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आरम्भिक बातें – 65
हाथ रखना – 13
इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छः आरम्भिक बातों में से चौथी, “हाथ रखना” पर ज़ारी हमारे इस अध्ययन में पिछले लेख में हमने कुछ समुदायों और डिनॉमिनेशनों द्वारा प्रचार की और सिखाई जाने वाली इस झूठी शिक्षा और गलत सिद्धान्त के अध्ययन का समापन किया था कि पवित्र आत्मा प्रेरितों या कलीसिया के प्राचीनों के द्वारा हाथ रखे जाने से दिया जाता है, जो बाइबल के अनुसार सही नहीं है। ये लोग इस गलत शिक्षा को प्रेरितों 8:17; 9:17; और 19:6 की गलत व्याख्या के आधार पर देते हैं। हमने बाइबल की अन्य सम्बन्धित बातों को देखा और समझा था, और फिर इन तीनों पदों पर उन बातों के सन्दर्भ में विचार किया था, और समझा था कि इन तीन पदों में जो हाथों का रखा जाना है वह पवित्र आत्मा देने के उद्देश्य से नहीं, बल्कि उन लोगों के प्रति एकता, मिलाप, और कलीसिया की सहभागिता में सम्मिलित होना व्यक्त करने के लिए था, जिन्हें उस समय का यहूदी समाज अपने से अलग रखता था, अपने से नीचा समझता था। इन लोगों की परमेश्वर के परिवार में, प्रभु की कलीसिया में स्वीकृति की पुष्टि परमेश्वर ने उन्हें पवित्र आत्मा देने के द्वारा प्रकट की, और उन्हें बिना किसी भी प्रकार के भेदभाव के अन्य सभी के समान विश्वासी व्यक्त कर दिया। यह किया जाना अनिवार्य था, ताकि कलीसिया को एक सार्वभौमिक, विभाजित न हो सकने वाली इकाई रखा जाए, बजाए इसके कि वह जाति और सांस्कृतिक भिन्नताओं आदि के कारण टूट कर बिखर जाए।
“हाथ रखने” पर हमारे अध्ययन के आरंभ में, और बीच में भी, यह कहा गया था कि कुछ समुदायों और डिनॉमिनेशनों के लिए इस वाक्यांश का बस यही अर्थ है कि यह नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को दिए जाने वाले बपतिस्मे को पूरा करने वाली अन्तिम प्रक्रिया है, अर्थात, बपतिस्मे के बाद कलीसिया के अगुवे बपतिस्मा लेने वाले पर हाथ रख कर प्रार्थना करते हैं और इस के बाद बपतिस्मा पूर्ण हो जाता है। यदि आप उन से पूछें कि ऐसा क्यों किया जाता है, और इस का क्या महत्व है, तो उन का इतना ही उत्तर होता है कि क्योंकि बाइबल ऐसा करने की शिक्षा देती है, इस लिए हम बाइबल की आज्ञाकारिता में ऐसा करते हैं। लेकिन बाइबल में ऐसा कहाँ लिखा है? इस के लिए वे उसी भाग का छोटा सा अंश दिखा देते हैं, हम जिस का अध्ययन कर रहे हैं, वे इब्रानियों 6:2 में से “बपतिस्मों और हाथ रखने” को दिखाते हैं और कहते हैं कि परमेश्वर ने अपने वचन में यह लिखा है कि बपतिस्मे के बाद हाथ रखना है। किन्तु यदि यह तर्क सही है तो फिर शेष दोनों बातों “मरे हुओं के जी उठने, और अन्तिम न्याय” को भी तुरन्त ही क्यों नहीं किया जाता है? इस का उनके पास कोई उत्तर नहीं है। जैसा कि हम इब्रानियों 6:1-2 की इन छः आरम्भिक बातों के बारे में आरम्भ के लेखों में देख चुके हैं, ये बातें छः शिक्षाएँ हैं जिन्हें प्रत्येक मसीही विश्वासी को जानना और सीखना चाहिए ताकि उसे अपने विश्वास के लिए एक दृढ़ और स्थिर नींव मिल सके और वह शैतान की युक्तियों का सामना कर सके। ये बातें छः कार्य नहीं हैं, जिन्हें एक के बाद एक, इसी क्रम में किया जाना है जिस से कि परमेश्वर की दृष्टि में सही ठहरें।
क्या परमेश्वर के वचन के अन्य भाग इस तर्क का समर्थन करते हैं कि क्योंकि इब्रानियों 6:2 में बपतिस्मों के बाद हाथ रखने का उल्लेख किया गया है, इस लिए प्रत्येक बपतिस्मे के बाद कलीसिया के अगुवों के द्वारा बपतिस्मा पाने वाले व्यक्ति पर हाथ रखे जाने चाहिएँ? जब हम बाइबल में बपतिस्मा दिए जाने की विभिन्न घटनाओं को देखते हैं, तो पाते हैं कि एक के अतिरिक्त, जहाँ पौलुस ने यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के अनुयायियों पर, उनके मसीही विश्वासी बनने के बाद बपतिस्मा लेने, के बाद उन पर हाथ रखा था (प्रेरितों 19:1-6), और कहीं पर भी किसी भी व्यक्ति के बपतिस्मा लेने के बाद उस पर हाथ नहीं रखे गए। और, जैसा हम पिछले लेख में देख चुके हैं, पौलुस द्वारा उन विश्वासियों पर हाथ रखना उन के साथ एकता, मिलाप, उनका कलीसिया में स्वागत व्यक्त करने के लिए था, न कि बपतिस्मे की प्रक्रिया की किसी निर्धारित अथवा मन-गढ़न्त रस्म के निर्वाह के लिए। इस बात को, बाइबल में दिए गए बपतिस्मों पर, क्रमवार एक नज़र डाल कर देख लेते हैं:
