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बुधवार, 4 सितंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 180

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 25


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 2 - संगति (7) 



मसीही विश्वासी की बढ़ोतरी और कलीसिया की उन्नति के लिए, परमेश्वर के लोगों को परमेश्वर के वचन में दिए गए निर्देशों का पालन करना है। प्रेरितों 2 तथा 15 अध्याय में व्यावहारिक मसीही जीवन जीने से संबंधित कुछ शिक्षाएं दी गई हैं। पिछले कुछ लेखों से हम प्रेरितों 2:42 में दी गई चार शिक्षाओं पर विचार कर रहे हैं जिन्हें “मसीही विश्वास के स्तम्भ” भी कहा जाता है। इन चारों में से पहले स्तम्भ - यत्न से और लौलीन होकर परमेश्वर के वचन का अध्ययन करना को देखने के बाद अब हम दूसरे स्तम्भ, यत्न से और लौलीन होकर संगति रखना के बारे में परमेश्वर के वचन से सीख रहे हैं। अभी तक हमने इस विषय पर जो कुछ सीखा है, आज उसकी समीक्षा करने के बाद, अगले लेख से हम तीसरे स्तम्भ, “रोटी तोड़ना” या प्रभु-भोज के बारे में देखना आरंभ करेंगे।


मसीही विश्वासियों द्वारा परस्पर संगति करने तथा संगति को बनाए रखने के बारे में, परमेश्वर के वचन बाइबल से अभी तक हम देख चुके हैं कि:

 

संगति रखना नए नियम में दी गई कोई नई धारणा नहीं है, वरन मनुष्य की सृष्टि के समय से ही यह परमेश्वर की इच्छा रही है। परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप में इसी लिया सृजा, कि उसके साथ संगति रख सके; और इसी संगति के लिए परमेश्वर अदन की वाटिका में मनुष्य से मिलने आया करता था।

 

परमेश्वर की मूल योजना में, मनुष्य को दो आयामों में संगति रखनी थी - आत्मिक और शारीरिक। मनुष्य की पहली या आत्मिक संगति परमेश्वर के साथ, और दूसरी यानि शारीरिक संगति अन्य मनुष्यों के साथ रहनी थी। मनुष्य की अनाज्ञाकारिता से सृष्टि में पाप के प्रवेश और उसके दुष्प्रभावों के कारण परमेश्वर और मनुष्य की संगति टूट गई, तथा मनुष्य की मनुष्य के साथ संगति की मनोहरता और सामंजस्य बाधित हो गए।

  

परमेश्वर के साथ संगति में बहाल हुए बिना, मनुष्यों औरों के साथ भी सही संगति बना कर नहीं रख सकता है; किन्तु यदि परमेश्वर के साथ संगति सही हो तो फिर मनुष्यों के साथ सही संगति रखना भी सहज हो जाता है।


आज भी प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए उन्हीं दो मूल आयामों में संगति रखना अनिवार्य है - पहले आत्मिक रीति से परमेश्वर के साथ; और दूसरे शारीरिक रीति से, अन्य मनुष्यों, अर्थात परिवार के, पड़ोस के, समाज के लोगों के साथ; दोनों तरह की संगति के अपने-अपने महत्व और आवश्यकताएं हैं।

 

संगति में बिगाड़ या बाधा का मूल कारण पाप है; जहाँ पाप होगा वहाँ संगति भी नहीं रहेगी, न तो परमेश्वर के साथ, और न ही मनुष्यों के साथ। पाप के निवारण के साथ दोनों आयामों में संगति की बहाली भी हो जाती है।

 

मसीही विश्वास में संगति का आधारभूत स्वरूप परिवार और पारिवारिक सम्बन्ध हैं। जब हम उद्धार पाते हैं और परमेश्वर के साथ संगति में बहाल होते हैं, तो उसके परिवार के सदस्य बन जाते हैं। यह हमें अन्य मसीही विश्वासियों के साथ इस पृथ्वी पर भी एक सार्वभौमिक, विश्वव्यापी मसीही परिवार का सदस्य बना देता है, जिस में सभी समान स्तर के हैं, प्रभु यीशु के भाई-बहन हैं। और इससे परस्पर मतभेद और विरोध का, किसी भी प्रकार के ऊँच-नीच का, किसी भी संघर्ष का आधार ही समाप्त हो जाता है और मेल-मिलाप के साथ रहना सहज हो जाता है।

 

मसीही विश्वासियों और कलीसिया के लिए, इस संगति में एक अद्भुत सामर्थ्य है। जहाँ मसीही विश्वासियों की परस्पर संगति सही है, उनमें एक-मनता है, वहाँ उनके मध्य में प्रभु की उपस्थिति है, और फिर उनमें होकर प्रभु की सामर्थ्य काम करती है; जो शैतान और उसकी योजनाओं के लिए घातक है।

