पाप और उद्धार को समझना – 35
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पाप का समाधान - उद्धार - 32
कुछ संबंधित प्रश्न और उनके उत्तर (2)
पिछले लेख में हमने उद्धार से संबंधित कुछ सामान्यतः पूछे जाने वाले प्रश्नों को देखा था। आज भी हम प्रश्नों की इसी शृंखला को ज़ारी रखेंगे, और एक अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न को देखेंगे।
प्रश्न: क्या उद्धार खोया जा सकता है? क्या व्यक्ति का उद्धार उससे वापस लिया जा सकता है?
उत्तर: जैसा हम उद्धार से संबंधित पिछले लेखों में बारंबार देखते चले आ रहे हैं, परमेश्वर ने अपने अनुग्रह में होकर हमें उद्धार एक उपहार के समान मुफ़्त में दिया है। उसका दिया गया यह उद्धार अनन्तकालीन है; कभी समाप्त नहीं होगा; कभी वापस नहीं लिया जाएगा; कोई व्यक्ति किसी भी रीति से अपने उद्धार को खो नहीं सकता है।
इस प्रश्न के उत्तर को समझने के लिए, पहले परमेश्वर के कुछ गुणों का एक संक्षिप्त अवलोकन आवश्यक है; और फिर उन गुणों के आधार पर हम उत्तर को बेहतर समझने पाएंगे।
परमेश्वर के गुण: संक्षेप में परमेश्वर के कुछ गुण और चरित्र हैं:
* वह ईमानदार है, कभी झूठ नहीं बोलता है और कभी धोखा नहीं देता है (तीतुस 1:2)।
* वह न तो कभी गलती करता है, और न कभी बदलता है (इब्रानियों 6:17-18; याकूब 1:17)।
* वह जो कहता है, वही करता है (गिनती 23:19; भजन 89:34), और जो वह कहता है, वह हो कर रहता है, कोई उसे रोक नहीं सकता है।
* वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर है (उत्पत्ति 17:1; प्रकाशितवाक्य 21:22)। कोई भी, किसी भी रीति से, किसी भी शक्ति, बुद्धि, या युक्ति से, उस पर या उसकी योजनाओं और इच्छाओं पर प्रबल नहीं हो सकता है, उन्हें बदल नहीं सकता है, मिटा नहीं सकता है।
* वह हर बात के बारे में सब कुछ जानता है – सर्वज्ञानी है – आरंभ से ही अन्त को भी जानता है (यशायाह 46:10)।
* उसका वचन मनुष्य के अंदर के सबसे गहरे स्थान तक भी छेदता और उसे खोलता है, और हर बात को स्पष्ट एवं प्रकट कर देता है (इब्रानियों 4:12)।
* वह मनुष्य के विचारों के पीछे की मनसा तक को भी भली-भांति जानता है (1 इतिहास 28:9)।
* वह समय द्वारा सीमित नहीं है – उसके लिए समय का कोई अस्तित्व नहीं है (भजन 90:4; 2 पतरस 3:8) – वह कभी नहीं बदलता, कल आज और युगानुयुग तक एक समान है (मलाकी 3:6; इब्रानियों 13:8)।
इसलिए परमेश्वर या परमेश्वर से संबंधित कोई भी धारणा या विचार यदि उसके उपरोक्त तथा बाइबल में वर्णित अन्य गुणों के अनुरूप नहीं है, तो वह धारणा या विचार अपूर्ण है, गलत है, अस्वीकार्य है; उसका तिरस्कार कर देना चाहिए। चाहे वह धारणा या विचार रखने वाला व्यक्ति परमेश्वर के प्रति कितने भी श्रद्धा या भक्ति-भाव रखने वाला क्यों न हो, किन्तु उसके वचन से असंगत किसी का भी कोई भी विचार परमेश्वर को कदापि स्वीकार्य नहीं है। इस अति-महत्वपूर्ण बात को ध्यान में रखते हुए बाइबल के परमेश्वर ने उद्धार के विषय जो कहा है, उसमें से कुछ बातें, और उनसे संबंधित अभिप्रायों को देखते हैं:
उद्धार के विषय परमेश्वर के कुछ कथन:
* उसका उद्धार अनन्तकाल का है (2 तिमुथियुस 2:10; इब्रानियों 5:9) – ऐसी कोई भी शिक्षा जो इसे अस्वीकार, या इसका इनकार करती है, तो ऐसा करने से वह शिक्षा यह अभिप्राय देती है कि परमेश्वर और उसका वचन झूठा है, अविश्वासयोग्य है, उनमें त्रुटियाँ तथा झूठे आश्वासन हैं।
