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आरम्भिक बातें – 33
बपतिस्मों – 12
बपतिस्मा - किस विधि से?
पिछले दो लेखों में हमने परमेश्वर के वचन से देखा है कि प्रभु यीशु द्वारा कहा गया बपतिस्मा हमेशा केवल वयस्कों को ही दिया गया, उन्हीं के द्वारा लिया गया है। अर्थात, उनके द्वारा, जिन्होंने सुसमाचार को सुन कर, उसे स्वीकार किया और उस पर विश्वास किया, और फिर या तो बपतिस्मे के लिए सहमत थे, अथवा उन्होंने उसकी माँग की थी। बाइबल में कभी भी बपतिस्मा किसी को भी निष्क्रियता के साथ नहीं दिया गया है, अर्थात, किसी भी आयु के किसी ऐसे व्यक्ति को जिसे कोई अन्य व्यक्ति ‘बपतिस्मे’ के लिए लेकर आया, और बपतिस्मा लेने वाले उस जन को यह पता ही नहीं कि उसके साथ क्या हो रहा है और क्यों; वह उस संपूर्ण प्रक्रिया में, जो बिना उसके द्वारा उसे समझे, उसकी सहमति अथवा अनुमति के की गई, बस एक मूक, निष्क्रिय भागीदार बना रहा; और यह हमेशा ही शिशुओं या बच्चों के बपतिस्मे के साथ देखा जाता है, किन्तु बाइबल में लिखे किसी भी बपतिस्मे के साथ कभी भी नहीं।
जैसा हम पहले देख चुके हैं, मूल यूनानी भाषा के शब्द “बैपटिज़ो”, जिसे हिन्दी में “बपतिस्मा” लिखा गया है, का नए नियम के लोगों के लिए अर्थ था किसी तरल पदार्थ में डुबो देना, उस से ढाँप दिया जाना। इसलिए उस समय उनके लिए “बैपटिज़ो” के साथ कोई अन्य ऐसा शब्द जोड़ने और उपयोग करने की आवश्यकता ही नहीं थी जिस से यह प्रकट किया जाए की तात्पर्य डुबकी देने का है। यह आवश्यकता तो बहुत बाद में उठी, जब बपतिस्मे को विभिन्न रीतियों और विधियों से दिया जाने लगा; और तब यह भी बताना आवश्यक हो गया कि बपतिस्मा डुबकी से था, या छिड़काव से या पानी को माथे पर लगाने के द्वारा, या अन्य किसी विधि से। उसके मूल यूनानी स्वरूप में, नए नियम के मूल लेखों में, इस शब्द का एक ही अर्थ था - डुबकी देना। इसीलिए इसे कभी भी किसी अन्य शब्द के द्वारा परिभाषित करने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी, और न ही किया गया, क्योंकि शब्द का शब्दार्थ ही यही था। और इस तथ्य को हमेशा ध्यान में रखने की आवश्यकता है, विशेषकर तब, जब बिना डुबकी के दिए गए तथाकथित बपतिस्मों को जायज़ ठहराने वाले तर्कों का सामना करना पड़े।
लेकिन फिर भी, नए नियम के लेखों में, इस शब्द “बैपटिज़ो” के साथ, जब भी इसका प्रयोग बपतिस्मा लेने या देने के लिए किया गया है, कुछ और शब्द भी प्रयोग किए गए हैं जो स्पष्ट कर देते हैं कि तात्पर्य डुबकी द्वारा बपतिस्मा देने से है, न कि छिड़काव या अन्य किसी विधि के द्वारा। इस से संबंधित बाइबल के कुछ पद देखिए:
यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले द्वारा दिए जाने वाले बपतिस्मे के लिए, मत्ती 3:6 में लिखा है कि “यरदन नदी में उस से बपतिस्मा लिया”; यहाँ पर “में” के प्रयोग के द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है कि बपतिस्मे के लिए लोग नदी में उतरे थे। यदि ऐसा नहीं हुआ होता, तो फिर लिखा जाता “यरदन नदी के पानी से बपतिस्मा लिया।”
यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले की सेवकाई के लिए, यूहन्ना 3:23 में लिखा है “और यूहन्ना भी शालेम् के निकट ऐनोन में बपतिस्मा देता था। क्योंकि वहां बहुत जल था और लोग आकर बपतिस्मा लेते थे।” यदि यूहन्ना को केवल छिड़काव या पानी को लगाना ही था, तो उसे बहुत जल वाले स्थान की क्या आवश्यकता थी? उसका काम तो थोड़े से पानी से ही छिड़काव या लगाने के द्वारा हो जाता। यूहन्ना लोगों को भी कह सकता था कि जब वे उसके पास बपतिस्मे के लिए आएँ तो अपने साथ थोड़ा सा पानी भी लेते आएँ, यदि इतने ही की आवश्यकता थी। तब तो उसे नदी के किनारे होने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी, वह लोगों के घरों में ही उन्हें “बपतिस्मा” दे सकता था।
प्रभु यीशु के बपतिस्मे के लिए मत्ती 3:16 और मरकुस 1:10 में लिखा है कि बपतिस्मे के तुरंत बाद प्रभु पानी में से निकल कर ऊपर आया। वह निकल कर ऊपर तब ही आ सकता था, जब वह पहले पानी के अंदर उतरा हो। और यदि केवल छिड़काव द्वारा या पानी के लगाए जाने के द्वारा बात बन जाती, तो उसे पानी में उतारने की क्या आवश्यकता थी? यदि वह पानी में उतरा और फिर पानी में से निकलकर ऊपर आया, तो अभिप्राय स्पष्ट है कि प्रभु का बपतिस्मा, “बैपटिज़ो” शब्द के शब्दार्थ की विधि से - डुबकी के द्वारा हुआ था। अब यदि प्रभु यीशु का ही बपतिस्मा डुबकी से हुआ है, तो क्या प्रभु के अनुयायियों का उससे किसी भिन्न विधि से हो सकता है; या किसी भिन्न विधि से किया गया जायज़ माना जा सकता है?
फिलिप्पुस द्वारा कूश देश के खोजे को दिए गए बपतिस्मे को देखिए; प्रेरितों 8:36-39 लिखा है कि मार्ग के किनारे जल की जगह देखकर उस खोजे ने बपतिस्मा लेने की इच्छा व्यक्त की (पद 36)। यदि बात केवल छिड़काव द्वारा या पानी के लगाए जाने के द्वारा बन जाती, तो उतने भर के लिए पर्याप्त पीने का पानी तो खोजा भी अपने साथ ले कर चल ही रहा होगा, यह वह कुछ प्रतीक्षा कर के किसी ऐसे स्थान से जहाँ उन्हें एक कटोरी साफ पानी मिल जाता, यह कर सकते थे; और उसे मार्ग के किनारे के पानी के प्रयोग की कोई आवश्यकता नहीं होती। साथ ही पद 38-39 पर ध्यान कीजिए, जहां स्पष्ट लिखा हुआ है कि खोजा और फिलिप्पुस, दोनों ही जल के अंदर गए और फिर जल में से बाहर आए। उनके लिए यह करना तो तब ही आवश्यक था, यदि वे “बैपटिज़ो” शब्द के शब्दार्थ की विधि से कार्य करते; अन्यथा उन्हें मार्ग के किनारे के पानी के अंदर जाने की क्या आवश्यकता थी?
परमेश्वर के वचन में जहाँ कहीं भी बपतिस्मा देने के बारे में लिखा गया है, साथ ही यह संकेत भी दे दिया गया है कि यह डुबकी के द्वारा किया गया। अन्यथा, किसी भी अन्य विधि से दिए गए किसी भी बपतिस्मे का कोई भी उल्लेख नहीं है; और न ही घरों में बर्तनों या मटकों में रखे हुए पानी का, या कुएं से पानी लेकर, अथवा किसी छोटे या उथले नाले के पानी के प्रयोग द्वारा जिसके पानी से छिड़काव या पानी को लगाना किया जा सकता था, अर्थात ऐसे किसी भी पानी के स्थान में, जिसमें व्यक्ति को डुबकी न दी जा सके, बपतिस्मा देने का कोई उल्लेख नहीं है। प्रकट तात्पर्य यही है कि प्रथम कलीसिया के लिए बपतिस्मा केवल “बैपटिज़ो” शब्द के शब्दार्थ की विधि से ही था, अन्य किसी विधि से नहीं। परमेश्वर के वचन में छिड़काव, या पानी के लगाने, या अन्य किसी विधि से “बपतिस्मा” लिए या दिए जाने का कोई उल्लेख अथवा समर्थन नहीं है। बाइबल के अनुसार एकमात्र जायज़ और स्वीकार्य बपतिस्मा डुबकी का बपतिस्मा ही है; और यह स्वतः ही शिशुओं और बच्चों के बपतिस्मे को नकार देता है क्योंकि शिशुओं और बच्चों को डुबकी का बपतिस्मा देना न केवल अव्यावहारिक, वरन उनके जीवन के लिए खतरनाक भी होता।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 33
Baptisms - 12
Baptism - How?
