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आरम्भिक बातें – 80
अन्तिम न्याय – 1
लगभग 3 महीने पहले आरम्भ हुई इस श्रृंखला, “परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी” की परिचय की बातों में, हम ने परमेश्वर के वचन बाइबल से देखा था कि मसीही बढ़ोतरी, वह चाहे व्यक्तिगत हो अथवा मण्डली की सामूहिक बढ़ोतरी हो, हमेशा ही परमेश्वर के वचन पर निर्भर रही है। जहाँ पर भी परमेश्वर के वचन की बाइबल के अनुसार सही शिक्षा दी गई है, और उन शिक्षाओं का पालन किया गया है, वहाँ पर मसीही विश्वासी उन्नत और परिपक्व होते चले गए हैं। सभी मसीही विश्वासियों के लिए यह अनिवार्य है कि वे परमेश्वर के सम्पूर्ण वचन को सीखें और उस का पालन करें; परन्तु बाइबल की शिक्षाओं की तीन श्रेणियाँ हैं जो आधारभूत हैं, जिन के द्वारा मसीही विश्वासियों को न केवल अपने विश्वास में स्थिर और दृढ़ खड़े रहने में सहायता मिलती है, बल्कि उन से वे शैतान द्वारा फैलाई जा रही गलत और भ्रामक शिक्षाओं का सामना भी कर सकते हैं और उन का खण्डन भी कर सकते हैं। ये तीन श्रेणियाँ हैं: सुसमाचार और मन फिराने से सम्बन्धित शिक्षाएँ; इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छः आरम्भिक बातों से सम्बन्धित शिक्षाएँ; और व्यावहारिक मसीही जीवन जीने से सम्बन्धित शिक्षाएँ। इस श्रृंखला में हम इन्हीं तीनों श्रेणियों की शिक्षाओं को परमेश्वर के वचन बाइबल से सीखते आ रहे हैं। हमने सुसमाचार और मन फिराने से सम्बन्धित शिक्षाओं के साथ आरम्भ किया था; और उन के बाद फिर हम ने इब्रानियों 6:1-2 की छः आरम्भिक बातों को देखना आरम्भ किया, तथा पिछले लेख में हम ने इन छः में से पाँचवीं बात पर विचार करना समाप्त किया। आज से हम छठी आरंभिक बात, “अन्तिम न्याय” से सम्बन्धित शिक्षाओं को देखना आरम्भ करेंगे।
परमेश्वर का वचन बाइबल यह बिल्कुल स्पष्ट कर देता है कि सँसार का अन्याय अवश्यंभावी है; यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित है, हो कर रहेगा, लेकिन केवल परमेश्वर ही जानता है कि कब होगा। इस तथ्य से सम्बन्धित एक पद, प्रेरितों 17:31 को देखिए, “क्योंकि उसने एक दिन ठहराया है, जिस में वह उस मनुष्य के द्वारा धर्म से जगत का न्याय करेगा, जिसे उसने ठहराया है और उसे मरे हुओं में से जिलाकर, यह बात सब पर प्रमाणित कर दी है।” तो, न केवल न्याय होना परमेश्वर द्वारा निर्धारित कर दिया गया है बल्कि न्याय का दिन भी तय कर दिया गया है; साथ ही परमेश्वर पुत्र, प्रभु यीशु मसीह को सँसार का न्यायी भी नियुक्त कर दिया गया है। किन्तु सँसार के अधिकाँश लोग, वे भी जो अपने आप को “ईसाई” या “मसीही” कहते हैं, इस बात को बहुत हल्के में लेते हैं। ईसाइयों या मसीहियों में एक आम धारणा पाई जाती है कि परमेश्वर प्रेमी, चिन्ता और देखभाल करने वाला, और क्षमा करने वाला परमेश्वर है; वह विलम्ब से क्रोध करता है, और ईसाइयों या मसीहियों की बड़े धैर्य से बर्दाश्त करता रहता है। इसलिये, अन्ततः वह सभी ईसाइयों या मसीहियों को क्षमा कर के अनन्तकाल के लिए अपने साथ स्वर्ग में ले लेगा। किन्तु जो लोग इस बाइबल के विपरीत विचारधारा को मानते हैं, वे उस की जो परमेश्वर ने कहा है, अनदेखी करते हैं, या उसे भूल जाते हैं। परमेश्वर ने जब अपना ”नाम” मूसा पर प्रकट किया, तब क्या कहा, उस पर विचार कीजिए, “तब यहोवा ने बादल में उतर के उसके संग वहां खड़ा हो कर यहोवा नाम का प्रचार किया। और यहोवा उसके सामने हो कर यों प्रचार करता हुआ चला, कि यहोवा, यहोवा, ईश्वर दयालु और अनुग्रहकारी, कोप करने में धीरजवन्त, और अति करुणामय और सत्य, हजारों पीढ़ियों तक निरन्तर करुणा करने वाला, अधर्म और अपराध और पाप का क्षमा करने वाला है, परन्तु दोषी को वह किसी प्रकार निर्दोष न ठहराएगा, वह पित्रों के अधर्म का दण्ड उनके बेटों वरन पोतों और पड़पोतों को भी देने वाला है” (निर्गमन 34:5-7)। जितने इस गलत धारणा में विश्वास करते हैं कि अन्ततः परमेश्वर सभी को क्षमा कर के सब भूला देगा और सभी ईसाइयों या मसीहियों को स्वर्ग में ले लेगा, उन्हें इसी से सचेत हो जाना चाहिए कि उन की गलत धारणा का बाइबल से कोई समर्थन