* चाहे हम अविश्वासी भी हों, तो भी वह हमारे प्रति विश्वासी बना रहेगा (2 तिमुथियुस 2:13 – यहाँ पद 12 उनके लिए है जो उद्धार के लिए प्रभु की पुकार को अस्वीकार करते रहते हैं; फिर मृत्योपरांत प्रभु भी उन्हें अस्वीकार कर देगा; 13 पद उद्धार पा लेने वालों, विश्वास करने वालों, के प्रति परमेश्वर का रवैया है); और वह हमें कभी नहीं छोड़ेगा न त्यागेगा (इब्रानियों 13:5)।
* इसी प्रभु परमेश्वर ने यूहन्ना 10:27-29 में अपने लोगों/भेड़ों के लिए कहा है कि:
** वह अपनी भेड़ों को जानता है
** वह उन्हें अनन्त जीवन देता है
** वे कभी नाश न होंगी
** कोई उन्हें उसके हाथों से नहीं छीन सकता है
अभिप्राय यह कि प्रभु के उपरोक्त दावों के होते हुए भी यह धारणा रखने और मानने/सिखाने कि उद्धार जा सकता है, का अर्थ यह कहना और सिखाना है कि:
* परमेश्वर झूठा तथा अविश्वासयोग्य है – उसके कहने और करने में फर्क है। उसके दावों के बावजूद न तो वह अपनी भेड़ों की सम्पूर्ण वास्तविकता को जानता है, न उन्हें अनन्त जीवन देता है, और न ही यह सुनिश्चित कर सकता है कि वे कभी नाश नहीं होंगी। अर्थात, इसलिए यह भी संभव है कि अपने दावे के बावजूद वह अपने विश्वासी के प्रति विश्वासयोग्य बना न रहे और किसी समय पर, किसी अनपेक्षित स्तिथिति या व्यवहार के कारण उसे त्याग दे या छोड़ दे।
* सृष्टिकर्ता परमेश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है – वरन सृजा गया प्रधान स्वर्गदूत लूसिफर, जो परमेश्वर के विरुद्ध की गई बगावत के कारण शैतान बन गया, सृष्टिकर्ता परमेश्वर से अधिक शक्तिशाली है – वह परमेश्वर के हाथों में से उसके उद्धार पाए हुए लोगों को अपनी किसी युक्ति अथवा शक्ति द्वारा छीन के ले जा सकता है (मत्ती 12:29; मरकुस 3:27 के साथ मिलाकर देखिए), और परमेश्वर कुछ नहीं करने पाता।
* परमेश्वर गलती कर सकता है – वह सर्वज्ञानी नहीं है; अर्थात, आदि से अन्त को नहीं जानता है, मनुष्य के विचारों और मनसा, उसके हृदय की गहराइयों को नहीं जानता है। तात्पर्य यह कि जब उसने उद्धार को अनन्तकाल का कहा, तब उसे पता नहीं था कि लोग उसके अनुग्रह का दुरुपयोग करेंगे और उद्धार पा लेने को निश्चिंत होकर पाप करते रहने का आधार बना लेंगे। उसने गलती से एक बात तो कह दी, किन्तु अब उसे निभा पाने में असमर्थ है, इसलिए अब चुपचाप से लोगों से उनके उद्धार को वापस ले लेता है।
* उद्धार पा लेने के बाद मनुष्य अपने कर्मों और व्यवहार से इतना धर्मी बना रह सकता है कि परमेश्वर को उसे स्वर्ग में स्वीकार करना ही पड़ेगा (यशायाह 64:6; अय्यूब 14:4; 15:4; 25:4-6; इफिसियों 2:1-9 से तुलना करें)। यदि यह संभव होता, तो मनुष्य फिर उद्धार से पहले भी यह कर सकता था; तो फिर प्रभु यीशु मसीह को संसार में आने, अपमानित होने, एक घृणित मृत्यु सहने की क्या आवश्यकता थी? वह तो स्वर्ग से ही मनुष्यों को प्रोत्साहित कर सकता था, उनका मार्गदर्शन कर सकता था, कि अपने कर्मों के द्वारा उद्धार प्राप्त कर लें।
उपरोक्त अभिप्रायों से प्रकट है कि उद्धार के खोए जा सकने का विचार परमेश्वर के गुणों, चरित्र, अनुग्रह, और प्रेम, के विरुद्ध कितना गलत और निन्दनीय है; इसलिए पूर्णतः अस्वीकार्य है। ऐसा विचार रखने वाले को दीन होकर पश्चाताप करने, परमेश्वर से उसके विरुद्ध ऐसे कुविचार रखने के लिए क्षमा माँगने की आवश्यकता है। इससे संबंधित एक अन्य प्रश्न उठाया जाता है कि यदि उद्धार कभी नहीं जा सकता है, तब तो परमेश्वर ने मनुष्यों को पाप करने का लाइसेंस दे दिया है - एक बार उद्धार पा लो, और फिर उसके बाद जैसा चाहो वैसा करो, क्योंकि उद्धार तो जाएगा नहीं, स्वर्ग तो हर हाल में मिलेगा ही। यह भी शैतान द्वारा फैलाई जाने वाली एक गलत शिक्षा, एक गलत धारणा है, और इसे हम कल देखेंगे।