 

इसीलिए शैतान इस प्रकार की संगति को बने नहीं रहने देना चाहता है। इस सामर्थी संगति के दोनों आयामों को तोड़ने, बिगाड़ने के लिए वह उसी उपाय को उपयोग करता है, जिसे उसने अदन की वाटिका में संगति तोड़ने के लिए किया था - पाप में गिराना; क्योंकि जहाँ पाप होगा, वहाँ संगति नहीं होगी।

 

अपनी इस योजना को सफलता-पूर्वक कार्यान्वित करने के लिए, शैतान को मसीही विश्वासियों को किसी घोर या जघन्य पाप में फँसाने की आवश्यकता नहीं है। वह एक बहुत साधारण और महत्वहीन दिखने वाली बात के द्वारा ही अपने उद्देश्य को पूरा कर लेता है। आरम्भिक मसीही विश्वासी प्रेरितों 2:42 की जिन चार बातों में लौलीन रहा करते थे, आज सामान्यतः उन्हें मात्र एक औपचारिकता के समान पूरा किया जाता है। समझौते और औपचारिकता के इस अप्रत्यक्ष पाप ने मसीही विश्वासियों को उनकी ईश्वरीय सामर्थ्य के स्त्रोत से दूर कर दिया है।

 

व्यवसाय या काम की, पारिवारिक जिम्मेदारियों के निर्वाह की, सामाजिक औपचारिकताओं के निर्वाह की, और इसी प्रकार की अनेकों प्रकार की बातों की ‘व्यस्तता’ और उन के कारण शारीरिक एवं मानसिक थकान होने की भावना को मनों में डालकर, शैतान मसीही विश्वासी को बहका कर उसे परमेश्वर और उसके वचन के साथ समय बिताने से दूर; किन्तु संसार के मनोरंजन के साधनों - टीवी, इंटरनेट, फोन के उपयोग आदि के साथ समय बिताने में फंसा देता है। लोग सोचते हैं कि इन माध्यमों के द्वारा वे आराम कर रहे हैं, तनाव को कम कर रहे हैं; किन्तु वास्तव में ये समय को खराब और तनाव को बढ़ाने के, और सँसार तथा सँसार की बातों को मसीही विश्वासियों के जीवनों और परिवारों में घुसाने के तरीके हैं। शैतान ने इन माध्यमों के द्वारा लोगों की प्राथमिकताओं को परमेश्वर और उसके वचन से हटाकर संसार और संसार की बातों के निर्वाह पर लगा दिया है।

 

परिणामस्वरूप, मसीही विश्वासी बड़ी आसानी से सांसारिकता, संसार, और संसार के लोगों के साथ समझौते कर लेते है, उन्हीं के समान व्यवहार करने लगते हैं, उन्हें ही प्राथमिकता और महत्व देने लगते हैं। अपने विवेक को शान्त करने के लिए मण्डली आने, प्रार्थना और आराधना करने, वचन का कोई छोटा सा भाग पढ़ लेने, आदि गतिविधियों की औपचारिकताओं को तो निभाते हैं, किन्तु वास्तव में और मन से वह परमेश्वर, परिवार, तथा मण्डली की संगति से अलग हो जाते हैं।


शैतान के लिए इतना ही पर्याप्त है; अब ऐसे मसीही विश्वासी परमेश्वर और मनुष्यों, दोनों आयामों की संगति से दूर हैं। अब संगति से उन्हें मिलने वाली उन की सामर्थ्य जाती रही है, और अब वे परमेश्वर के कार्यों में उपयोग नहीं हो सकते हैं। इसलिए अब शैतान को उन से खतरा नहीं रहा, बल्कि उन्हें उदाहरण बनाकर वह औरों को भी अपनी युक्तियों में फँसाने के लिए बहकाता और भरमाता है, तथा ऐसे मसीही विश्वासियों में होकर वह परमेश्वर का, उसके वचन का, और उस में विश्वास करने का ठट्ठा भी उड़ाता है।

 

मसीही विश्वासी की इस दुर्गति का एक ही समाधान है, पश्चाताप के साथ परमेश्वर के पास लौट आए, अपनी प्राथमिकताओं को ठीक करके, अपने जीवन में परमेश्वर और उसके वचन के प्राथमिक स्थान को बहाल करे, और परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह, और समय का सदुपयोग करना सीखे।

 

अगले लेख से हम प्रेरितों 2:42 में दिए गए तीसरे स्तम्भ, “रोटी तोड़ना” या प्रभु-भोज में सम्मिलित होने के बारे में विचार करना आरम्भ करेंगे।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 


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English Translation


Things Related to Christian Living – 25


The Four Pillars of Christian Living - 2 - Fellowship (7)



For the spiritual growth of the Christian Believers and the edification of the church, God's people are to follow the instructions given in God's Word. Acts chapters 2 and 15 provide some teachings related to practical Christian living. Over the past few articles, we have been considering four teachings given in Acts 2:42, also known as “the pillars of the Christian faith.” Having considered the first of these four pillars i.e., studying God's Word steadfastly and diligently, we are now learning from God's Word about the second pillar, i.e., steadfastly and diligently keeping fellowship. Today we will review what we have learned on this subject so far; then from the next article we will begin to look at the third pillar, the “breaking of bread” or the Lord's Supper.


