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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 90
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (32)
पिछले लेखों में हमने देखा है कि प्रार्थना करना, अर्थात परमेश्वर के साथ वार्तालाप करना, व्यावहारिक मसीही जीवन का एक अभिन्न अँग है। यह परमेश्वर की इच्छा तथा आज्ञा है कि उसके लोग हर समय, हर बात के लिए, उसके साथ वार्तालाप करें, ताकि उससे सही मार्गदर्शन पाकर वे शैतान की युक्तियों से सुरक्षित रह सकें। जैसा प्रेरितों 2:42 में दिया गया है, आरम्भिक मसीही विश्वासी चार बातों में लौलीन रहते थे। उन चार में से चौथी बात प्रार्थना करना है। इन चारों बातों के मूल स्वरूप और निर्वाह को हम परमेश्वर के वचन बाइबल के उदाहरणों और पदों से देखते और सीखते चले आ रहे हैं। वर्तमान में हम प्रार्थना के बारे में सीखते हुए, मत्ती 6:5-15 के आधार पर हम उस खण्ड पर विचार कर रहे हैं, जिसे सामान्यतः “प्रभु की प्रार्थना” कहा जाता है, और बचपन से ही रट कर मसीहियों द्वारा हर अवसर पर, हर बात के लिए, बिना सोचे-समझे, बोल दिया जाता है। हमने देखा है कि वास्तव में यह कोई प्रार्थना नहीं है, वरन प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों को दी गई एक रूपरेखा, एक ढाँचा है, जिसके आधार पर प्रभु के समर्पित एवं आज्ञाकारी शिष्यों के द्वारा परमेश्वर को स्वीकार्य प्रार्थनाएं बनाई और कही जा सकती हैं। प्रभु द्वारा दी गई इस रूपरेखा में, प्रभु ने परमेश्वर से माँगने के लिए तीन बातें सिखाई हैं। पिछले लेख में हमने पद 11 में दी गई इन तीन में से पहली बात, परमेश्वर पर पूर्णतः निर्भर होने के बारे में देखा था। आज हम दूसरी बात, क्षमा करने वाला होना के बारे में सीखेंगे।
मत्ती 6:12, में लिखा है, “और जिस प्रकार हम ने अपने अपराधियों को क्षमा किया है, वैसे ही तू भी हमारे अपराधों को क्षमा कर” (मत्ती 6:12), और इसी से सम्बन्धित पद 14-15 लिखा है, “इसलिये यदि तुम मनुष्य के अपराध क्षमा करोगे, तो तुम्हारा स्वर्गीय पिता भी तुम्हें क्षमा करेगा। और यदि तुम मनुष्यों के अपराध क्षमा न करोगे, तो तुम्हारा पिता भी तुम्हारे अपराध क्षमा न करेगा”(मत्ती 6:14-15)। प्रभु ने अपने शिष्यों को सिखाया है कि क्षमा करने वाला होना, उनके चरित्र का, उनके गुणों का, उनके व्यवहार का एक अभिन्न अँग होना है। उन्हें स्वयं भी परमेश्वर से क्षमा, उनके औरों को क्षमा करने के व्यवहार के अनुसार ही मिलेगी। सम्पूर्ण सुसमाचार का आधार ही क्षमा है। यदि प्रभु यीशु द्वारा दिए गए बलिदान और उसके पुनरुत्थान के आधार पर हमें क्षमा नहीं मिली होती, तो परमेश्वर से हमारा मेल-मिलाप और उससे सम्बन्धित अन्य बातों एवं आशीषों का हमें दिया जाना कदापि सम्भव नहीं था। और अभी भी, यदि परमेश्वर हमारे प्रति सहनशील और क्षमा करने वाला नहीं हो, तो हमारा उसके साथ बने रहना सम्भव नहीं है; क्योंकि हमारा शरीर, हमारा पुराना मनुष्यत्व हमें निरन्तर परमेश्वर के विरुद्ध चलने, पाप करने के लिए उकसाता है, कुछ-न-कुछ गलत करवाता रहता है, जैसा पौलुस ने अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर रोमियों 7:15-25 में लिखा है। परमेश्वर ने मूसा पर अपने नाम को जैसा प्रकट किया (निर्गमन 34:5-7), उससे हम परमेश्वर के क्षमा करने और विलम्ब से कोप करने वाला होने को सीखते हैं। प्रभु यीशु की पृथ्वी की सेवकाई के समय उसकी शिक्षाएं और चंगाइयाँ, उसके द्वारा लोगों को क्षमा करने पर ही आधारित थीं। प्रेरित यूहन्ना ने लिखा, “सो कोई यह कहता है, कि मैं उस में बना रहता हूं, उसे चाहिए कि आप भी वैसा ही चले जैसा वह चलता था” (1 यूहन्ना 2:6)। इसलिए यह प्रकट है कि प्रभु के शिष्यों को भी, प्रभु के समान धैर्य रखने, विलम्ब से कोप करने, और क्षमा करने वाला होना चाहिए। उन्हें प्रभु के इस गुण को अपने व्यावहारिक जीवन में दिखाने वाला होना चाहिए; मत्ती 6:14-15 में प्रभु ने इसी बात पर ज़ोर दिया है।
