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शनिवार, 24 अगस्त 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 169

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 14


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 1 - वचन (7) 



पिछले लेख में हमने देखा था कि शैतान, उसके दूतों, और उसकी युक्तियों पर विजयी रहने के लिए, हमें परमेश्वर के वचन बाइबल का उपयोग करना है, जैसा कि प्रभु यीशु ने अपनी परीक्षाओं के उदाहरण के द्वारा हमें दिखाया और सिखाया है साथ ही हमने पिछले लेख में यह भी देखा था कि उसके बच्चों, अर्थात वास्तव में नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों, प्रभु यीशु के सच्चे शिष्यों की सुरक्षा के लिए, परमेश्वर ने उन्हें आत्मिक हथियार या कवच भी दिया है (इफिसियों 6:13-17)। इन हथियारों में, एक को छोड़ कर बाकी सभी हथियार विश्वासी के बचाव, उसे सुरक्षित रखने के लिए हैं। इस कवच में केवल एक ही हथियार ऐसा है जिसे वार करने के लिए प्रयोग किया जा सकता है, वह है परमेश्वर का वचन, जिसे “आत्मा की तलवार” भी कहा गया है। तलवार को प्रभावी रीति से प्रयोग करने के लिए, उसे ठीक से  पकड़ना और चलाना भी आना चाहिए, अन्यथा वह व्यर्थ है। तलवार को हाथ से पकड़ा जाता है, और पकड़ जितनी मजबूत होगी, उसे उतने बेहतर और प्रभावी रीती से उपयोग किया जा सकेगा। आज हम इसी उदाहरण के द्वारा सीखना आरम्भ करेंगे कि अपने जीवनों में और प्रभु की सेवकाई तथा महिमा के लिए, परमेश्वर के वचन का प्रभावी उपयोग कैसे किया जा सकता है।

 

हाथ, हथेली और उसके साथ एक विशिष्ट रीति से जुड़ी हुई चार उँगलियों तथा एक अँगूठे से मिलकर बनता है, जो इसे एक अनुपम और बहुत प्रभावी अँग बनाते हैं। अपनी कार्यकुशलता और उपयोगिता में, मानव हाथ, अन्य किसी भी प्राणी के हाथ से भिन्न और उत्तम है; संसार के किसी भी जीव के हाथ से इसकी रचना और कार्य क्षमता कहीं अधिक उत्तम है। “The Navigators” नामक एक परमेश्वर का वचन सिखाने वाली एक संस्था है, और वे मानव हाथ के उदाहरण से भी परमेश्वर के वचन को सीखने का तरीका बताते हैं। यह लेख उनके इस उदाहरण पर आधारित है, और उसी से अनुकूलित किया गया है।


जिस तरह से तलवार के प्रभावी उपयोग के लिए, उसे चार उँगलियों और अँगूठे से दृढ़ता से थामना होता है; उसी प्रकार से परमेश्वर के वचन को अपने जीवनों में प्रभावी तरीके से उपयोग करने के लिए 5 बिन्दुओं को याद रखना अनिवार्य है। किसी एक ‘उंगली’ या ’बिन्दु’ में कमजोर पड़ना या उसे हटा देना, पकड़ को कमज़ोर बना देगा, और ‘तलवार’ का उपयोग होना, कम प्रभावी हो जाएगा। ये 5 ‘उँगलियाँ’ या बिन्दु हैं:


1. पाँचवी या छोटी उँगली - परमेश्वर का वचन सुनना: यह अनुमान लगाया गया है कि व्यक्ति जो सुनता है, उसका लगभग 5% ही ध्यान या याद रखने पाता है। जिस तरह से हाथ की सबसे छोटी उँगली, हाथ का सबसे कमज़ोर भाग है, उसी तरह से परमेश्वर के वचन को केवल सुनना, वचन को सीखने का सबसे कमज़ोर, लेकिन फिर भी प्रभावी भाग है; और परमेश्वर के वचन को सुनने के महत्व को अनदेखा नहीं किया जा सकता है, कम नहीं समझा जा सकता है। रोमियों 10:17 में लिखा है “सो विश्वास सुनने से, और सुनना मसीह के वचन से होता है।” पुराने नियम कि समयों में तथा कलीसिया के आरम्भिक दिनों में, जब अधिकाँश लोग अनपढ़ होते थे, और परमेश्वर के वचन की लिखित प्रतियाँ बहुत कम थीं, तब मौखिक प्रचार, शिक्षा, और सुनकर सीखना परमेश्वर के वचन के प्रचार और प्रसार के सबसे सामान्य तरीके थे। उन दिनों में मसीही विश्वासियों तथा कलीसियाओं की जिस प्रकार की बढ़ोतरी हुई थी, जो मुख्यतः परमेश्वर के वचन के बोले और सुने जाने के द्वारा थी, वैसी बढ़ोतरी फिर कभी नहीं हुई।