About the Christian Believers being in and maintaining fellowship, we have seen so far from God's Word, the Bible that:


Keeping fellowship is not a new concept given in the New Testament, but it has been God's desire since the creation of man. God created man in His image so that He could have fellowship with him; And for having this fellowship, God used to come to meet man in the Garden of Eden.


In the original plan of God, man was to have fellowship in two dimensions—spiritual and physical. Man’s first or spiritual fellowship was to be with God, and his second or physical fellowship was to be with other humans. Due to man's disobedience, sin entered creation and its deleterious effects caused the fellowship between God and man to be broken, and the beauty and harmony of man's fellowship with man was disrupted.


Without being restored to fellowship with God, men cannot maintain true fellowship with others either; But if we have the right fellowship with God, then it becomes easy to have the right fellowship with people too.


Even today, it is essential for every Christian to have fellowship in the same two basic dimensions – first, spiritually with God; And second, physically, with other people, i.e. people from family, neighborhood, society; Both types of fellowships have their own importance and requirements.


The root cause of loss or hindrance in fellowship is sin; Where there is sin there will be no fellowship, neither with God nor with men. With the remission of sin comes the restoration of fellowship in both dimensions.


The basic form of fellowship in the Christian faith, is family and the family relationships. When we are saved and restored to fellowship with God, we become members of His family. This makes us, along with other Christians on earth, a part of the universal, worldwide Christian family in which all are equal, as brothers and sisters of the Lord Jesus. And because of this, the basis of mutual differences and opposition, any kind of discrimination, any conflict gets eliminated and it becomes easy to live in harmony.


For Christians and the church, there is a wonderful power in this fellowship. When Christians have good fellowship with each other, they will also be in unity, the Lord’s presence will be amongst them, and then the power of the Lord will work through them; which is detrimental for Satan and his plans.


That is why Satan does not want such fellowship to continue. To break and distort both dimensions of this powerful fellowship, He uses the same ploy that He used to break the fellowship in the Garden of Eden – fall into committing sin; Because where there is sin, there will be no fellowship.


To successfully carry out his plan, Satan does not need to entice Christians into committing any grave or heinous sin. He accomplishes his purpose through a very simple and seemingly insignificant thing. The four points of Acts 2:42 that the early Christians were engaged in steadfastly, are today generally observed and fulfilled merely as a formality. This non-apparent sin of compromise and formality has distanced the Christian Believers from their source of divine power.


By instilling in their minds, the feeling of being 'busy' because of things like business or work, of fulfilling family responsibilities, of fulfilling social obligations, and of being occupied with many other such things, resulting in physical and mental fatigue, Satan lures the Christian Believers away from spending time with God and His Word; instead traps them in spending time with the world's means of entertainment - TV, Internet, use of phone etc. People think that through these mediums they are relaxing, reducing their stress; but in reality these are ways to waste time and increase stress, the means through which the world and the things of the world are brought into the life and families of the Christian Believers. Through these means, Satan has shifted people's priorities away from God and His Word and toward the world and the things of the world.


As a result, Christians easily compromise with worldliness, with the things of the world, and with the people of the world, giving them priority and importance. To calm their conscience, they may go through the formalities of attending church, of praying and worshiping, of reading a small portion of the Word, etc., but in reality, and in their hearts, they have become separated from God, God’s family, and fellowship with the congregation.


That is all that Satan needs; now such Christian Believers are far from fellowship with both God and man. Now the strength they received from fellowship has been lost, and they can no longer be used effectively in the work of God. Therefore, Satan is no longer in any danger from them; but by using them as an example, he induces and misleads others to also fall into his schemes, and through such Christian Believers, he mocks God, His Word, and faith in Him.


The Christian Believer has only one solution to this predicament, i.e., return to God in repentance, get his priorities right, restore the primary place of God and His Word in his life; and under the leading of God's Holy Spirit, learn to live up to his responsibilities, and make good use of time.


From the next article, we will start considering the third pillar given in Acts 2:42, i.e., “breaking of bread” or participating in the Lord’s Table.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 


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