stone Him. “The Jews answered Him, saying, "For a good work we do not stone You, but for blasphemy, and because You, being a Man, make Yourself God” (John 10:33).
Although they knew the truth about Him, still they conspired to kill Him, because of His name and fame was shaking their thrones, “Then the chief priests and the Pharisees gathered a council and said, "What shall we do? For this Man works many signs. If we let Him alone like this, everyone will believe in Him, and the Romans will come and take away both our place and nation." And one of them, Caiaphas, being high priest that year, said to them, "You know nothing at all, nor do you consider that it is expedient for us that one man should die for the people, and not that the whole nation should perish."” (John 11:47-50).
The conception, birth, and the life of the Lord Jesus, was sinless, spotless, holy, and perfect; and He transforms his disciples too into His likeness “...are being transformed into the same image from glory to glory, just as by the Spirit of the Lord.” (2 Corinthians 3:18); God the Father, wants to see all the disciples of the Lord Jesus, the Christian Believers, in the image of His Son, the Lord Jesus, “For whom He foreknew, He also predestined to be conformed to the image of His Son, that He might be the firstborn among many brethren” (Romans 8:29). Jesus did not come to give any religion, nor did he want His disciples to introduce a religion in His name, or to convert the religion of people. He came to change the minds and lives of sinful men, to convert them into His heavenly nature and behavior, and to change them into those who will live with God. And this is possible not through any religion, religious process or ritual, but through faith in the Lord Jesus, repentance for sins, and submission to the Lord.
If you have still not been Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart and with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible or not, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.