प्रभु यीशु ने तो अपना काम कर के दे दिया है; किन्तु क्या आपने उसके इस आपकी ओर बढ़े हुए प्रेम और अनुग्रह के हाथ को थाम लिया है, उसकी भेंट को स्वीकार कर लिया है? या आप अभी भी अपने ही प्रयासों के द्वारा वह करना चाह रहे हैं जो मनुष्यों के लिए कर पाना असंभव है।
अभी के लिए, आप से विनम्र निवेदन है कि यदि आप ने अभी तक प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार नहीं किया है, उसके शिष्य नहीं बने हैं, तो आज और अभी, जब यह अवसर आपके पास है, तो इसे व्यर्थ न जाने दें; प्रभु के इस आह्वान को स्वीकार कर लें, अपने जीवन में कार्यान्वित कर लें। कल तो क्या, अगले पल को भी किसी ने नहीं देखा है, कब क्या हो जाए, कोई नहीं जानता है; इसलिए अवसर को बहुमूल्य समझें और सही निर्णय ले लीजिए। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ आपके द्वारा की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को आशीषित तथा स्वर्गीय जीवन बना देगा। अभी अवसर है, अभी प्रभु का निमंत्रण आपके लिए है - उसे स्वीकार कर लीजिए।
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Understanding Sin and Salvation – 35
The Solution For Sin - Salvation - 32
Some Related Questions and their Answers (2)
In the previous article, we had seen some commonly asked questions regarding salvation, and their answers. We will continue looking at further questions, and today we will be considering one very important question.
Question: Can salvation be lost? Can a person’s salvation be taken away from him?
Answer: As has repeatedly been stated in the previous articles concerning salvation, God has given salvation to us in His grace, as a free gift. This salvation that He has bestowed upon us is eternal; it will never come to an end; it will never be taken back; no person, once saved, can ever lose his salvation by any means.
To understand this answer, we need to first do a quick review of some of God’s characteristics and attributes; and then based on them, we will be able to understand the answer better.
Some Attributes and Characteristics of God, in brief, are:
* He is completely honest, and never lies, never deceives anybody (Titus 1:2).
* He neither makes any mistake, nor ever changes (Hebrews 6:17-18; James 1:17).
* He always does what He says (Numbers 23:19; Psalms 89:34), and whatever He has said, always happens; no one can stop it from being fulfilled.
* He is the omnipotent God (Genesis 17:1; Revelations 21:22). No one, by any means, or power, or wisdom, or trick, can ever overpower or outwit Him, His will, or His plans - they cannot be changed or overturned by anyone.
* He knows everything about everything - is omniscient - He knows the end from the beginning (Isaiah 46:10).
* His Word pricks and lays open the deepest part of man, exposing and making evident everything inside him (Hebrews 4:12).
* He very well knows even the intentions behind the thoughts of man (1 Chronicles 28:9).
