मसीही विश्वास एवं शिष्यता – 26
Click Here for the English Translation
मसीही विश्वासी द्वारा प्रचार - क्या और कैसे? (1)
प्रभु यीशु मसीह का, मरकुस 3:14-15 में, अपने शिष्यों के लिए दूसरा प्रयोजन था “वह उन्हें भेजे, कि प्रचार करें”, और हमने इसके तीसरे भाग, शिष्य “प्रचार करें” को पिछले लेख में देखना आरंभ किया। अपने स्वर्गारोहण के समय प्रभु ने अपने शिष्यों को प्रचार करने के बारे में जो निर्देश दिए, वे हमें मत्ती 28:18-20, मरकुस 16:15-19, और प्रेरितों 1:8 में मिलते हैं। इन तीनों खण्डों में दिए गए प्रभु के निर्देशों के अनुसार प्रचार का कार्य करने से, बहुत विरोध, कठिनाइयों, और बाधाओं के बावजूद वे शिष्य सुसमाचार प्रचार बहुत प्रभावी और सफल रीति से कर सके, जिससे दो दशक के भीतर ही उनके लिए ये कहा जाने लगा कि “...ये लोग जिन्होंने जगत को उलटा पुलटा कर दिया है...” (प्रेरितों 17:6)। अर्थात, प्रभु द्वारा उन्हें दिए गए इन निर्देशों में वह सामर्थी कुंजी है, जो सभी विरोध और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद, संसार भर में प्रभावी और सफल सुसमाचार प्रचार का मार्ग बताती है। आज हम अनेकों प्रकार के आधुनिक तकनीकी साधनों और सहूलियतों के बावजूद, अपने मानवीय तरीकों से उतना प्रभावी और सफल सुसमाचार प्रचार नहीं करने पाते हैं, जितना उन आरंभिक दिनों में उन शिष्यों ने कर दिखाया था। करण यह है कि आज हम मनुष्यों द्वारा बनाए और ठहराए गए साधनों और तरीकों के द्वारा प्रचार करने के प्रयास करते हैं, मनुष्यों की बुद्धि और समझ की बातों को उपयोग करते हैं; जबकि वे शिष्य प्रभु के द्वारा दिए गए सुसमाचार प्रचार के साधनों और तरीकों का उपयोग करते थे, अपने अभियान में विजयी हुए।
यद्यपि सुसमाचार प्रचार से संबंधित बहुत सी शिक्षाएं प्रेरितों के काम की पूरी पुस्तक और नए नियम की अन्य पत्रियों में दी गई हैं, हम यहाँ पर केवल प्रभु द्वारा अपने स्वर्गारोहण के समय सुसमाचार प्रचार से संबंधित उपरोक्त तीनों खंडों में दिए गए इन निर्देशों के बारे में देखेंगे, कि उन में क्या विशेष था, जिससे वे शिष्य इतने प्रभावी हो सके। नए नियम में अन्य स्थानों पर दी गईं सुसमाचार प्रचार की सेवकाई से संबंधित बातें या तो प्रभु द्वारा दिए गए इन निर्देशों का व्यावहारिक प्रयोग दिखाती हैं, या इन मूल शिक्षाओं के उपयोग और समझ में हुई त्रुटि एवं उन्हें लागू करने से बातों से संबंधित हैं। इसलिए, हमारे द्वारा प्रभु की बातों पर ध्यान केंद्रित करने से हम एक प्रभावी और सफल मसीही सेवकाई के मूल सिद्धांतों को समझने और सीखने पाएंगे। ये सिद्धांत और मूल शिक्षाएं हैं:
प्रभु ने ये निर्देश और जिम्मेदारी अपने प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध शिष्यों को दिए थे। अर्थात, यरूशलेम से आरंभ कर के सारे संसार भर में (प्रेरितों 1:8), यह कार्य केवल उनके द्वारा किए जाने के लिए था जिन्होंने सच्चे मन से प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण कर लिया था, और हर कीमत पर उसकी आज्ञाकारिता के लिए पूर्णतः प्रतिबद्ध थे। ये शिष्य प्रभु द्वारा इस कार्य के लिए प्रशिक्षित तथा तैयार किए थे, और प्रभु के अधिकार (मत्ती 28:18) के साथ भेजे गए थे; किसी मनुष्य अथवा मानवीय विधि के द्वारा नहीं। उन्हें मनुष्यों द्वारा बनाई और स्थापित की गई किसी प्रक्रिया के द्वारा नहीं चुना और नियुक्त किया गया था, और न ही वे किसी मानवीय अधिकार के आधार पर भेजे गए थे; सुसमाचार प्रचार के लिए इनकी योग्यता किसी कॉलेज अथवा सेमनरी से उन्हें मिली डिग्री नहीं, वरन प्रभु की शिष्यता थी। उन शिष्यों ने यह कार्य अपने प्रभु के लिए किया था, न कि किसी नौकरी की आवश्यकताओं की पूर्ति अथवा वेतन कमाने के लिए। वे किसी मानवीय संस्थान या संगठन के लिए काम नहीं करते थे, और उनकी जवाबदेही सीधे प्रभु के प्रति थी, किसी मनुष्य के प्रति नहीं। उन्होंने प्रभु यीशु में उद्धार के वास्तविक और खरे सुसमाचार का प्रचार किया, न कि किसी मत या डिनॉमिनेशन द्वारा निर्धारित सुसमाचार के अर्थ अथवा व्याख्या का, जिसमें उस मत या डिनॉमिनेशन के सिद्धान्त और शिक्षाएं भी मिला दी गई थीं। उन्होंने यह प्रचार प्रभु के कहे के अनुसार, उसकी आज्ञाकारिता में, उसे प्रसन्न करने के लिए किया था, न कि किसी मत या डिनॉमिनेशन की मान्यताओं के अनुसार, अथवा उसके अधिकारियों की संतुष्टि के लिए।
उन शिष्यों को न तो किसी धर्म का प्रचार करना था, न ही किसी का धर्म परिवर्तन करना था, और न ही प्रभु को स्वीकार करने के लिए किसी भी प्रकार के भौतिक, सांसारिक, अथवा शारीरिक लाभ या प्रतिफलों का लालच लोगों के सामने रखना था। उन्हें प्रभु यीशु के कहे के अनुसार मसीह यीशु के शिष्य बनाने थे, और फिर जो स्वेच्छा से शिष्य बन जाए, उसे बपतिस्मा देना था और प्रभु की बातें सिखानी थीं (मत्ती 28:19-20)। सभी प्रचारकों और उपदेशकों के लिए यह गम्भीरता से जाँचने की बात है कि क्या वे प्रभु द्वारा दिए गए निर्देशों को, उसी प्रकार तथा क्रम में पालन कर रहे हैं, जैसा प्रभु ने दिया है? या फिर वे लोगों को लुभाने के लिए किसी प्रकार के भौतिक लाभ उनके सामने रख रहे हैं; ऐसे तरीकों और साधनों का उपयोग कर रहे हैं जिनका प्रभु ने अपनी सेवकाई के लिए कभी कोई उल्लेख भी नहीं किया? उनकी सेवकाई अपने मानवीय अधिकारियों के सामने कुछ आँकड़े प्रस्तुत करने क लिए है, कुछ मनुष्यों को प्रसन्न करने के लिए है, अथवा परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए?