अब, यह तो सामान्य जानकारी है कि क्षमाशील होना प्रभु परमेश्वर का गुण है, उसकी शिक्षा है, और अपने शिष्यों से उसकी अपेक्षा है। सभी जानते हैं कि मसीहियों को प्रभु के समान क्षमाशील होना है; चाहे शायद ही कोई उसे मानता और पालन करता हो। ध्यान कीजिए, मत्ती 6:11-13 में तीन बातें हैं जो प्रभु के लोगों को पिता परमेश्वर से माँगनी हैं। अर्थात ये तीनों, ऐसी बातें हैं जो स्वाभाविक रीति से मसीहियों के जीवन में नहीं आएंगी; और न ही वे स्वयं किसी भी रीति से, अपने प्रयासों और क्षमता से इन्हें अपने अन्दर उत्पन्न करने और विकसित करने पाएंगे। मसीहियों को ये बातें परमेश्वर से ही मिल सकती हैं; और इसीलिए प्रभु ने शिष्यों को सिखाया कि प्रार्थना में परमेश्वर से इन्हें माँगें। किसी को सच्चे मन से, वास्तविक रीति से क्षमा करना भी इन तीन में से एक गुण है। किन्तु, यहाँ पर, इस क्षमा करने वाला होने के गुण से सम्बन्धित एक ऐसी बात है, जिस पर सामान्यतः ध्यान नहीं दिया जाता है। न केवल इसे लालसा के साथ परमेश्वर से माँगना है, वरन इसे अभ्यास के साथ निज जीवन में विकसित और कार्यकारी भी करना है। पुराने नियम में मूसा, और नए नियम में पौलुस इस बात के उत्तम उदाहरण हैं। मिस्र से जान बचा कर भागने के बाद, परमेश्वर ने मूसा को 40 वर्ष तक मूर्ख भेड़ों की चरवाही करना सौंप दिया। मूसा को सहनशीलता सिखाने, धैर्य और क्षमा के साथ रखवाली करते रहना सिखाने का यह परमेश्वर का तरीका था। चालीस वर्ष के प्रशिक्षण के बाद जब मूसा में वे गुण विकसित और स्थापित हो गए, उसके बाद परमेश्वर ने उसे अपने बलवई, ढीठ, अनाज्ञाकारी, और बात-बात में कुड़कुड़ाने वाले लोगों की देखभाल सौंपी, कि वह उन्हें मिस्र से निकाल कर कनान देश तक लाए। पौलुस का जीवन भी कठिनाइयों, परेशानियों, लोगों के विरोध तथा उसके विरुद्ध कार्य करने, षड्यन्त्र रचने, मसीहियों और कलीसियाओं से धोखे मिलने से भरा हुआ था (2 कुरिन्थियों 4:8-12; 11:23-28)। लेकिन पौलुस ने अपने विरोधियों और सताने वालों के विरोध में कुछ नहीं कहा। न केवल मूसा और पौलुस, वरन परमेश्वर के नबियों को भी अपने ही लोगों से सताव, विरोध, विद्रोह, आदि का सामना करना पड़ा, सहना पड़ा; लेकिन वे अपने सताने वालों के विरुद्ध बिना कुछ कहे, बस परमेश्वर के दिखाए और बताए मार्ग पर चलते रहे, अपनी सेवकाई को करते रहे।
यह आज हमारे लिए क्या व्यावहारिक शिक्षा रखता है? प्रभु के शिष्य को क्षमाशील होना है; इसका कोई विकल्प नहीं है। क्षमाशीलता का यह गुण वह स्वयं अपने अन्दर उत्पन्न और विकसित नहीं कर सकता है; उसे यह पिता परमेश्वर से ही मिलेगा, और उसे इसे प्रार्थना में माँगना होगा। इस गुण का मिलना ही काफी नहीं है, इसे विकसित एवं प्रभावी भी करना होता है, तब ही वह मसीही सेवकाई में कार्यकारी होने पाता है। इसे विकसित और प्रभावी करने के प्रशिक्षण के लिए मूसा, पौलुस, और परमेश्वर के अन्य लोगों के समान, कठिन और दुखदायी परिस्थितियों से होकर निकलना पड़ता है। बिना इस प्रशिक्षण के, यह हमारे जीवनों में प्रभावी नहीं होगा, और हम प्रभु के लिए उपयोगी नहीं बनेंगे। अब, इस सन्दर्भ में, अपने सताव के बारे में लिखने के बाद, पौलुस जो बात कहता है, उसपर ध्यान कीजिए “इसलिये हम हियाव नहीं छोड़ते; यद्यपि हमारा बाहरी मनुष्यत्व नाश भी होता जाता है, तौभी हमारा भीतरी मनुष्यत्व दिन प्रतिदिन नया होता जाता है। क्योंकि हमारा पल भर का हल्का सा क्लेश हमारे लिये बहुत ही महत्वपूर्ण और अनन्त महिमा उत्पन्न करता जाता है। और हम तो देखी हुई वस्तुओं को नहीं परन्तु अनदेखी वस्तुओं को देखते रहते हैं, क्योंकि देखी हुई वस्तुएं थोड़े ही दिन की हैं, परन्तु अनदेखी वस्तुएं सदा बनी रहती हैं” (2 कुरिन्थियों 4:16-18)। वह अपने मसीही जीवन भर के घोर क्लेष, सताव, और बैर-विरोध सहते रहने को “पल भर का हल्का सा क्लेश” कहता है, जिसके कारण उसे अनन्तकाल के लिए “बहुत ही महत्वपूर्ण और अनन्त महिमा उत्पन्न” होती जाती है। और फिर, अपने पृथ्वी के जीवन के अन्त के समय वह बिना किसी डर या दुर्भावना के कह सका “क्योंकि अब मैं अर्घ के समान उंडेला जाता हूं, और मेरे कूच का समय आ पहुंचा है। मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूं मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है, जिसे प्रभु, जो धर्मी, और न्यायी है, मुझे उस दिन देगा और मुझे ही नहीं, वरन उन सब को भी, जो उसके प्रगट होने को प्रिय जानते हैं” (2 तीमुथियुस 4:6-8)।
मत्ती 6:12 में दी गई यह ‘प्रार्थना’ उसके रटे हुए स्वरूप में, बिना सोचे-समझे बोल देनी तो बहुत सरल है; किन्तु परमेश्वर की सामर्थ्य, सहायता, और मार्गदर्शन के बिना उसका निर्वाह करना सम्भव नहीं है। प्रभु के सच्चे, समर्पित, आज्ञाकारी शिष्यों के लिए भी इस ‘प्रार्थना’ के प्रशिक्षण से होकर निकलना आसान नहीं है। किन्तु जो इसे निभाते हैं, वे अपने अनन्तकाल के लिए कितनी और कैसी आशीषें जमा कर लेते हैं, ये हम वहाँ पहुँच कर ही देख और समझ सकेंगे। अगले लेख में हम प्रभु द्वारा प्रार्थना के लिए दिए गए तीसरे विषय पर विचार करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 90
The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (32)
In the previous articles we have seen that prayer, i.e., conversing with God, is an integral part of practical Christian living. It is God’s will and command that His people converse with Him continually, for everything, to receive His guidance and remain safe from the wiles of the devil. As given in Acts 2:42, the initial Christian Believers used to steadfastly observe four things. The fourth of those four is praying. We have been learning about the original form and observance of these four through the examples and references about them in God’s Word the Bible. Presently, while learning about prayer, on the basis of Matthew 6:5-15 we are looking at a passage which is commonly known as the “Lord’s Prayer,” and the Christians usually memorize it in their childhood, and then keep repeating it by rote on every occasion and for everything, without ever trying to think and understand about it. We have seen that actually it is not a ‘prayer’, it is rather an outline, a framework, based on which the Christians can build their individual prayer to be acceptable to God. In this outline given by the Lord there are three things that the Lord has said should be asked from God. In the previous article, we have seen from verse 11 about being totally dependent upon God. Today we will see the second thing, about being one who forgives others.