* He is not limited by time - time does not exist for Him (Psalm 90:4; 2 Peter 3:8) - He never changes, remains the same, yesterday, today and tomorrow (Malachi 3:6; Hebrews 13:8).
Therefore, if any notion, any thought or point-of-view is not in accordance with the attributes and characteristics of God, then it is false, incomplete, unacceptable, and has to be rejected. It is absolutely inconsequential, how pious and religious the person having such wrong notions is, but anything inconsistent with what God’s Word teaches about God, is never to be accepted from anyone. Keeping this extremely important fact in mind, let us look at some of the things that the God of the Bible has stated about salvation, and their implications.
Some Statements of God regarding Salvation:
* His salvation is eternal (2 Timothy 2:10; Hebrews 5:9) - any teaching or doctrine that negates or rejects these verses, implies that God is a liar and His Word is a lie; they cannot be relied and believed upon, there are errors and false assurances in them.
* Even if we are unbelieving and faithless towards Him, yet He always remains faithful towards us (2 Timothy 2:13; Note - this verse 13 is God’s attitude towards those who are Believers, who have obtained salvation; the preceding verse 12 is regarding those who keep on rejecting God’s call to salvation to them; therefore, after their death, God too will reject them); and He has promised to never leave nor forsake us, ever (Hebrews 13:5).
* That is why, in John 10:27-29, God has said about His sheep, i.e., His people:
** He knows them
** He gives them eternal life
** They will never perish
** No one can snatch them out of His hands
Therefore, the evident implication of the above statements is that despite the afore-mentioned facts about God and His salvation, if someone still maintains, believes and teaches that salvation can be lost, then what that person believes in and teaches is tantamount to saying:
* God is a liar, and cannot be relied upon - there is no consistency between what He says and what He does. Despite His claims to the contrary, He neither knows absolutely everything about all His sheep, nor does He give them irrevocable eternal life, nor can He make sure that they will never perish. Therefore, He cannot be relied upon to always remain faithful towards His Believers, and is liable to abandon His people at any time, because of some unforeseen, unexpected circumstance or works.
* The Creator God is not omnipotent - rather, the created archangel Lucifer, who became Satan because of rebelling against God, he is more powerful and wiser than God - because he can by his power and devious tricks, snatch the people away, out of the hands of God (read Matthew 12:29 along with Mark 3:27), and God can do nothing about it, He remains helpless about it.
* God can make mistakes - He is not omniscient; i.e., does not actually know the end from the beginning, does not really know all that is in the heart of man, nor knows the intents and thoughts of man. Meaning, when He stated salvation to be “eternal”, He had not actually realized that people will misuse His grace; and having been saved, will become complacent about salvation, continue to sin with impunity, being assured of heaven for eternity. He erroneously gave an assurance, a statement, and is now incapable of fulfilling it, therefore quietly, He takes away the salvation from people.
* After salvation, man can, through his works and behavior, make himself so holy and righteous, that God will be compelled to accept him in heaven (compare this thought with Isaiah 64:6; Job 14:4; 15:4; 25:4-6; Ephesians 2:1-9). If this would be possible, then man could have done the same works and behavior before being saved, and there would have been no need for the Lord Jesus Christ to come to earth, be humiliated, and suffer a shameful and demeaning death? Instead, He could have encouraged and guided people from heaven itself, how they could be saved and become righteous by their works and behavior.
It is clear from the above, how wrong and abhorrent to God’s attributes, characteristics, love, and grace this notion of salvation being lost is; and is absolutely unacceptable. Anyone harboring such thoughts should repent, humble himself, and ask for God’s forgiveness for allowing such thoughts against God to come in him. Another related question that is raised with this question is that if salvation can never be lost, then God has given an unbridled licence to sin to man - be saved once, and after that do what you feel like, live as you want to, since salvation will not be lost, entry into heaven will never be denied. This too is a wrong teaching taught and popularized by Satan, and we will start considering it from the next article.
For now, rest assured that the Lord Jesus has done His part; He has made ready and available salvation with all the benefits freely to everyone; but have you accepted His offer? Have you taken His hand of love and grace extended towards you and the free gift He offers; or are you still determined to do that which no man can ever accomplish through his own efforts?
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.