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आरम्भिक बातें – 90
विश्वासियों का न्याय – 4
पिछले कुछ लेखों से हम इब्रानियों 6:1-2 में दी गई आरम्भिक बातों में से छठी, “अन्तिम न्याय” पर विचार कर रहे हैं। हम देख चुके हैं कि यह न्याय अवश्यंभावी है, यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित है, और प्रभु यीशु को न्यायी नियुक्त किया जा चुका है, अब केवल उस समय की प्रतीक्षा है जब लोगों को न्याय के लिए बुलाया जाएगा, और उनका न्याय किया जाएगा। हमने यह भी देखा है कि यह न्याय अन्तिम है, इसके परिणाम को कभी बदला नहीं जाएगा, और जिसे जहाँ भेजा गया है, वह वहीं पर हमेशा-हमेशा के लिए रहेगा। हर एक व्यक्ति के लिए अनन्तकाल के स्थान या तो स्वर्ग है अथवा नरक है – इन दोनों के अतिरिक्त कोई स्थान नहीं है; और कौन किस स्थान पर जाएगा, इसका निर्धारण हर व्यक्ति के द्वारा यहीं पृथ्वी पर ही किया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति के अपने चुनाव के अनुसार, यदि उसने अपने पापों से पश्चाताप कर के प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण कर लिया है तो वह स्वर्ग जाएगा; और यदि उसने परमेश्वर द्वारा उसे उपलब्ध करवाई गई पापों की क्षमा और उद्धार का तिरस्कार कर दिया है, तो फिर उनके अपने चुनाव के अनुसार, उन्हें परमेश्वर से विहीन स्थान पर, अर्थात नरक में भेज दिया जाएगा – सदा काल के लिए। वर्तमान में हम बाइबल के इस तथ्य पर विचार कर रहे हैं कि क्योंकि अविश्वासियों को, उद्धार नहीं पाए हुओं को पहले ही सर्वाधिक सम्भव दण्ड – हमेशा के लिए नरक में भेजा ही जा चुका है, इसलिए उन्होंने पृथ्वी पर और जो कुछ भी किया हो, उसके लिए उनका न्याय करने का क्या औचित्य होगा; क्योंकि उन्होंने चाहे जैसा भी जीवन जिया हो, उनके नरक के दण्ड पर तो उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। लेकिन वास्तव में नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों को परिणाम और प्रतिफल मिलने हैं, जो उनके द्वारा उद्धार पाने के बाद के जीवन पर आधारित होंगे। इसलिए यह सुनिश्चित करने के लिए कि किसे क्या और कितना मिलेगा, उनके जीवनों की बारीकी से जाँच-पड़ताल होगी, ‘न्याय’ होगा और फिर उस के अनुसार प्रत्येक को उस के परिणाम और प्रतिफल दिए जाएँगे।
इसलिए, जैसा हमने पिछले लेख के अन्त की ओर कहा था, न्याय व्यक्ति के स्वर्ग अथवा नरक जाने को निर्धारित करने के लिए नहीं होगा, क्योंकि यह बात तो पहले ही यहीं पृथ्वी पर निर्धारित हो चुकी है। वरन न्याय मसीही विश्वासियों का होगा, यह निर्धारित करने के लिए कि उन्हें परमेश्वर से अनन्तकाल के लिए क्या मिलना चाहिए। यह एक ऐसी धारणा है जिस पर सामान्यतः लोगों ने विचार नहीं किया है, क्योंकि सामान्यतः न्याय के साथ बुराई और गलत बातों को जोड़ दिया जाता है। इसीलिए हम परमेश्वर के वचन से इस दावे की पुष्टि करने के लिए समय बिता रहे हैं, यह दिखाने के लिए कि यह कोई अटकलबाज़ी नहीं है, कोई मन-गढ़न्त बात नहीं है, बल्कि परमेश्वर के वचन का एक ठोस और स्थापित सत्य है; चाहे प्रचलित धारणाओं और पूर्वाग्रह के कारण इसे पहचाना और माना नहीं गया है। आज से हम बाइबल के कुछ उदाहरणों को देखना आरम्भ करेंगे जो यह दिखाते हैं कि न्याय विश्वासियों का है, और अविश्वासियों तथा उद्धार न पाए हुओं के लिए पहले से ही अनन्त विनाश तय है।
प्रभु यीशु ने एक दृष्टान्त दिया था, जिसे गेहूं और जंगली बीज का दृष्टान्त कहते हैं, जो मत्ती 13:24-30, 36-43 में पाया जाता है; इस दृष्टान्त का पहला भाग दृष्टान्त का लेख है, और दूसरा भाग प्रभु द्वारा अपने शिष्यों को दी गई उस दृष्टान्त की व्याख्या है। दृष्टान्त संक्षेप में यह है कि शत्रु ने एक खेत में, खेत के स्वामी के सेवकों को पता लगने दिए बिना, चुपके और चालाकी से गेहूं के मध्य जंगली बीज भी बो दिए। जब पौधे उगे तो पता चलने लगा कि कौन सा गेहूँ का और कौन सा जंगली बीज का पौधा है। सेवक जंगली बीज के पौधों को उखाड़ना चाहते थे, किन्तु खेत के स्वामी ने उन्हें रोक कर रखा, कि कहीं वे गेहूं के पौधों की कोई हानि न कर दें। फसल की कटनी के समय जंगली बीज के पौधों को गेहूं से अलग कर दिया गया, और जंगली बीज के पौधों को जलाए जाने के लिए भेज दिया गया; तथा गेहूँ को स्वामी के खत्ते में भेज दिया गया। हमारे वर्तमान अध्ययन के लिए जो बात महत्वपूर्ण है, वह है कि जंगली बीजों की नियति पहले से ही निर्धारित थी। क्योंकि उन्हें गेहूं के साथ उगने और बढ़ने दिया गया, गेहूं के समान ही उनकी भी देखभाल और सुरक्षा हुई, इसलिए इन बातों का यह अर्थ नहीं था कि वे स्वामी को स्वीकार्य और उस के योग्य मान लिए गए हैं। कटनी के समय, उनका अन्त प्रकट हो गया; उनकी कोई जाँच-पड़ताल, कोई न्याय नहीं हुआ; उन्हें केवल सीधे दण्ड दिया गया; हर प्रकार और आकार के जंगली बीज के पौधे का एक ही अन्त था – बाँध कर आग में फेंका जाना।
