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व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 97
मसीही जीवन और व्यवस्था का पालन (2)
व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों के हमारे वर्तमान अध्ययन में, हम प्रेरितों 2 अध्याय में दी गई सात बातों को देख चुके हैं। पिछले लेख से हमने प्रेरितों 15 अध्याय में दी गई बातों के बारे में विचार करना आरंभ किया है; और इस सन्दर्भ में हमने 15 अध्याय की एक संक्षिप्त समीक्षा देखी। इस 15 अध्याय से प्रकट है कि मसीही विश्वास के आरम्भ से ही शैतान ने प्रभु के बलिदान और पुनरुत्थान के द्वारा मानव जाति के उद्धार और परमेश्वर से मेल-मिलाप के लिए पूर्ण किए गए कार्य को स्वीकार करके उसपर विश्वास करने को भ्रष्ट करने के प्रयास आरम्भ कर दिए थे। मसीही विश्वासियों तथा प्रभु की कलीसिया में शैतान द्वारा सुसमाचार को भ्रष्ट और व्यर्थ करने के ये प्रयास “वचन के पालन” और “धार्मिकता के कार्यों” के रूप में लाए गए; जैसा कि आज भी होता है। हमने 15 अध्याय की समीक्षा में देखा था कि यहूदियों और फरीसियों में से मसीही विश्वास में आए कुछ लोगों का यह दृढ़ किन्तु सर्वथा गलत मत था कि उद्धार पाने और परमेश्वर से मेल-मिलाप होने के लिए न केवल प्रभु यीशु पर विश्वास करना है, वरना साथ ही व्यवस्था का पालन और खतना करवाना भी आवश्यक है। यरूशलेम में एकत्रित प्रभु के शिष्यों, प्रेरितों, प्राचीनों, और अगुवों ने बहुत चर्चा और वाद-विवाद के बाद, पवित्र आत्मा की अगुवाई में, यह निर्णय लिया कि उद्धार केवल प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास ही से है। उसमें किसी अन्य बात के मिलाए या जोड़े जाने की कोई आवश्यकता नहीं है, चाहे वह बात परमेश्वर के वचन से, जो आज हमारे लिए पुराना नियम है, ही क्यों न ली गई हो। फिर हमने देखा था कि पौलुस अपनी मसीही सेवकाई की यात्राओं में इन बातों को भी बताता और सिखाता चला गया; और कलीसियाएं तथा मसीही विश्वासी बढ़ते गए, उन्नत होते चले गए।
यहाँ पर हमें यह समझना और ध्यान रखना आवश्यक है कि प्रभु यीशु में विश्वास द्वारा पापों की क्षमा और उद्धार का, परमेश्वर के वचन में दिया गया यह सुसमाचार प्रभु यीशु मसीह के आगमन के बाद दी गई कोई नई बात नहीं है। वरन यह पूर्णतः पवित्र शास्त्र के अनुसार ही है; और उद्धार तथा परमेश्वर से मेल-मिलाप को किसी के कैसे भी और कितने भी कर्मों पर निर्भर नहीं करता है, वरन केवल परमेश्वर के अनुग्रह पर आधारित करता है (1 कुरिन्थियों 15:1-4)। यद्यपि यह बात इस 15 अध्याय में सभी कलीसियाओं और मसीही विश्वासियों के लिए, पवित्र आत्मा की अगुवाई में, हमेशा के लिए ठहरा दी गई थी, और कलीसियाओं में पहुँचा भी दी गई थी, किन्तु हम पत्रियों में दी गई बातों से देखते हैं कि फिर भी यह विवाद का विषय बना रहा और शैतान ने इसे शांत नहीं होने दिया। आज भी यह विवाद का विषय है, अन्तर केवल इतना है कि तब मूसा की व्यवस्था के पालन और खतना जैसे कर्मों को अनिवार्य दिखाकर सुसमाचार को भ्रष्ट किया जाता था, और आज अलग-अलग मतों तथा डिनॉमिनेशंस के द्वारा, उनके बनाए और स्थापित किए गए नियमों, रीतियों, और परम्पराओं के उनके सदस्यों द्वारा पालन करने को अनिवार्य दिखाकर उद्धार के सुसमाचार को भ्रष्ट किया जाता है। साथ ही कुछ लोगों द्वारा 15 अध्याय के विवाद के विषय, अर्थात व्यवस्था की बातों के पालन और निर्वाह को भी फिर से अनिवार्य दिखाने का प्रयास किया जाता है, ताकि लोग परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी हो जाएं। यह और कुछ नहीं विश्वास के स्थान पर कर्मों के द्वारा धर्मी बनाए की बातें हैं, जिनका प्रेरितों 15 अध्याय में पतरस ने खण्डन करते हुए कहा था कि न तो ये बातें पहले किसी को धर्मी बना सकी थीं, और न अब बना सकती हैं; और प्रभु के भाई याकूब ने भी पतरस की बात का अनुमोदन करते हुए इनके पालन किए जाने की आवश्यकता को नकार दिया था। पौलुस ने भी पवित्र आत्मा की अगुवाई में लिखा है कि उस मूल सुसमाचार का, जो आरम्भ में दिया गया, अर्थात कर्मों से नहीं वरन केवल प्रभु में विश्वास द्वारा पापों की क्षमा और उद्धार, में जो भी मिलावट करे, उसे बदले, वह श्रापित है; फिर चाहे वह बदलने वाला कोई स्वर्गदूत हो अथवा स्वयं पौलुस ही क्यों न हो (गलातियों 1:6-9)।
प्रेरितों 15 अध्याय की समीक्षा में हमने देखा था कि खतना करवाने और व्यवस्था का पालन करने से सम्बन्धित विवाद का समाधान हो जाने के बाद, साथ ही यह निर्णय भी लिया गया कि अन्यजातियों में से जो मसीही विश्वास में आते हैं, उन्हें अपने विश्वास में आने से पहले की कुछ बातों को छोड़ देना चाहिए। ध्यान कीजिए, यह बात उद्धार तथा पापों की क्षमा से सम्बन्धित विवाद की बात का भाग नहीं थी; और इसे उस विषय पर विवाद का निर्णय हो जाने के बाद कहा गया। इसलिए, उन बातों को छोड़ने का निर्देश, उद्धार पाने या उद्धार को प्रमाणित करने के सन्दर्भ में नहीं है, जैसा कि खतना करवाने और व्यवस्था का पालन करने की बातों के साथ था। वरन इन बातों को छोड़ना मसीही विश्वास के व्यावहारिक जीवन से सुसंगत जीवन जीने के समान है। अर्थात, उद्धार पाने के लिए उन बातों को नहीं छोड़ना है; बल्कि क्योंकि उद्धार पा लिया है, इसलिए उद्धार पाए हुए जीवन के अनुरूप जीवन शैली के लिए उन्हें छोड़ना है। इसे यदि एक और उदाहरण से समझें, परमेश्वर को आदर देते हुए ईमानदारी का जीवन जीने से उद्धार नहीं मिलता है; वरन, जिन्होंने उद्धार पा लिया है, उन्हें अपने जीवनों से परमेश्वर को आदर देना है और ईमानदारी का जीवन जीना है।
अगले लेख में हम इस विषय पर चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Practical Christian Living – 97
Christian Living and Observing the Law (2)
