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आरम्भिक बातें – 91
विश्वासियों का न्याय – 5
इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छठी आरम्भिक बात “अन्तिम न्याय” के इस अध्ययन में हम बाइबल का एक सामान्यतः न तो पहचाना और न ही एहसास किया जाने वाला तथ्य देख रहे हैं कि न्याय वास्तव में नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों का होगा, उद्धार पाने के बाद उन्होंने जैसा जीवन पृथ्वी पर जिया है, उसके अनुसार उन्हें दिए जाने वाले प्रतिफलों और परिणामों को निर्धारित करने के लिए। यह न्याय यह निर्णय करने के लिए नहीं होगा कि कौन स्वर्ग जाएगा और कौन नरक, क्योंकि यह बात तो यहीं, इसी पृथ्वी पर, व्यक्ति की मृत्यु से पहले ही, दो बातों के आधार पर, निश्चित हो जाती है। पहली बात यह कि व्यक्ति की अनन्त दशा, पृथ्वी पर किए गए उसके कर्मों के आधार पर निर्धारित नहीं होती है, वरन पूर्णतः परमेश्वर के अनुग्रह पर निर्भर है, जो वह उन्हें प्रदान करता है जिन्होंने अपने पापों के लिए पश्चाताप करके प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार कर लिया है। और दूसरी बात, यह निर्णय व्यक्ति के पृथ्वी का जीवन जी लेने के बाद नहीं, बल्कि तब किया जाता है जब व्यक्ति इस पृथ्वी पर जीवित होता है, और उस व्यक्ति द्वारा स्वयं ही लिया जाता है। यदि व्यक्ति ने उसे प्रस्तावित किए गए परमेश्वर के अनुग्रह को स्वीकार कर लिया, अपने पापों से पश्चाताप करके प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार कर लिया है, तो फिर, मृत्यु के बाद वह वहीं जाएगा जहाँ प्रभु है, अर्थात स्वर्ग में। किन्तु यदि पृथ्वी पर रहते हुए उसने परमेश्वर के अनुग्रह का तिरस्कार कर दिया है, अपने पापों से पश्चाताप नहीं किया है, और प्रभु यीशु को उद्धारकर्ता ग्रहण नहीं किया है, तो फिर उसके द्वारा प्रभु परमेश्वर का तिरस्कार करके, प्रभु से दूर रहने के उसके निर्णय के अनुसार, उसे वहीं भेज दिया जाएगा जहाँ प्रभु नहीं है, अर्थात नरक में।
क्योंकि जो नरक जाते हैं, अर्थात, अविश्वासी, उद्धार नहीं पाए हुए, जिन्होंने पश्चाताप नहीं किया है, वे वहाँ अनन्त विनाश में हैं, वह सर्वाधिक संभव दण्ड भोग रहे हैं, इसलिए उनके जीवनों का न्याय या आँकलन करने का क्या औचित्य है, क्योंकि उस न्याय से उनके दण्ड पर किसी प्रकार का कोई प्रभाव भी नहीं पड़ेगा। लेकिन मसीही विश्वासी, क्योंकि उन्होंने उद्धार पाने के बाद पृथ्वी पर जिस तरह से जीवन जिया है, उन्हें उसके लिए परमेश्वर से प्रतिफल और परिणाम मिलने हैं। इसलिए, उनके जीवनों का न्याय या आँकलन होगा, उनके परिणाम और प्रतिफल निर्धारित किए जाएँगे और उन्हें दिए जाएँगे। पिछले लेख में हमने इस बात की पुष्टि प्रभु द्वारा दिए गए गेहूं और जंगली बीज के दृष्टान्त तथा उस के सहायक खण्डों से देखी थी, कि “जंगली बीजों” अर्थात जो परमेश्वर के लोग नहीं हैं, उनका न्याय या आँकलन नहीं किया गया, बल्कि “गेहूं” का, अर्थात जो परमेश्वर के लोग हैं, उनका किया गया। आज हम इसी की पुष्टि बाइबल के एक और सहायक खण्ड से देखेंगे।
पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस ने 1 कुरिन्थियों 3:12-15 में लिखा है, “और यदि कोई इस नेव पर सोना या चान्दी या बहुमूल्य पत्थर या काठ या घास या फूस का रद्दा रखता है। तो हर एक का काम प्रगट हो जाएगा; क्योंकि वह दिन उसे बताएगा; इसलिये कि आग के साथ प्रगट होगा: और वह आग हर एक का काम परखेगी कि कैसा है। जिस का काम उस पर बना हुआ स्थिर रहेगा, वह मजदूरी पाएगा। और यदि किसी का काम जल जाएगा, तो हानि उठाएगा; पर वह आप बच जाएगा परन्तु जलते जलते।” इससे पहले के पदों 1 कुरिन्थियों 3:9-11 में, पौलुस, परमेश्वर के सेवकों के रूप में अपना और अपुल्लोस का उदाहरण दे रहा कि वे परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपे गए कार्यों में लगे हुए हैं। और पद के अन्त में पौलुस मसीही विश्वासियों को संबोधित कर के कहता है कि “…परन्तु हर एक मनुष्य चौकस रहे, कि वह उस पर कैसा रद्दा रखता है” यहाँ पर ‘उस’ मसीह यीशु के लिए आया है (पद 11), और फिर पद 12 विश्वासियों के उन्हें परमेश्वर द्वारा सौंपे गए कार्यों को प्रभु यीशु रूपी नेव पर बनाने के लिए है। यह नेव तो अपरिवर्तनीय है, क्योंकि यह नेव प्रभु यीशु मसीह – वह वचन जो देहधारी हुआ और हमारे बीच में वास किया (यूहन्ना 1:1-2, 14), अर्थात प्रभु का वचन बाइबल है (साथ ही इफिसियों 2:20 भी देखिए)। प्रत्येक मसीही विश्वासी को इसी नेव पर उसी वचन के अनुसार, अपनी व्यक्तिगत मसीही सेवकाई – जो परमेश्वर ने पहले से उस के लिए निर्धारित की है (इफिसियों 2:10) बनानी और बढ़ानी है।
जैसा पद 12 में लिखा है, विश्वासी दो प्रकार की सामग्री के साथ बना सकते हैं, “…सोना या चान्दी या बहुमूल्य पत्थर…,” अर्थात बहुमूल्य तथा आग द्वारा नष्ट न होने वाले, और प्रभु के लिए योग्य या उचित वस्तुएँ; या फिर “…काठ या घास या फूस…,” अर्थात आग से नष्ट होने वाली, साधारण, और प्रभु के अयोग्य वस्तुएँ। फिर पौलुस पद 13 में “उस दिन” अर्थात न्याय के दिन सभी के कामों के परखे जाने या आँकलन किए जाने की बात करता है। ध्यान कीजिए कि यहाँ पर सभी से उसका तात्पर्य मसीही विश्वासियों से है, जिन्हें परमेश्वर ने, उनके उद्धार पाने और परमेश्वर की सन्तान बन जाने के बाद, कार्य सौंपे हैं। परमेश्वर चाहता है कि उसकी सन्तान उसके राज्य के लिए काम करें, जैसा पिता ने अपनी सन्तानों को उसकी बारी में जाकर काम करने के लिए कहा (मत्ती 21:28-29)। न्याय के या आँकलन के दिन, प्रत्येक के कार्य को आग से परखा जाएगा कि कौन सा बना रहता है, बच जाता है, और कौन सा नष्ट हो जाता है – अर्थात, बहुत बारीकी से, बड़े ध्यान से, समस्त कार्यों का आँकलन, उनकी गुणवत्ता और सँख्या के अनुसार किया जाएगा।
फिर पद 14 और 15 आग से परखे जाने के परिणाम के बारे में बताता हैं – वे काम जो आँकलन में से सुरक्षित निकाल आते हैं, उनके लिए प्रतिफल दिए जाएँगे; लेकिन जो सुरक्षित नहीं रहते, बचते नहीं हैं, अर्थात जो नाश हो जाएँगे, जो अयोग्य हैं, उन्हें कोई प्रतिफल नहीं मिलेगा। पद 12 में दी गई बनाने की सामग्री के अनुसार, केवल वह जो, “…सोना या चान्दी या बहुमूल्य पत्थर…,” अर्थात बहुमूल्य तथा आग में नष्ट न होने वाले, और प्रभु के लिए योग्य या उचित वस्तुओं से बना है, इस आँकलन में बचेगा, और प्रतिफल पाएगा। जिन्होंने “…काठ या घास या फूस…,” अर्थात आग से नष्ट होने वाली, साधारण, और प्रभु के अयोग्य वस्तुओं से बनाया है, वह जल जाएगा, अर्थात जिन्होंने प्रभु के अयोग्य जीवन जिया है, उन्हें अनन्तकाल के लिए हानि उठानी पड़ेगी, उन्हें कोई प्रतिफल नहीं दिए जाएँगे। लेकिन साथ ही इस बात पर भी ध्यान दीजिए कि पृथ्वी पर इस प्रकार का अयोग्य जीवन जीने वाले विश्वासियों के लिए क्या लिखा गया है – प्रभु उन्हें बाहर नहीं फेंक देगा, वे फिर भी स्वर्ग में प्रवेश पाएँगे, लेकिन अनन्तकाल तक उनके पास कोई प्रतिफल नहीं होंगे, क्योंकि प्रभु के लिए काम करने और प्रतिफल पाने का समय और अवसर समाप्त हो गया है। पौलुस ने पवित्र आत्मा के द्वारा 2 कुरिन्थियों 5:10 में भी इसकी पुष्टि की है “क्योंकि अवश्य है, कि हम सब का हाल मसीह के न्याय आसन के सामने खुल जाए, कि हर एक व्यक्ति अपने अपने भले बुरे कामों का बदला जो उसने देह के द्वारा किए हों पाए।” एक बार फिर से ध्यान दीजिए कि पौलुस न तो अविश्वासियों से, और न ही अविश्वासियों के बारे में बात कर रहा है; बल्कि मसीही विश्वासियों से और मसीही विश्वासियों के बारे में बात कर रहा है। साथ ही उसके द्वारा “हम” के उपयोग पर ध्यान दीजिए, जो यह दिखाता है कि पौलुस भी मसीह के न्याय सिंहासन के सामने अपने जीवन, अपनी सेवकाई, और अपने कार्यों का हिसाब देने के लिए खड़ा होगा, और प्रभु से उपयुक्त प्रतिफल प्राप्त करेगा।
अगले लेख में, इसी विषय को ज़ारी रखते हुए, हम इस बात के कुछ तात्पर्यों को देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 91
Judgment of Believers – 5
In our study on “Eternal Judgment,” the sixth elementary principle stated in Hebrews 6:1-2, we are currently studying a hardly recognized and realized Biblical fact that the judgment will be of truly Born-Again Christian Believers, to determine their rewards and consequences, for the lives they have lived since after their salvation. This judgment will not be to determine who goes to heaven and who goes to hell since this is determined before the death of the person, while he is on earth, for two reasons. Firstly, this eternal destiny is not dependent upon anyone’s works of any kind, but is solely on the grace of God given to everyone who repents of his sins and accepts the Lord Jesus as their savior. And secondly, this decision is made not after a person’s leaving earthly life, but while the person is alive on earth, by the person himself. If the person has accepted the grace God has extended to him, has repented of his sins and accepted the Lord Jesus as his savior, then, after death, he will go to be where the Lord is, i.e., in heaven. But if he has rejected God’s grace, has not repented of his sins, and has rejected the Lord Jesus to be his savior while on earth, then he, as per his decision to reject the Lord God and stay away from Him, will be sent to the place where the Lord God is not there, i.e., to hell.