· मत्ती 3 – यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने मन-फिराने वाले लोगों को बपतिस्मा दिया, किन्तु कहीं कोई उल्लेख नहीं है कि उस ने या उस के अनुयायियों ने फिर उन पर हाथ भी रखे थे।
· यूहन्ना 1 – यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने प्रभु यीशु को बपतिस्मा दिया, किन्तु किसी ने भी प्रभु पर हाथ नहीं रखे, यद्यपि प्रभु ने यह कह कर यूहन्ना से बपतिस्मा लिया था कि “अब तो ऐसा ही होने दे, क्योंकि हमें इसी रीति से सब धामिर्कता को पूरा करना उचित है” (मत्ती 3:15) – यदि बपतिस्मा लेने के बाद हाथ रखना अनिवार्य होता तो फिर इस धार्मिकता को प्रभु के लिए पूरा क्यों नहीं किया गया?
· यूहन्ना 4:1-2 – प्रभु के शिष्य, प्रभु की जानकारी में बपतिस्मा देते थे, किन्तु उन के द्वारा किसी पर हाथ रखने का कोई उल्लेख नहीं है, और न ही प्रभु ने इस बात के लिए उन्हें टोका कि वे बपतिस्मा देने के बाद हाथ क्यों नहीं रख रहे हैं।
· मत्ती 28:19-20 – अपनी महान आज्ञा में, यहाँ पर तथा अन्य स्थानों पर भी, यद्यपि प्रभु ने विश्वास करने वालों को बपतिस्मा देने के लिए कहा परन्तु यह कहीं पर नहीं कहा कि बपतिस्मे के बाद उन पर हाथ भी रखा जाना है।
· प्रेरितों 2:41-42 – जब पर्व मनाने के लिए आए हुए भक्त यहूदियों ने पतरस का प्रवचन सुना, मन फिराया, और उन में से लगभग तीन हजार ने विश्वास किया, बपतिस्मा लिया और “वे प्रेरितों से शिक्षा पाने, और संगति रखने में और रोटी तोड़ने में और प्रार्थना करने में लौलीन रहे” किन्तु उन पर हाथ रखे जाने का कोई उल्लेख नहीं है।
· प्रेरितों 8:1-17 – फिलिप्पुस की सेवकाई के द्वारा, सामरियों में से बहुतों ने प्रभु में विश्वास किया और बपतिस्मा भी लिया; किन्तु उन के बपतिस्मा लेने के बाद उन पर हाथ रखे जाने का कोई उल्लेख नहीं है। बहुत बाद में, जब पतरस और यूहन्ना यरूशलेम से आए, तब उन्होंने उन पर हाथ रखे। और जैसा हम पिछले लेखों में देख चुके हैं, यह भी एकता, मिलाप, और परमेश्वर के परिवार, प्रभु की एक सार्वभौमिक कलीसिया में उनके स्वागत को व्यक्त करने के लिए था। पतरस और यूहन्ना ने उन पर हाथ बपतिस्मे की किसी रस्म को पूरा करने के लिए, जिसे फिलिप्पुस ने नहीं किया, नहीं रखे थे।
· प्रेरितों 8:36-39 – फिलिप्पुस की सेवकाई से कूश देश के खोजे ने प्रभु को ग्रहण किया, उस ने बपतिस्मा लिया, किन्तु उस के बपतिस्मे के बाद उस पर हाथ रखे जाने का कोई उल्लेख नहीं है।
· प्रेरितों 9:17-18 - प्रेरित पौलुस, जो उस समय ‘फरीसी शाऊल’ के नाम से जाना जाता था, ने प्रभु यीशु से दमिश्क के मार्ग पर भेंट होने के बाद प्रभु को ग्रहण किया। इन पदों को हम ने पिछले लेख में देखा है कि परमेश्वर ने उस के पास हनन्याह को भेजा, और उसने आ कर पौलुस पर हाथ रखे, एकता, मिलाप, और एकमात्र सार्वभौमिक कलीसिया में स्वागत को व्यक्त करने के लिए; इस के बाद पौलुस का बपतिस्मा हुआ। उस के बपतिस्मे के बाद उस पर फिर से हाथ रखे जाने का कोई उल्लेख नहीं है।
· 1 कुरिन्थियों 1:13-17 – पौलुस ने बपतिस्मे के बारे में शिक्षाएँ देते समय, उस के अथवा किसी अन्य के द्वारा हाथ रखे जाने से सम्बन्धित किसी शिक्षा का कोई उल्लेख नहीं किया।
· बपतिस्मे से सम्बन्धित अन्य महत्वपूर्ण खण्डों में, जैसे कि इफिसियों 4:5; कुलुस्सियों 2:12; 1 पतरस 3:21; आदि, कहीं पर भी साथ में हाथ रखे जाने के बारे में कुछ नहीं कहा गया है।
इस लिए, बाइबल का सन्देश प्रकट और स्पष्ट है कि बपतिस्मे के बाद हाथ रखना बाइबल का कोई स्थापित सिद्धान्त नहीं है, और न ही इब्रानियों 6:2 यह सिखाता है कि बपतिस्मे के बाद हाथ रखने चाहिएँ।
