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रविवार, 20 अक्टूबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 226

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 71


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (13) 


प्रार्थना, व्यावहारिक मसीही जीवन का एक अनिवार्य भाग, और प्रेरितों 2:42 में दी गई चार में से चौथी बात है। आरम्भिक मसीही विश्वासी, इन चारों बातों में लौलीन रहा करते थे। आरम्भिक कलीसिया और मसीही विश्वासियों में प्रेरितों 2:42 की चारों बातों के बारे में जो स्वरूप और व्यवहार था, वह आज बहुत ही कम देखने को मिलता है। उसके स्थान पर आज, इन चारों के नाम में, केवल मनुष्यों द्वारा गढ़ी गई प्रथाएं और रीतियाँ ही निभाई जाती हैं, और वह भी सामान्यतः एक औपचारिकता के समान। उन बातों का वह लौलीन होकर पालन करना, जो आरम्भिक मसीही विश्वासियों और कलीसिया में था, आज प्रायः देखने को नहीं मिलता है। प्रार्थना के बारे में परमेश्वर के वचन से सीखते हुए, हमने देखा है कि प्रार्थना करना, केवल परमेश्वर से माँगना नहीं है, वरन हर बात के लिए, हर समय उससे वार्तालाप करते रहना है। हर बात के लिए परमेश्वर की इच्छा जानकर, उसके वचन के अनुसार, उसके निर्देशों का पालन करना है। परमेश्वर ने अपने वचन में यह स्पष्ट कह रखा है कि वह किन लोगों की, और कैसी प्रार्थनाओं का सकारात्मक उत्तर देगा - उसके वचन और इच्छा के अनुसार, उसके वास्तविक और समर्पित लोगों द्वारा माँगी गई प्रार्थनाओं का। हम यह भी देख चुके हैं कि परमेश्वर ने सभी को यह खुली छूट नहीं दी है कि कोई भी “विश्वास से” कुछ भी माँगे, तो परमेश्वर उसे अवश्य ही पूरा करने के लिए बाध्य है। इस आम किन्तु गलत धारणा से सम्बन्धित बातों को बाइबल से देखने और समझने के बाद, पिछले लेख से हमने बाइबल के उन कुछ उदाहरणों को देखना आरम्भ किया है, जिनके गलत अर्थ और गलत व्याख्या के आधार पर बाइबल से असंगत इस शिक्षा का प्रचार तथा प्रसार किया जाता है। मत्ती 7:7-8 और मत्ती 21:21-22 को देखने समझने के बाद, आज से हम बाइबल के एक अन्य उदाहरण को देखना आरम्भ करेंगे, जिसका यह दिखाने के लिए दुरुपयोग किया जाता है कि जो भी परमेश्वर से “प्रभु यीशु के नाम से” माँगा जाएगा, परमेश्वर उस प्रार्थना को स्वीकार करेगा और पूरी करेगा।


परमेश्वर से प्रार्थना माँगने और उसके पूरा किये जाने के लिए वाक्यांश, “प्रभु यीशु के नाम में माँगते हैं” लगभग सभी के द्वारा प्रयोग किया जाता है। आज यह मुख्यतः एक औपचारिकता, तथा प्रार्थना को समाप्त करने वाला अन्तिम वाक्य बन गया है, जो यह बताता है कि इसके बोलने के साथ ही प्रार्थना का अन्त भी हो जाएगा। यदि बाइबल से देखें, तो यह वाक्यांश, जैसा कि यूहन्ना 14:13, 14; 15:16; 16:23-26 पदों में लिखा है, प्रभु यीशु द्वारा अपने उन प्रतिबद्ध और समर्पित शिष्यों से कहा गया था, जिनके साथ उसने फसह का भोज खाया था, और जिनके साथ उसने प्रभु भोज की स्थापना की थी। यहाँ ध्यान देने योग्य एक बहुत महत्वपूर्ण बात है, जैसा हमने प्रभु भोज से सम्बन्धित बातों के बारे में देखते हुए ध्यान किया था, यूहन्ना 13 अध्याय के अन्त से आगे, यूहन्ना 18 अध्याय में प्रभु यीशु के पकड़वाए जाने तक, यहूदा इस्करियोती उनके मध्य में नहीं था। इसलिए यूहन्ना 14 से 16 अध्याय में प्रभु द्वारा कही गई बातें और दिए गए आश्वासन केवल उसके वास्तविक समर्पित और प्रतिबद्ध शिष्यों से ही कहे गए थे, उन्हीं के लिए थे। ये जन सामान्य से कही गई बातें नहीं थीं, न ही जन सामान्य द्वारा दावा किये जाने, और माँगे जाने के लिए थीं। इसलिए हर किसी के द्वारा यूहन्ना 14 से 16 अध्याय में प्रभु द्वारा बारम्बार कहे गए वाक्यांश के आधार पर अपनी सभी प्रार्थनाओं का अन्त, “प्रभु यीशु के नाम में माँगते हैं” कहकर करने का कोई औचित्य नहीं है।