In the previous two articles we have seen form God’s Word, the Bible that the baptism instructed by the Lord Jesus was always given and taken by adults; i.e., by those who had heard, accepted and believed the gospel, and were either consenting for it, or had asked to be baptized. In the Bible baptism has never been given passively, i.e., to a person, of any age, brought by someone else and then ‘baptized’, without his being aware of or understanding of what was being done to him, and why it was being done; he just remained a passive participant in the whole process that was carried out on him, without his knowledge or consent; as is always seen in infant or child ‘baptisms’, but this scenario is never seen in any baptism recorded in the Bible.
As we had seen earlier, the original Greek word “baptizo,” from which the English word “baptism” has been derived, to the people of the New Testament time meant being immersed or being dipped into, i.e., being covered by whatever liquid was being used for “baptizo.” So, for them there was no need to add some other words to specify that their use of “baptizo” meant being immersed or being dipped into. It was only much later, when different forms and ways of “baptism” started being practiced, that it became necessary to specify whether the “baptism” was by immersion, or by sprinkling, or by application of water to the forehead, or in some other manner. In its original form, and in the use of the Greek word “baptizo” in the original writings of the New Testament books and letters, it only meant one thing - being immersed into. That is why this immersion has never been specified through use of any other defining or clarifying word, since the word by itself meant just that. And this needs to be borne in mind when considering the various arguments put forward to justify the so-called non-immersion baptisms.
But still, with the use of this word “baptizo” in the New Testament texts, there are other clear and unambiguous indicators that whenever baptism was given or taken, it always implied immersion into the water, and never sprinkling or anything else. Consider some verses:
For the baptism given by John the Baptist, in Matthew 3:6 it is said that people came to John “and were baptized by him in the Jordan.” The use of “in” clarifies that the people being baptized went into the river Jordan. Had it not been so, it would have been written “using the water of the river Jordan.”
For John’s baptism, it says in John 3:23 that “Now John also was baptizing in Aenon near Salim, because there was much water there”; why would John use a place having much water, if all he needed was a little water to sprinkle or apply? John could have told the people to bring a little water with them when they came to him for baptism, if that is all that was required. Then there would have been no need for him to be at the riverside either, he could have given it in their homes.
For the baptism of the Lord Jesus, it is written in Matthew 3:16 and Mark 1:10 that immediately after being baptized the Lord came up from the water. The implication is obvious, He could come up from the water, only if He had first gone into it. And, why would He need to go into water, if mere sprinkling or application of water would have sufficed and served the purpose? If He went into the water, it could only be because of the literal meaning of the word “baptizo” - to be immersed or dipped into for being baptized. Now, if the baptism of the Lord Himself was by immersion, then can the followers of the Lord Jesus be baptized in any other manner; or, any ‘baptism’ done in some other manner be accepted as correct?
In the baptism of the Ethiopian Eunuch by Philip, it says in Acts 8:36-39, that on seeing some water by the roadside, the Eunuch asked to be baptized (verse 36). If all that was required was sprinkling or application of water, the Eunuch would have been carrying enough drinking water for that with him, or he could have waited till they reached some place where they could get a cup of clean water, which would have been sufficient, and there would have been no need for him to ask for baptism from a roadside place of water. Also, consider verse 38-39, where it is clearly mentioned that Philip and the Eunuch went into the water and came out of it. This would have been necessary only to fulfil the literal meaning of “baptizo”, not otherwise.
Wherever the act of baptism has been mentioned in God’s Word, an indicator has also been provided that it was through immersion. Otherwise, there is no mention of any “baptism” having being given by using water stored in pots in the houses, or by drawing from a well, or taking it from a small or shallow stream, etc., i.e., some water body into which the person cannot be immersed into water, but still had mere sprinkling or an application of water served the purpose, then it could have been done. The evident conclusion is that at the time of the first Church, as meant by the word “baptizo”, baptism was always and only by immersion. There is no evidence form God’s Word to support the concept of sprinkling or application of water or any other method for baptizing anyone. The only Biblically acceptable baptism is baptism by immersion; and this by itself rules out infant or child baptism, since it not only would be impractical but also dangerous to the lives of infants and children.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.