परमेश्वर के वचन को सुनना मात्र ही श्रोताओं में एक गम्भीर, गहरा, और जीवन बदलने वाला प्रभाव ला सकता है, उन्हें पश्चाताप के लिए कायल कर सकता है, जैसे हम प्रेरितों 2 अध्याय में पतरस द्वारा किए गए प्रचार के द्वारा देखते हैं। हम इसे नहेम्याह के समय में सामूहिक रूप में वचन के पढ़े और सुने जाने से नहेम्याह 8:1-13 में देखते हैं, “तब नहेम्याह जो अधिपति था, और एज्रा जो याजक और शास्त्री था, और जो लेवीय लोगों को समझा रहे थे, उन्होंने सब लोगों से कहा, आज का दिन तुम्हारे परमेश्वर यहोवा के लिये पवित्र है; इसलिये विलाप न करो और न रोओ। क्योंकि सब लोग व्यवस्था के वचन सुनकर रोते रहे” (नहेम्याह 8:9)। और इसी प्रकार से, व्यक्तिगत रीति से वचन के पढ़े और सुने जाने के द्वारा राजा योशिय्याह के पश्चाताप को, 2 इतिहास 34 अध्याय में देखते हैं, “व्यवस्था की वे बातें सुन कर राजा ने अपने वस्त्र फाढ़े। कि तुम जा कर मेरी ओर से और इस्राएल और यहूदा में रहने वालों की ओर से इस पाई हुई पुस्तक के वचनों के विष्य यहोवा से पूछो; क्योंकि यहोवा की बड़ी ही जलजलाहट हम पर इसलिये भड़की है कि हमारे पुरखाओं ने यहोवा का वचन नहीं माना, और इस पुस्तक में लिखी हुई सब आज्ञाओं का पालन नहीं किया” (2 इतिहास 34:19, 21)।


2. चौथी उँगली या अनामिका - परमेश्वर का वचन पढ़ना: यह अनुमान लगाया गया है कि व्यक्ति जो पढ़ता है, उसका लगभग 15% ध्यान में या याद रख लेता है। परमेश्वर के वचन का प्रार्थना के साथ नियमित और योजनाबद्ध पढ़ना, पढ़ने वाले को परमेश्वर के वचन की बातों का एक चित्र प्रदान कर देता है, और उसे एक सामान्य सा विचार प्रदान कर देता है कि कहाँ पर क्या कहा गया है। साथ ही यह व्यक्ति के परमेश्वर के साथ शान्त होकर समय बिताने में भी सहायक होता है। परमेश्वर के वचन को पढ़ना व्यक्ति के आत्मिक स्वच्छ किए जाने का भी काम करता है। प्रभु यीशु अपनी दुल्हन, अर्थात अपनी कलीसिया, वास्तव में नया-जन्म पाए हुए लोगों को वचन के स्नान के द्वारा पवित्र और शुद्ध कर रहा है (इफिसियों 5:26)। परमेश्वर के वचन को पढ़ने, सुनने, और पालन करने से व्यक्ति आशीषित भी होता है “धन्य है वह जो इस भविष्यद्वाणी के वचन को पढ़ता है, और वे जो सुनते हैं और इस में लिखी हुई बातों को मानते हैं, क्योंकि समय निकट आया है” (प्रकाशितवाक्य 1:3)। पुराने नियम में, व्यवस्था की पुस्तक का सार्वजनिक पढ़े जाने की आज्ञा दी गई थी, ताकि लोग सीखें और परमेश्वर का भय मानें (निर्गमन 24:7; व्यवस्थाविवरण 31:11-13; 2 इतिहास 34:30)। यिर्मयाह ने निर्देश दिया कि बेबीलोन के विरुद्ध भविष्यवाणी को पढ़ा और सुना जाए (यिर्मयाह 51:61)। यहूदियों के आराधनालयों में पवित्रशास्त्र का पढ़ा जाना, परमेश्वर की उपासना का एक नियमित भाग होता था (प्रेरितों 13:15)। प्रेरितों द्वारा कलीसियाओं को लिखी गई पत्रियाँ, आस-पास की अन्य कलीसियाओं में भी पढ़कर सुनाई जाती थीं (कुलुस्सियों 4:16; 1 थिस्सलुनीकियों 5:27)।


तो, परमेश्वर के वचन को सुनना, तथा पढ़ना दोनों ही ऐसे उचित और आवश्यक अभ्यास हैं जिन्हें मसीही विश्वासी को नियमित करते रहना चाहिए, ताकि परमेश्वर के वचन को प्रभावी रीति से सीख सके और उसका उपयोग कर सके। अगले लेख में हम यहाँ से आगे बढ़ेंगे, और हाथ के उदाहरण के शेष भागों को देखेंगे।

   