लेकिन खत्ते में गेहूं के साथ क्या किया गया? यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने प्रभु यीशु के लिए अपने परिचय में, कहा था, “उसका सूप उस के हाथ में है, और वह अपना खलिहान अच्छी रीति से साफ करेगा, और अपने गेहूं को तो खत्ते में इकट्ठा करेगा, परन्तु भूसी को उस आग में जलाएगा जो बुझने की नहीं” (मत्ती 3:12)। प्रभु यीशु अपने खलिहान को अच्छे से साफ करेगा, और गेहूं को भूसी से अलग करेगा, और फिर भूसी को जलाए जाने के लिए, तथा गेहूं को, वह दाना जिसमें आटा है जो ठोस है, उसे अपने खत्ते में भेज देगा। “भूसी” का अर्थ वह सामग्री जैसे कि दाने के छिलके, तिनके, पत्तों के टुकड़े आदि, होता है जो कटाई के समय गेहूं के साथ आ जाते हैं लेकिन जिन्हें गेहूं के दाने से अलग करना होता है; अर्थात वे गेहूं के साथ तो होते हैं, किन्तु गेहूं नहीं होते हैं। जब यह बात लिखी गई थी, तब उन दिनों में यह अलग करना कैसे किया जात था – कटनी से आए हुए गेहूं के ऊपर बैलों से दाँवने के द्वारा (1 कुरिन्थियों 9:9) जो गेहूं के दाने के लिए एक बहुत कष्टपूर्ण और लंबे परिश्रम का काम होता था। तो इस प्रकार से कटनी के बाद, काटे हुए गेहूँ को बैलों के पैरों से कुचले जाने के लिए भेज जाता है, फिर उसे सूप में फटक कर साफ किया जाता है, और तब गेहूं के दाने को अयोग्य भूसी से अलग करके खत्ते में भेजा जाता है। हमारे सन्दर्भ के अनुसार, कटनी किए हुए गेहूं को जाँचा जाता है, उसका आँकलन होता है, उसे परखा जाता है, और फिर केवल वही जो योग्य और उपयुक्त है, उसे ही प्रतिफल के साथ स्वामी के खत्ते में भेजा जाता है, शेष सभी को जला दिया जाता है।
हमने अभी जिन चरणों और कार्यों को देखा है, उन्हें दोहरा लेते हैं: गेहूं और जंगली बीज, कटनी के बाद कौन कहाँ जाएगा, यह कटनी से पहले उनके खेत में होने के समय पर ही हमेशा के लिए निर्धारित हो गया था; विश्वासियों तथा अविश्वासियों की अन्तिम दशा यहीं पृथ्वी पर ही अनन्तकाल के लिए निर्धारित हो जाती है, और वह कभी नहीं बदलती। कटनी के बाद जंगली बीज का फिर कोई आँकलन नहीं हुआ, उसे सीधे जलने के लिए भेज दिया गया; अविश्वासियों का कोई आँकलन, कोई न्याय नहीं है, वे सीधे नरक में डाले जाएँगे। काटे गए गेहूं को खलिहान में लाया जाता है, उस पर काम कर के दाने को भूसी से अलग कर के साफ किया जाता है, और केवल गेहूं के दाने ही खत्ते में जाते हैं, शेष भूसी को जलाने के लिए भेज दिया जाता है; विश्वासियों की भी बारीकी से जाँच-पड़ताल की जाएगी, फिर उस आँकलन के अनुसार प्रभु द्वारा उन्हें दिए गए परिणाम और प्रतिफलों के साथ स्वर्ग में रखा जाएगा। न्याय या जाँचा जाना, कटनी से आए हुए गेहूं का है, न कि जंगली बीजों का; न्याय और उसके अनुसार परिणाम और प्रतिफल विश्वासियों के लिए हैं, न कि अविश्वासियों, उद्धार नहीं पाए हुओं के लिए।
अगले लेख में हम विश्वासियों का न्याय होने के हमारे दावे की पुष्टि करने वाले बाइबल के अन्य उदाहरणों को देखेंगे ।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 90
Judgment of Believers – 4
For the past few articles, we have been considering about “Eternal Judgment,” the sixth elementary principle given in Hebrews 6:1-2. Having seen that the judgment is inevitable, it has been determined by God, and the Lord Jesus has already been appointed as the judge, it is now only a matter of time, when God calls the people to be judged. We have seen that the judgment is last and final, there never will be any change in the judgment, and everyone will remain in their place forever and ever. The eternal place of every person, heaven or hell – there being no other place, and who will go where is determined by every individual while they are here on earth. As per everyone’s choice, if they have repented of their sins and accepted the Lord Jesus as their savior, they will go to heaven; if they have rejected the salvation and forgiveness of sins made available to them by God, while they are on earth, then as per their choice, they will go to the place away from God, i.e., to hell – permanently. Presently we are considering the Biblical fact that since the unbelievers, the unsaved are already condemned to the maximum possible punishment, i.e., hell forever, therefore, it makes no sense to judge them for whatever kind of life they might have lived on earth, since it will not alter anything for them regarding hell. But the truly Born-Again Christian Believers, have to receive rewards and consequences for the lives they have lived after being saved. To determine who will get what and how much, their lives will have to be thoroughly evaluated, i.e., “judged” and then accordingly, each one will be given their rewards and consequences.