In our present study on things related to practical Christian living, we have seen seven things from Acts chapter 2. From the previous article we have begun to consider the things given in Acts chapter 15; and have seen a brief review of this chapter. From this chapter 15, it is evident that from the very beginning of the Christian faith, Satan had started to corrupt the completed and accomplished sacrificial work of the Lord and His resurrection for the salvation of mankind through faith in Him and accepting Him. These attempts by Satan to corrupt the gospel in the churches and amongst the Christian Believers were brought in, as “obeying the Scriptures” and as “works of righteousness” just as it happens today also. We had seen in the review of chapter 15 that some of those who had come into the Christian faith from the Jews and the Pharisees, were very firm in their totally incorrect opinion that to be saved and reconciled with God, not only is it necessary to accept and believe in the Lord Jesus, but also to be circumcised and to obey the Law. The disciples of the Lord, the Apostles, The Elders, and other leaders of the churches assembled in Jerusalem to discuss and sort this matter, and after a lot of discussions and debate, under the guidance of the Holy Spirit the matter was concluded and it was decided that salvation is only through faith in the Lord Jesus. There is no need to mix or add anything else to this, even though it may have been taken from the Scriptures, which meant our present-day Old Testament. Then we had seen that Paul in his missionary journeys used to preach and teach these things; and the churches and Christian Believers grew and were edified.
It is necessary to understand and keep in mind that the gospel of forgiveness of sins and salvation through faith in the Lord Jesus was not something new that had been brought in after the coming of the Lord Jesus. Rather, it was fully consistent with the Scriptures; and salvation and reconciliation with God is not in any way dependent upon any kind of or number of works done by anyone, it is solely dependent upon the grace of God (1 Corinthians 15:1-4). Although this matter was settled and the necessary action was determined here in this 15th chapter for all churches and all Christian Believers under the guidance of the Holy Spirit, for all times, and was also spread around in the churches, but as we see from the Epistles in the New Testament, it still remained a contentious issue, and Satan did not allow this matter to settle down. Even today, it is still a contentious issue, the only difference is that at that time the gospel was being corrupted by saying that works like circumcision and observing the Law were necessary, and today, the different sects and denominations corrupt the gospel by making it necessary for their members to follow the rules, traditions, and rituals of the sects and denominations. Also, some have again reverted back to the matter of Acts 15, i.e., have started to say it is necessary to obey the things of the Law, so that people can be seen as righteous by God. This is nothing other than trying to show being righteous not by faith but by works. Peter, in Acts 15 had refuted this very argument and had said that these things could not make anyone righteous earlier or now; and James, the brother of the Lord affirmed what Peter said and rejected the observance of these things. Paul also wrote under the guidance of the Holy Spirit that if anyone corrupts or alters that original gospel that was given initially, he is cursed, even though it might be an angel or even Paul himself who is altering or corrupting the gospel (Galatians 1:6-9).
In the review summary of Acts 15 we had seen that after settling and deciding about the dispute related to circumcision and observing the things of the Law, another decision was also taken, that those who come to the Christian faith from the Gentiles, should give up some of the things they had been doing earlier. Take note, this thing was not a part of the dispute related to salvation and forgiveness of sins; and was stated after this dispute had been settled. Therefore, the instruction to leave some things, is not in context of receiving salvation, or proving having received it, as was the state with circumcision and observing things of the Law. Rather, leaving those things was more in line with living a life consistent with practical Christian living. In other words, those things were to be left, not for being saved; but having been saved, to now exhibit a life consistent with Christian living, and therefore leave them. We can understand it through another example, salvation is not by having a reverence for God and being honest; but those who have been saved, should have reverence for God and live an honest life.
We will look further into this topic in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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