अगले लेख में हम इसी विषय पर कुछ और बातों को भी देखेंगे। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
और
कृपया अपनी स्थानीय भाषा में अनुवाद और प्रसार करें
*************************************************************************
Christian Faith & Discipleship – 26
Christian Disciple – Preach What & How? (1)
The second purpose of the Lord Jesus for His disciples was that they go out to preach, as and when He asks them, and wherever He sends them for it. We had started to study this aspect of the second purpose - preaching, in the last article. The instructions the Lord Jesus gave to His disciples for their ministry all over the world at the time of His ascension, are given in Matthew 28:18-20, Mark 16:15-19, and Acts 1:8. Although the disciples faced many problems, persecutions, and opposition in preaching the gospel, but by following the principles the Lord had given to them in these three passages, they could very successfully and effectively carry out their ministry, so much so that within two decades of their working for the Lord, it was said of them “...These who have turned the world upside down…” (Acts 17:6). The implication is clear; in these instructions given by the Lord Jesus are the key to the effective and successful preaching of the gospel, despite all opposition and adverse circumstances. Today, despite our numerous technological resources and conveniences, we are unable to as effectively and successfully preach and teach the gospel of salvation, as those initial disciples could. The reason is nowadays we resort to humanly devised means and methods of preaching, use products of man’s wisdom and understanding; whereas those disciples used the Lord given means and methods of spreading the gospel, and came out winners in their endeavors.
Although many teachings about gospel preaching and teaching are given in the Book of Acts and in the Epistles of the New Testament, but here we will only look into the instructions given by the Lord Jesus at the time of His ascension, in the above mentioned three passages; what was so special in them that those disciples could carry out their ministry so effectively and successfully by following them. The teachings related to gospel preaching given at other places in the New Testament are either about the application of these principles given by the Lord, or about correcting the errors and misinterpretations of the Lord’s instructions. Hence our concentrating upon the Lord’s teachings will give us the insight required for an effective Christian ministry of spreading the gospel. These principles and fundamental teachings are:
The Lord had given these instructions and the responsibility of taking the gospel to the ends of the earth to His disciples - i.e., those who were surrendered and committed to Him. This ministry was to be carried out to the ends of the earth (Acts 1:8), by those who had truly and sincerely accepted the Lord Jesus as their Lord and Savior, those who were willing and committed to doing the Lord’s bidding at all costs. These disciples had been taught and prepared by the Lord Jesus for this ministry and were sent by Him with His authority (Matthew 28:20). They were not chosen and trained by any man-made process, neither were given this task by virtue of any educational qualification or degree they may have earned, nor were they sent with any human authority behind them. That is to say, they were neither working for a salary, nor for or under any human institution or organization, and their accountability was to the Lord. They preached and taught the actual and true Gospel of Salvation in the Lord Jesus, and not its interpretation by any denomination or sect or group along with the beliefs and doctrines of that denomination, sect, or group mixed into the Gospel of the Lord Jesus. They went out and preached the gospel to please the Lord and fulfill His instructions to them, and not to work for or please any human authority.
These disciples were not asked to preach about any religion, nor were they asked by the Lord to indulge in any religious conversions, nor offer any worldly or physical or personal benefits and inducements as a reward for accepting the Lord. They, as per the instructions of the Lord, were to “make disciples” - disciples of the Lord Jesus. Those, who willingly and voluntarily accepted to become the disciples of the Lord Jesus, they were to be baptized and taught the teachings of the Lord Jesus (Matthew 28:19-20). This is something that every preacher and teacher in Christian ministry should ponder over and consider in his ministry - are they actually practicing what the Lord has instructed, and in the manner and sequence instructed by the Lord? Or, are they using various inducements to attract people to the Lord for the sake of presenting statistics to their authorities; are they guilty of using means and methods not ever spoken of by the Lord for His ministry, to be man-pleasers rather than be God pleasers?
In the next article, we will consider some more things about this topic. Where there is obedience to the Lord, and where His Word is honored and obeyed, the Lord's blessings and security is present there. If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then take a decision in its favor now to secure your eternal life and heavenly blessings. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, have not truly and sincerely surrendered yourselves into His hands, then you have the opportunity to do so right now - this is the only way to be saved and have a heavenly life. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
&
Please Translate and Propagate in your Regional Language