So, as we had stated towards the end of the last article, the judgment will not be to determine heaven or hell, since that has already been determined while people are here on earth; rather, the judgment will be of the Christian Believers to determine what they ought to receive for eternity from God. This concept is something that people have not usually thought about, since judgment in common usage is usually associated with evil and wrong things, therefore, we are spending time learning from God’s Word that this assertion is not conjecture, is not a contrived teaching, but an established, solid fact of God’s Word, although it has not been recognized, due to the prevalent preconceived notions and bias. From today we will begin looking at some Biblical examples that affirm this judgement of Believers, and pre-determined eternal condemnation of the unbelievers and unsaved.
The Lord Jesus gave a parable, known as the Parable of the wheat and the tares, found in Matthew 13:24-30, 36-43; the first passage is the parable, and the second passage is the Lord’s explanation of the parable to His disciples. The gist of the parable is that an enemy cunningly, without the laborers in the field realizing about it, sowed in tares amongst the wheat that had been sown in a field. When the plants came up, and the wheat and the tares became evident, the laborers wanted to pluck out the plants of the tares, but the owner of the field held them back, lest they damage the wheat plants also. At harvest time, the tares and the wheat were separated, and the tares were sent to be burnt up, while the wheat was sent to the barn. What is of relevance for our present study is that the fate of the tares was decided from the beginning. Just because they were allowed to grow with the wheat, and received the same care and protection as was given to the wheat did not mean the tares had been accepted and considered worthy. At harvest time, the end became evident; there was no judgment, only punishment; i.e., not ascertaining of the severity or amount of punishment to be given – all the tares, small or big, had only one thing for them – bound up into one and sent to be burnt.
But then, how was the wheat received in the barn? John the Baptist, in his introduction about the Lord Jesus, had said, “His winnowing fan is in His hand, and He will thoroughly clean out His threshing floor, and gather His wheat into the barn; but He will burn up the chaff with unquenchable fire” (Matthew 3:12). The Lord Jesus will thoroughly clean out His threshing floor, and separate the chaff from the wheat, send the chaff to be burnt and then gather the actual wheat with flour or substance in it into His barn. The word “chaff” means “Material consisting of seed coverings and small pieces of stem or leaves that have to be separated from the seeds.” In other words, it is something that comes up with the harvested grain, but is not the actual grain. How was this separation of the grain and chaff done at that time – by letting the oxen tread over the harvested grain (1 Corinthians 9:9) – quite a painful and laborious process for the wheat grain. So, that which is harvested as grain, is sent for being treaded under the feet of the oxen, then sifted and cleaned, the actual wheat grain is separated from the unworthy chaff, and this harvested grain, which after harvesting has been separated and cleansed, only then is it sent to the barn. From our context, the harvested grain is checked, evaluated, and judged, and only that which is worthy goes into the barn, the rest is sent for burning.
Review and ponder over the stages we have just seen – wheat and tares – their permanent place after the harvest is determined while they are in the field, and it does not change; the eternal destiny of the Believers and unbelievers is determined while on earth, and never changes. After harvesting, the tares are sent without any further evaluation for burning; the unbelievers without any further assessment will be sent to hell. The harvested wheat is taken to the barn, is worked upon to separate the chaff from the wheat, and only the actual wheat is taken to the barn; the believers will be thoroughly evaluated and judged and then rewarded accordingly by the Lord Jesus Himself. The judgment for being stored in the barn is of the harvested wheat, not of the tares; the judgment for being rewarded in heaven is of the Believers, not the unbelievers and unsaved.
In the next article we will look at some other Biblical examples that further affirm this assertion that the judgment is of the Believers.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.