It is written in Matthew 6:12 “And forgive us our debts, As we forgive our debtors” and then in the related verses 14-15 it is written “For if you forgive men their trespasses, your heavenly Father will also forgive you. But if you do not forgive men their trespasses, neither will your Father forgive your trespasses.” The Lord has taught His disciples that to be forgiving towards others is to be an integral part of their character, their attributes, and their behavior. They will receive forgiveness from God in a manner similar to the way they forgive others. The basis of the entire gospel is forgiveness. Had God not forgiven us based on the sacrifice and resurrection of the Lord Jesus, then we would never have been reconciled with God and would have never received the other related things and blessings from God. And even now, if God is not patient and forgiving towards us, then it will not be possible for us to continue with Him; since our flesh, our old self, continually keeps provoking us to walk contrary to God, commit sin, do something wrong, just as Paul on the basis of His own experiences, writes in Romans 7:15-25. From the way God has revealed His name to Moses (Exodus 34:5-7), from it we learn about the longsuffering and forgiving nature of God. During the earthly ministry of the Lord Jesus, His teachings and His healings were based on forgiving people. The Apostle John wrote, “He who says he abides in Him ought himself also to walk just as He walked” (1 John 2:6). Therefore, it is evident that the Lord’s disciples, like the Lord, should be patient, longsuffering, and forgiving. They should demonstrate this attribute of the Lord in their lives; in Matthew 6:14-15, the Lord has emphasized upon this.
Now, this is common knowledge that being forgiving is an attribute of the Lord God. Everyone knows that like their Lord, the Christians too should be forgiving; even though hardly anyone actually demonstrates it in their lives. Take note that in Matthew 6:11-13, there are three things given, which the people of God have to ask from God the Father. In other Words, these three are things that do not naturally come into the lives of the Christian Believers; and neither can the Christians, through any efforts or capabilities of their own, create and develop them in their lives. The Christians can only receive these things from God; and that is why the Lord taught to ask God for them. To be able to truly forgive someone in their heart, is also one of these three attributes. But here, associated with this attribute of truly being able to forgive someone from their heart, there is a thing, which is hardly ever given any thought. Not only do we have to sincerely desire and ask for this attribute, but it has to be developed by practicing it, to make it effective in our lives. Moses in the Old Testament, and Paul in the New Testament, are two excellent examples of this. After Moses ran for his life from Egypt, to teach him to be patient, longsuffering, and keep caring with a forgiving heart, God gave him the task of shepherding dumb sheep to train Moses for 40 years. When after forty years of practical training, these attributes developed and got established in Moses, it was then that God gave him the task of delivering His rebellious, stiff-necked, disobedient people who would be murmuring for everything, out of Egypt and take them to Canaan. Paul’s Christian life was also full of difficulties, problems, opposition, people working against him, conspiring against him, and his facing betrayal from the Christian Believers and the churches (2 Corinthians 4:8-12; 11:23-28). But Paul never said anything against those who opposed him and created problems for him. Not just Moses and Paul, but all the prophets of God had to face opposition, problems, rebellions from their own people. But without saying anything against those tormenting them, they just persevered on the way shown and told to them by God, fulfilling their ministry.
What lessons in practical Christian living does this put before us? The disciple of the Lord has to be forgiving, there is no alternative. This attribute of being forgiving cannot be created and developed by anyone within themselves. They will have to pray and ask God for it, and receive it from Him. But it is not enough to just receive this attribute, they will have to develop it and make it effective, only then can it be of use in the life of a Christian. To develop it and make it effective, like for Moses, Paul, and other people of God, one has to pass through difficult and painful circumstances and experiences. Without such training, it will not become effective in our lives, and we will not become useful for the Lord. Now, in this context, please take note of what Paul had to say after writing about the persecutions and problems he had to suffer, “Therefore we do not lose heart. Even though our outward man is perishing, yet the inward man is being renewed day by day. For our light affliction, which is but for a moment, is working for us a far more exceeding and eternal weight of glory, while we do not look at the things which are seen, but at the things which are not seen. For the things which are seen are temporary, but the things which are not seen are eternal” (2 Corinthians 4:16-18). Paul is calling the severe sufferings, persecutions, opposition, hatred, etc. that he suffered throughout his Christian life as “our light affliction, which is but for a moment,” because of which, for eternity he is accumulating “a far more exceeding and eternal weight of glory.” And then, towards the end of his time on earth, without any fear or malice towards anyone, he could say “For I am already being poured out as a drink offering, and the time of my departure is at hand. I have fought the good fight, I have finished the race, I have kept the faith. Finally, there is laid up for me the crown of righteousness, which the Lord, the righteous Judge, will give to me on that Day, and not to me only but also to all who have loved His appearing” (2 Timothy 4:6-8).
This ‘prayer’ given in Matthew 6:12, in the way it is spoken by rote, without understanding it or paying any attention to it, seems very easy to say; but without God’s strength, submission to Him, help from Him, and His guidance, it is impossible to carry it out. It is not easy even for the true, surrendered, obedient disciples of the Lord to go through the training of this ‘prayer.’ But those who do go through it, how many and what kind of glorious rewards they accumulate for themselves, we will only be able to know once we reach there. In the next article we will consider the third prayer topic that the Lord has given in this ‘prayer.’
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.