 

बाइबल के इसी आधार पर हर किसी के द्वारा यह आशा रखने का भी कोई औचित्य नहीं है कि क्योंकि उन्होंने प्रभु के कहे के अनुसार, प्रार्थना को प्रभु के नाम में माँगा है, इसलिए प्रभु उसे पूरा भी करेगा। जो बात प्रभु ने सब से, या सब के लिए कही नहीं है, उस बात का निर्वाह वह सभी के लिए करेगा भी नहीं। जैसा ऊपर कहा गया है, यह ध्यान देने और समझने योग्य बात है कि प्रभु ने अपने शिष्यों को ये आश्वासन, ये प्रतिज्ञा यहूदा इस्करियोती के उनके मध्य से चले जाने के बाद दी थी। लगभग साढ़े तीन वर्ष तक यहूदा इस्करियोती उन सभी के साथ रहा था। उसने अन्य शिष्यों के समान ही सब कुछ देखा, जाना, सीखा, और किया था। किन्तु फिर भी पैसों का लालच उसे अनन्त विनाश में ले गया। यहूदा इस्करियोती प्रभु के उन बारह चेलों में उनका खजांची था, और उसे सौंपी गई ज़िम्मेदारी में से पैसे चोरी भी किया करता था। जब मरियम ने प्रभु के पाँवों पर बहुमूल्य इत्र डालकर, उसे अपने बालों से पोंछा था, तब यहूदा इस्करियोती को ही इस “पैसे की बर्बादी” से तकलीफ हुई थी, और उसी ने उस पैसे के सदुपयोग के लिए उसे “कंगालों को देने” का बहाना बनाया था (यूहन्ना 12:1-6)। अब ध्यान कीजिए, इस ऊपरी रीति से प्रभु के साथ जुड़े होने, अन्य शिष्यों के समान व्यवहार करने, किन्तु अन्दर से संसार, और सांसारिकता के साथ जुड़े हुए “शिष्य” की उपस्थिति में, साढ़े तीन वर्ष तक प्रभु ने अपने शिष्यों से प्रार्थनाओं के उत्तर के बारे में उसके नामे से माँगने के बारे में कोई शिक्षा नहीं दी। तब भी नहीं जब शिष्यों ने प्रभु से आग्रह किया कि वह उन्हें प्रार्थना करना सिखाए; और प्रभु ने उन्हें “प्रभु की प्रार्थना” सिखाई (लूका 11:1-4)। जब ऊपरी तौर से प्रभु का शिष्य, किन्तु अन्दर से शैतान का जन (यूहन्ना 17:12), अन्ततः उनसे पूरी तरह से अलग होकर संसार और संसार के लोगों में चला गया, उसके बाद ही प्रभु ने अपने समर्पित और प्रतिबद्ध शिष्यों को यह बात कही, यह प्रतिज्ञा दी। यही अपने आप में स्पष्ट दिखा देता है कि प्रभु के नाम से कुछ माँगने का अधिकार, और माँगे हुए के पूरा किये जाने का आश्वासन केवल उसके समर्पित, प्रतिबद्ध, वास्तविक शिष्यों के लिए ही है, हर किसी के लिए नहीं। इसलिए चाहे कोई भी इस वाक्यांश “प्रभु यीशु के नाम में माँगते हैं” को अपनी प्रार्थनाओं के साथ क्यों न जोड़ता रहे, किन्तु इसका लाभ उन्हीं को होगा जो वास्तव में, अन्दर और बाहर समान रीति से, प्रभु के वास्तविक, सच में समर्पित और प्रतिबद्ध शिष्य हैं।


इस वाक्यांश “प्रभु यीशु के नाम में माँगते हैं” का एक अन्य और बहुत महत्वपूर्ण तात्पर्य भी है, जो हमें समझाता है कि प्रभु ने किस आशय से प्रतिज्ञा के ये शब्द कहे थे; और इनका वास्तविक तात्पर्य एवं निहितार्थ क्या है। इसे हम अगले लेख में देखेंगे।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