Since those going to hell, i.e., the unbelievers, the unsaved, the unrepentant, are already under eternal condemnation, and are already receiving the maximal possible punishment that could be given to them, therefore, it makes no sense to evaluate their life for other things, and that evaluation will not in any way affect what they are undergoing. But the Christan Believers, since they are entitled to rewards and consequences from God, for the life they have lived on earth as children of God. Therefore, their lives will be judged, their rewards and consequences determined and given to them. In the last article, we had seen an affirmation of this, from the Lord’s parable of the wheat and the tares, and supporting passages, that the judgment is not of the “tares,” i.e., those who are not the people of God, but of the “wheat,” i.e., of those who are God’s people. Today we will see a further affirmation of this from another supporting passage of the Bible.
Paul, writing under the inspiration of the Holy Spirit says in 1 Corinthians 3:12-15, “Now if anyone builds on this foundation with gold, silver, precious stones, wood, hay, straw, each one's work will become clear; for the Day will declare it, because it will be revealed by fire; and the fire will test each one's work, of what sort it is. If anyone's work which he has built on it endures, he will receive a reward. If anyone's work is burned, he will suffer loss; but he himself will be saved, yet so as through fire.” In the preceding verses, in 1 Corinthians 3:9-11, the Apostle Paul is giving an example of himself and Apollos as God’s servants, engaged in the work that God has entrusted to them. Paul in the ending sentence of verse 10 says to the Christian Believers, “…But let each one take heed how he builds on it;” i.e., the ‘it’ here is thfoundation laid by the Lord (verse 11), and then from verse 12 talks about the Believer’s building their assigned works for the Lord, on the foundation laid by the Lord for them. This foundation is unchangeable, since the foundation is the Lord Jesus Christ Himself – the Word that became flesh and dwelt amongst us (John 1:1-2, 14), i.e., the Lord’s Word the Bible (see also Ephesians 2:20). On this foundation, according to the Word, every Christian Believer has to build or grow his individual ministry – determined for him beforehand by God (Ephesians 2:10).
As is written in verse 12, the Believers can build with two kinds of materials – “…gold, silver, precious stones…,” i.e., not perishable by fire, and precious things, worthy of the work of the Lord; or, “…wood, hay, straw,” i.e., perishable by fire, and inappropriate or things unworthy of the Lord’s work. Then Paul says in verse 13, that on a particular day, the day of judgment or evaluation, everyone’s work will be tested with fire. Note that assertion – everyone’s – and who are the ‘everyone’ he is referring to – the Christian Believers who have been assigned some work by the Lord, when they are saved and become the children of God. God wants His children to work for His kingdom, as the Father asked His sons to go work in His vineyard (Matthew 21:28-29). On the evaluation or judgment day, the evaluation of each one’s works will be done with fire, to see what will stand and be safe and will perish – i.e., it will be a meticulously carried out, thorough and minute judgment of the quality and quantity of their works.
Then verses 14 and 15 speak of the results of the judgment by fire – the works that which survive the evaluation, will be rewarded; but those that do not survive, i.e., are not found worthy, will be burnt, will be destroyed, and not rewarded. In context of the building materials mentioned in verse12, only that which is built with “…gold, silver, precious stones…,” i.e., not perishable by fire, and precious things, things worthy of the Lord, will survive this evaluation, and will be rewarded. Those who have built with “…wood, hay, straw,” i.e., perishable by fire, and inappropriate or things unworthy of the Lord, such works will not survive, will get burnt up, i.e., those who lived lives unworthy of the Lord will suffer loss for eternity, and not receive any rewards. But also notice what it says about those who lived lives unworthy of the Lord God on earth – they will not be cast away by the Lord; they will still enter heaven, but will have no rewards for all of eternity, since the time and opportunity to work for the Lord and earn eternal rewards is over forever. Paul through the Holy Spirit has affirmed this in 2 Corinthians 5:10 as well “For we must all appear before the judgment seat of Christ, that each one may receive the things done in the body, according to what he has done, whether good or bad.” Once again, take note that Paul is not talking about, and to the unbelievers and the unsaved; but about, and to the Christian Believers, i.e., the judgment is of the Believers. Also notice his use of “we” indicating that even he, Paul the Apostle, will be standing before the judgment seat of Christ to give an account of his life, his ministry, his works, and receive the corresponding rewards for them from the Lord.
We will consider some implications of this next article, as we carry on with this topic.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.