जैसा कि हमने पिछले लेखों में देखा है, हाथों का रखना एकता, मिलाप, व्यक्ति को संगति और सहभागिता में स्वीकार करना भी दिखाता है, और यह किसी दुःख-परेशानी में हो कर निकल रहे व्यक्ति को शान्ति अथवा सान्त्वना देने का भी सूचक है। यदि इन में से किसे भी, या इन सभी अर्थों को व्यक्त करने के लिए कलीसिया के अगुवे किसी पर हाथ रखते हैं, तो इसमें कुछ गलत नहीं है। किन्तु यह ईमानदारी और सार्थक रीति से किया जाना चाहिए, न कि किसी रस्म के निर्वाह के लिए, और न ही बपतिस्मे की प्रक्रिया को पूरा करने के उद्देश्य से। इसे यह कह कर नहीं सिखाया जाना चाहिए कि यह बपतिस्मे के बाद की जाने वाली रस्म है, बाइबल की शिक्षा और सिद्धान्त है।
हाथ रखने पर इस श्रृंखला में हम ने इस आरम्भिक बात के बारे में परमेश्वर के वचन बाइबल से बहुत सी बातें सीखी हैं; अर्थात, बाइबल में हाथ रखना कोई हल्की अथवा निरर्थक बात नहीं है, बल्कि इस के कई महत्वपूर्ण तात्पर्य हैं, और मसीही विश्वासियों को उनके बारे पता होना चाहिए। अगले लेख से हम छः में से पाँचवीं आरम्भिक बात, “मरे हुओं में से जी उठने” पर विचार करना आरम्भ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 65
Laying on of Hands - 13
In our on-going study on “Laying on of Hands,” the fourth of the six elementary principles given in Hebrew 6:1-2, in the previous article we had concluded our deliberations on the false teaching and wrong doctrine that some sects and denominations preach and teach on the basis of Acts 8:17; 9:17; 19:6 – that the Holy Spirit is given by the laying on of hands of the Apostles or Church Elders. We had considered various related Biblical things, and then considered these three verses in light of those related things, to understand how the laying on of hands mentioned in these three verses was not for the sake of giving the Holy Spirit, but to express unity, solidarity, and acceptance into the Church of people who were marginalized by the Jews of those times. Their acceptance into the family of God, into the Church was affirmed by God by the giving of the Holy Spirit to them, thereby making them equal to everyone else in the family of God and Church of the Lord Jesus, with no differentiation of any kind from anyone else. This was necessary to maintain the Church as one, universal, indivisible unit, instead of its getting broken into sects based on ethnic and cultural backgrounds and other criteria.
At the beginning of our study on “Laying on of Hands” and in between, it was stated that for some sects and denominations, all that this term means is the concluding activity of baptizing a Born-Again Christian Believer; i.e., after baptism, the Church Elders place their hands on the baptized person, pray for him, and that concludes the baptismal process. If you ask them why this is done; what is its significance; all they can say is because the Bible teaches it to be done, therefore, we do it in obedience to God’s Word. But where does the Bible teach this to be done? Their answer is a small portion of the same passage that we are studying; they quote a portion from Hebrews 6:2 “the doctrine of baptisms, of laying of hands” and claim that here God has put it in His Word that baptism has to be followed by the laying on of hands. But if this was true then why don’t the other two things, i.e., “resurrection from the dead, and of eternal life” mentioned in this verse also follow in the same quick succession? Why does the logic have to apply to only two things mentioned in this verse, and not to the others? They have no answer to that. As we have seen in the earlier articles on these six elementary principles given in Hebrews 6:1-2, these are six different principles that the Christian Believers are to learn about from God’s Word, to have a firm, unshakeable foundation against the wiles of the devil. These are not six activities that Christians have to carry out in the given sequence to justify them before God.