नहीं है। यदि फिर भी किसी को कोई सन्देह है, तो उन्हें परमेश्वर के इस्राएल, जो उस के वाचा किए हुए और चुने हुए लोग हैं, के साथ व्यवहार पर विचार करना चाहिए। उन्हें देखना चाहिए कि परमेश्वर ने इस्राएलियों की कितनी घोर ताड़ना की है, क्योंकि उन्होंने बारम्बार, अनेकों चेतावनियों के बावजूद, परमेश्वर की अनदेखी तथा अनाज्ञाकारिता की। परमेश्वर ने इस्राएलियों को त्याग नहीं दिया, परन्तु परमेश्वर ने उन्हें, उसे हल्के में भी नहीं लेने दिया है, ऐसे ही बच जाने नहीं दिया है। उस ने, उस की अनदेखी और अनाज्ञाकारिता करने, उसे हल्के में लेने के लिए मिलने वाले दण्ड की जितनी चेतावनियाँ उन्हें दी थीं, कि वह उन पर अपना भारी प्रकोप उँड़ेलेगा, वह सभी पूरा किया है।
यह बड़ी दुर्भाग्य पूर्ण और दुःख की बात है कि इस बाइबल के विपरीत और गलत धारणा, कि, परमेश्वर सभी ईसाइयों या मसीहियों को अन्ततः स्वीकार कर लेगा, का समर्थन, जाने या अनजाने में मसीही धार्मिक अगुवों के द्वारा किया जाता है, और बहुधा इसे बढ़ावा भी दिया जाता है, क्योंकि वे लोगों से कुछ अति आवश्यक बातें नहीं करना चाहते हैं, कि कहीं लोगों को ठेस न पहुँचे। वे लोगों से उन के पापों के बारे में, पापों के लिए पश्चाताप करने की अनिवार्यता कि बारे में, उन के परमेश्वर को तब तक स्वीकार्य नहीं होने के बारे में जब तक कि वे उस से पापों की क्षमा प्राप्त न कर लें और जब तक कि अपने आप को उसे समर्पित कर के, मनुष्यों के बनाए हुए नियमों के नहीं बल्कि परमेश्वर के तथा उस के वचन का आज्ञाकारी होने का निर्णय न ले लें, के बारे में स्पष्ट बात नहीं करना चाहते हैं। इस तरह से ये धार्मिक अगुवे, लोगों को सुधारने और सिखाने की बजाए, उन की गलत बातों और धारणाओं को ही प्रोत्साहित करते रहते हैं। वे बाइबल के तथ्यों और सत्य बातों के विषय शान्त रहने, सही बात के लिए मुँह न खोलने के द्वारा, गलतियों का समर्थन करते हैं। ऐसा करते हुए उन्हें यह एहसास भी नहीं होता है कि वे प्रभु के नाम में शैतान के लिए काम कर रहे हैं, और लोगों को परमेश्वर के वचन का पालन करना सिखाने की बजाए मनुष्यों द्वारा गढ़ी गई शिक्षाओं और सिद्धान्तों का पालन करने वाला बनाने के द्वारा वे उन्हें नरक में भेज रहे हैं।
हम अगले लेख में इस विषय पर आगे देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 80
Eternal Judgment – 1
At the beginning of this series on “Growth Through God’s Word” about 3 months ago, in the preliminary considerations we had seen from God’s Word the Bible that Christian growth, individually or as a Church, has always been through God’s Word. Where there is proper Biblical teaching of God’s Word, and its obedience by the Christian Believers, they will continue to grow and mature in their Christian lives. It is essential for all Christian Believers to learn and obey all of God’s Word; but three categories of Biblical teachings are the basics which help Christians to not only stand firm in their faith, but also to face and counter the wrong teachings brought in by Satan. These three categories are: teachings related to the Gospel and Repentance; teachings related to the elementary principles given in Hebrews 6:1-2; and teachings related to practical Christian living. In this series, we have been studying these three categories of teachings from God’s Word the Bible. We began with studying the teachings related to the Gospel and Repentance; and after them have started studying the six elementary principles given in Hebrews 6:1-2. Of these six elementary principles, with the last article, we have finished considering the teachings related to the first five elementary principles. From today we will begin considering the teachings related to the sixth elementary principle, i.e., “eternal judgment.”