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 


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English Translation


Things Related to Christian Living – 14


The Four Pillars of Christian Living - 1 - Word (7)



In the last article we have seen that we need to utilize God’s Word, the Bible, to overcome Satan, his messengers, and his devices, as has been shown to us by the Lord Jesus through His example, when He was tempted by Satan. We also saw in the last article that for the safety of His children, the truly Born-Again Christian Believers, the true disciples of the Lord Jesus, God has given them spiritual armor (Ephesians 6:13-17). In this armor, everything except one is for the Believer’s defense, i.e, to protect him and keep him safe. There is only one weapon of offense given in this armor, God’s Word, called the “Sword of the Spirit.” To use a sword effectively, one must know how to hold and handle it properly, else it will be of no use. The sword is held with the hand, and the stronger the grip on the sword, the better and more effectively can it be used. Today we will begin to learn from this analogy, about effectively utilizing God’s Word, in our own lives, as well as for the ministry and glory of God. 


The hand comprises of the palm with four fingers and the thumb attached to it in a manner that makes it a unique and very effective organ. In its functions and efficacy, the human hand is unlike and superior to the hand of any other living creature; being far superior in design and working, than the hand of any other animal of the world. “The Navigators,” is an organization devoted to teaching God’s Word. This article is based upon and adopted from the analogy of the human hand used by “The Navigators” to illustrate and teach about learning God’s Word the Bible. 


As the sword is to be firmly grasped with the four fingers and the thumb; to use it effectively, so do we need to remember 5 points to learn and use God’s Word effectively in our lives. Weakening or loss of even one ‘finger’ or one “point” will weaken the hold, and render using the ‘sword’ less effective. These 5 “fingers” or “points” are:


1. The Fifth or Little Finger - Hear the Word of God: It is estimated that a person retains only about 5% of what he hears. As the fifth or little finger is the weakest part of the hand, similarly only hearing God's Word is the least, yet still an effective way of learning God’s Word; and the role of hearing God’s Word cannot be ignored or discounted. It says in Romans 10:17 “So then faith comes by hearing, and hearing by the word of God.” In the Old Testament times, and in the early days of the Church, when most of the population was illiterate, and written copies of God’s Word were few, oral preaching, teaching, and learning by hearing were the most common methods of communicating God’s Word. The kind of rapid and effective world-wide growth of the Believers and the Church that happened in those initial years, mainly through the spoken and heard Word of God, has never happened since then.

 

Just the listening of God’s Word can have a profound and life changing effect on the audience, bringing them to repentance, as we see from the preaching of Peter in Acts chapter 2. We also see this from the public reading done at the time of Nehemiah in Nehemiah 8:1-13, “And Nehemiah, who was the governor, Ezra the priest and scribe, and the Levites who taught the people said to all the people, "This day is holy to the Lord your God; do not mourn nor weep." For all the people wept, when they heard the words of the Law” (Nehemiah 8:9). And similarly the effect of the personal hearing of God’s Word, in the time of King Josiah in his repentance, given in 2 Chronicles 34, “Thus it happened, when the king heard the words of the Law, that he tore his clothes. [and said] Go, inquire of the Lord for me, and for those who are left in Israel and Judah, concerning the words of the book that is found; for great is the wrath of the Lord that is poured out on us, because our fathers have not kept the word of the Lord, to do according to all that is written in this book.” (2 Chronicles 34:19, 21).


2. The Fourth or Ring Finger - Read the Word of God: About 15% of what is read is estimated to be retained by a person. The prayerful, regular, and systematic reading of God’s Word gives the readers an overview about God’s Word, and a general idea of what is written where in the Bible. This reading also helps in the person’s quiet time with the Lord. Reading God’s Word also has a cleansing effect on the person. The Lord Jesus is preparing His Bride, i.e., the Church, the truly Born-Again Christian Believers, through sanctifying and cleaning it with His Word (Ephesians 5:26). Reading, hearing, and obeying God’s Word makes a person blessed “Blessed is he who reads and those who hear the words of this prophecy, and keep those things which are written in it; for the time is near” (Revelation 1:3). In the Old Testament, the Book of the Law was meant to be read publically for the people to learn and fear the Lord (Exodus 24:7; Deuteronomy 31:11-13; 2 Chronicles 34:30). Jeremiah instructed that the words of his prophecy against Babylon be read and heard (Jeremiah 51:61). Reading the Scriptures was a regular part of God’s worship in the Synagogues of the Jews (Acts 13:15). The letters written by the Apostles to the various churches were meant to be read around in all the nearby churches (Colossians 4:16; 1 Thessalonians 5:27). 


So, both the hearing and reading of God’s Word are worthy practices that every Christian Believer needs to be doing regularly, to be able effectively learn and utilize God’s Word. We will carry on from here in the next article and consider the remaining parts of the hand analogy.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 


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