Do other portions of God’s Word support this argument that since in Hebrews 6:2, the laying on of hands is mentioned after baptisms, therefore, every baptism should be followed by the Elders of the Church laying their hands on the baptized person? As we study the various instances of baptisms given in God’s Word, except for one instance, of Paul laying hands on the followers of John the Baptist, after they became Believers in the Lord Jesus and were baptized (Acts 19:1-6), nowhere else has the laying on of hands after baptism ever been carried out. And, as we have seen in the previous article, the laying on of hands by Paul on those Believers, was an expression of unity, solidarity, and their acceptance into the family of God, into the Church of the Lord Jesus. By laying his hands on them, Paul was not fulfilling any prescribed or contrived baptismal ritual. Let us consider the baptisms mentioned in the Bible, in the sequence they occur:
· Matthew 3 – John the Baptist baptized the repentant, but there is no mention of laying on of hands on anyone after baptism by him, or any of his followers.
· John 1 – the Lord Jesus was baptized by John the Baptist, but no one laid hands Him, although Jesus took baptism from John saying “Permit it to be so now, for thus it is fitting for us to fulfill all righteousness” (Matthew 3:15) – if laying on of hands was part of baptism, then why was this ‘righteousness’ not fulfilled for the Lord Jesus as part of ‘fulfilling all righteousness’?
· John 4:1-2 – The Lord Jesus’s disciples baptized in the knowledge of the Lord, but there is no mention of any laying on of hands on anyone, nor of the Lord objecting why it was not being done by them.
· Matthew 28:19-20 – in the Great Commission, here and elsewhere, although the Lord does say that the new Believers are to be baptized, but nowhere did the Lord ask for laying on of hands was to be done after the baptism.
· Acts 2:41-42 – From the devout Jews assembled in Jerusalem for the feast, on hearing Peter’s sermon, about three thousand repented and were baptized, and then “they continued steadfastly in the apostles' doctrine and fellowship, in the breaking of bread, and in prayers” but there is no mention of any laying on of hands for them.
· Acts 8:1-17 – Through the ministry of Philip amongst them, the Samaritans believed in the Lord, and were baptized; but no laying on of hands on them immediately after baptism has been mentioned. It was much later, when Peter and John came from Jerusalem, that they laid hands upon them. And as we have recently seen, this was to express unity and solidarity with them, and to accept them into the one universal Church of God, into the family of God. The laying on of hands on them by Peter and John was not to complete any baptismal requirement that had been neglected by Philip.
· Acts 8:36-39 – Through the ministry of Philip, the Ethiopian Eunuch is converted, takes baptism, but there is no laying on of hands on him after his baptism.
· Acts 9:17-18 – The Apostle Paul, then known as ‘Saul the Pharisee’ is converted after meeting the Lord Jesus on the road to Damascus. In these verses, as we have seen in the last article, Ananias sent to him by God, comes, lays hands on him to express unity and solidarity with them, and to accept him into the one universal Church of God, into the family of God; and then Saul is baptized. There is no mention of any laying on of hands upon him once again, after his baptism.
· 1 Corinthians 1:13-17 – Paul, teaching about baptism, never mentions any teaching related to the laying on of hands practiced by him or others.
· In other important passages mentioning baptism, e.g. Ephesians 4:5; Colossians 2:12; 1 Peter 3:21; etc., nowhere has laying on of hands been mentioned along with baptism.
So, the Biblical message is quite evident and unambiguous – laying on of hands to be done after baptisms is not an established Biblical doctrine, and Hebrews 6:2 is not teaching that baptism should be followed by the laying on of hands by the Elders of the Church.
As we have seen the previous articles, the laying on of hands also conveys unity and solidarity, accepting the person into fellowship, standing with a person, and it can also be done to comfort and console someone going through troubling times. For conveying either or all of these meanings, if after baptism, the Elders lay their hands on the baptized person, there is nothing wrong in doing so. But then, it should be something done in sincerity, not to fulfill a ritual, or any supposed ‘baptismal requirement’ – which it is not. It should not be said or taught that laying on of hands after baptism is a Biblical teaching and doctrine.
Through this series on this elementary principle, we have seen and learnt many things from God’s Word the Bible; implying that the Laying on of hands in the Bible is not something trivial or inconsequential; rather it has many important meanings and implications, and the Christian Believers should be aware of them. From the next article we will begin considering the fifth of the six elementary principles, i.e., “resurrection of the dead.”
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.