The Word of God, the Bible makes it very clear that the judgement of the world is inevitable; it is God ordained, it will happen, but only God knows when. Consider a verse about this fact, Acts 17:31 “because He has appointed a day on which He will judge the world in righteousness by the Man whom He has ordained. He has given assurance of this to all by raising Him from the dead.” So, not only the judgment has already been decided by God and a day of judgment has also been set; but God the Son, i.e., the Lord Jesus Christ, has also already been appointed as the Judge of the whole world. But most people of the world, even those who call themselves “christians," take it very lightly. The common notion amongst the Christians is that God is very loving, caring, and forgiving; He is a longsuffering God who patiently puts up with those who are called “christians.” Therefore, at the end, He will forgive all “christians,” and take them into heaven to be with Him for eternity. But those who go by this unBiblical line of thinking forget or disregard what God has said. Consider His “Name” that God proclaimed to Moses, “Now the Lord descended in the cloud and stood with him there, and proclaimed the name of the Lord. And the Lord passed before him and proclaimed, "The Lord, the Lord God, merciful and gracious, longsuffering, and abounding in goodness and truth, keeping mercy for thousands, forgiving iniquity and transgression and sin, by no means clearing the guilty, visiting the iniquity of the fathers upon the children and the children's children to the third and the fourth generation” (Exodus 34:5-7). This by itself should make it clear to all who believe in this wrong notion that eventually God will forgive and forget and take every “christian” into heaven, that God’s Word the Bible does not support this notion at all. Anyone still in doubt should consider God’s dealings with Israel, God’s promised and chosen people. They should see how severely God has chastised the Israelites for their disobedience and disregard of God, done time and again, despite many warnings. God has not disowned the Israelites, but God has not let them take Him lightly and get away with it. He has fulfilled all His warnings to them about pouring out His wrath on them for their disobeying and disregarding God and taking Him lightly.
Quite sadly and very unfortunately this unBiblical and wrong notion of God eventually accepting all those called “christians,” is directly or indirectly supported, and often promoted by the Christian religious leaders, since they do not want to offend people by speaking to them about their sin, about the necessity of their repentance for sins, about their not being made acceptable to God unless they ask and obtain His forgiveness for their sins, and submit themselves to live in obedience to Him and His Word, instead of man and man-made denominational rules and regulations. But the religious and denominational leaders instead of correcting the wrong understanding of people and their congregation promote it. They do this by indirectly lending it their support by staying silent about the Biblical facts and truth about this topic, not realizing that they are not only misleading and deceiving people, but are actually working on behalf of Satan in Lord’s name, and are sending people to hell, by making them follow man-made teachings and doctrines, instead of getting them to learn and obey God’s Word.
We will see further about this in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.