Things Related to Christian Living – 71


The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (13)


Prayer is an integral part of practical Christian living, and is the fourth of the four things given in Acts 2:42. The initial Christian Believers used to follow these four things steadfastly. The form and the observance of these four things of Acts 2:42 that was seen and practiced amongst the initial Believers and the churches is very rarely seen now. Instead, it has been replaced by man-made traditions and rituals about these four, and these too are only followed to fulfill a formality. That steadfast observance that was seen amongst the initial Christian Believers and the churches, is practically never seen now. While learning about prayer from God’s Word, we have seen that praying is not just asking from God, but continually being in conversation with Him about everything. It is learning God’s will, and what God’s Word says about everything, then following God’s instructions accordingly. God has very clearly written in His Word about whose prayers and the kind of prayers He will answer affirmatively - those asked by His true and committed disciples, and consistent with His Word and His will. We have also seen that God has not given an open assurance to everyone that if anyone asks for anything “in faith” then God is obliged to necessarily fulfill it. Having seen and understood the things related to this very common but wrong notion, since the last article we have started to consider the examples that are often used from the Bible to support this misconception, through wrong interpretations and meanings of the text, and then these Biblically inconsistent teachings are preached and taught to others. Having seen and understood about Matthew 7:7-8 and Matthew 21:21-22, today we will begin to consider another Biblical example that is misused to say that God will accept and fulfill any prayer for anything, if asked in the name of the Lord Jesus.


The phrase “ask in Jesus’s name” is used by practically everyone in their prayers, to ensure its being fulfilled. Today, it has become more of a formality, an indicator that this is the concluding sentence of the prayer, with which the prayer will come to an end. When seen from the Bible, as given in John 14:13, 14; 15:16; 16:23-26, this phrase was spoken by the Lord Jesus to those of His committed and true disciples, with whom He had partaken the Passover feast, and with whom He had established the Lord’s Table. There is a very important thing to be noted over here. As we have seen while considering about the things related to the Holy Communion, from the end of John chapter 13, till Jesus’ being caught for being crucified in John chapter 18, Judas Iscariot was not present amongst them. Therefore, the things said and the assurances given by the Lord Jesus, in John chapters 14 to 16 were spoken to, and were meant only for His true and committed disciples. They were neither said to everyone, in general; nor were they meant for everyone, in general to claim and ask. Therefore, there is no rationale for everyone to be generally claiming the phrase “ask in Jesus’ name” repeatedly spoken by the Lord in John chapters 14 to 16, and expecting their prayers to be answered because of having said the phrase.

 

That which the Lord has not spoken to or for everyone, He will not fulfill it for everyone either. As has been said above, the Lord had given this promise after Judas Iscariot had left from amongst them. Judas Iscariot had been with them for about three and a half years. He had seen, learnt, known, and done everything like the other disciples. Still, the lust for money eventually led him into eternal destruction. Judas Iscariot was the “treasurer” amongst the disciples, and from the responsibility entrusted to him, he used to steal money. When Mary had poured the precious ointment on Jesus’ feet and had wiped them with her hair, it was Judas Isacriot who had been perturbed the most by this “waste of money” and had suggested that it could have been better used for “giving to the poor” (John 12:1-6). Now take note, when this apparently and superficially joined to the Lord, but inwardly joined to the world and the things of the world, “disciple” was with them for about three and a half years, the Lord never gave this teaching to His disciples to ask for things in His name. Not even when the disciples asked the Lord to teach them to pray, and He taught them the “Lord’s Prayer.” When this outwardly, a “disciple” of the Lord, but actually Satan’s person (John 17:12), eventually had fully separated himself from them and had gone back into the world and joined the people of the world, it was then that the Lord Jesus gave the disciples this promise, this assurance. This by itself clearly shows that the authority to ask in the name of the Lord, and to expect the fulfillment of what is asked, is only for the actual disciples of the Lord, truly committed and surrendered to Him; and not for anyone in general. Therefore, even if people may keep adding this phrase “ask in Jesus’ name” to their prayers, it will benefit only those who really are the disciples of the Lord, from the inside as well as outside, and are truly committed and surrendered to Him.


There is another very important meaning of this phrase “ask in Jesus’ name,” that explains to us with what meaning did the Lord give this promise, and what is its actual meaning and implication. We will see this in the next article.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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