पाप और उद्धार को समझना – 20
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पाप का समाधान - उद्धार - 17
प्रभु यीशु ने स्वेच्छा से सभी का दण्ड सह लिया (2)
पिछले लेख से हमने प्रभु यीशु के स्वेच्छा से समस्त मानवजाति का एवज़ी बनने, अर्थात, उनका स्थान लेकर उनके समस्त पापों को स्वयं पर ले लिया, और उनके स्थान पर स्वयं दण्ड सह लिया। वह स्वयं पाप बन गया और उन सभी पापों के लिए मृत्यु को सह लिया; इस प्रकार से उसने सभी के लिए अनन्त जीवन का मार्ग तैयार करके दे दिया (2 कुरिन्थियों 5:21)। आज हम प्रभु यीशु के स्वेच्छा से सभी का एवज़ी बनने को देखना ज़ारी रखेंगे।
हम पहले के लेख में देख चुके हैं कि इब्रानियों 10:7 और फिलिप्पियों 2:6 में प्रभु यीशु के संसार में आते समय किए गए निर्णय के बारे में लिखा है, कि वह स्वेच्छा से परमेश्वर द्वारा पहले से लिख दी गई बातों की पूर्ति के लिए इस संसार में मानव-देहधारी होकर आ गया। आते समय उसने अपने ईश्वरत्व को छोड़ कर मानव रूप में अपने आप को ईश्वरत्व की सभी महिमा और आदर से शून्य कर लिया। वह एक पूर्णतः आज्ञाकारी दीन और नम्र दास का स्वरूप धरण कर के पृथ्वी पर आया, और प्रभु पृथ्वी पर इसी स्वरूप में रहा और कार्य किया।
जब उसने अपने शिष्यों से अपने आने वाले बलिदान और कष्ट के बारे में बात की, तो उसके शिष्य पतरस ने, प्रभु के प्रति अपने प्रेम के अंतर्गत, प्रभु को ऐसा करने से रोकना चाहा, किन्तु प्रभु ने उसे तुरंत ही झिड़क दिया: “उस समय से यीशु अपने चेलों को बताने लगा, कि मुझे अवश्य है, कि यरूशलेम को जाऊं, और पुरनियों और महायाजकों और शास्त्रियों के हाथ से बहुत दुख उठाऊं; और मार डाला जाऊं; और तीसरे दिन जी उठूं। इस पर पतरस उसे अलग ले जा कर झिड़कने लगा कि हे प्रभु, परमेश्वर न करे; तुझ पर ऐसा कभी न होगा। उसने फिरकर पतरस से कहा, हे शैतान, मेरे सामने से दूर हो: तू मेरे लिये ठोकर का कारण है; क्योंकि तू परमेश्वर की बातें नहीं, पर मनुष्यों की बातों पर मन लगाता है” (मत्ती 16:21-23)। यहाँ 21 पद में प्रभु की कही बात पर ध्यान कीजिए “मुझे अवश्य है, कि यरूशलेम को जाऊं, और पुरनियों और महायाजकों और शास्त्रियों के हाथ से बहुत दुख उठाऊं; और मार डाला जाऊं; और तीसरे दिन जी उठूं।” उसका यह सब बातों को सहने के लिए यरूशलेम को जाना, उसका अपना निर्णय था; वह स्वयं, या पतरस के कहने पर, इस निर्णय से हट सकता था, किन्तु उसने ऐसा नहीं किया। वरन, उसे इस निर्णय से हटाने का प्रयास करने वाले पतरस को ही “शैतान” कहकर झिड़क दिया, और उसे परमेश्वर की आज्ञाकारिता में बाधा होने की उलाहना दी।
यही एकमात्र समय नहीं था, जब प्रभु यीशु ने अपने यरूशलेम जाने, और वहाँ पर यातनाएं देने तथा मारे जाने के लिए पकड़वाए जाने की बात अपने शिष्यों से कही हो । उसने अन्य अनेकों अवसरों पर भी उनके सामने इसी बात को रखा (मत्ती 17:21-22; 20:17-19; मरकुस 9:30-32; लूका 9:22, 44; 18:31-33; आदि)। अर्थात प्रभु के लिए यरूशलेम जाकर अपने आप को मारे जाने के लिए पकड़वाया जाना, कोई अनपेक्षित या अनायास घटने वाली बात नहीं थी। वह इससे भली-भांति परिचित था, फिर भी प्रभु ने यह किया, स्वेच्छा से किया, परमेश्वर की इच्छानुसार ऐसा किया।
जब समय आया, और यहूदा इस्करियोती प्रभु को पकड़वाने के लिए जाने के लिए फसह के भोज से जाने को तैयार हो रहा था, तब भी प्रभु ने उसे रोका नहीं, वरन उसे जा लेने दिया “और टुकड़ा लेते ही शैतान उस में समा गया: तब यीशु ने उस से कहा, जो तू करता है, तुरन्त कर” (यूहन्ना 13:27)।
जब उसे पकड़ने और यातनाएं देने के बाद, क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिए ले जाया जा रहा था, तब उसके हाल देखकर कुछ स्त्रियाँ विलाप करने लगीं, तो प्रभु ने उन्हें उसके लिए विलाप करने से मना किया “और लोगों की बड़ी भीड़ उसके पीछे हो ली: और बहुत सी स्त्रियां भी, जो उसके लिये छाती-पीटती और विलाप करती थीं। यीशु ने उन की ओर फिरकर कहा; हे यरूशलेम की पुत्रियों, मेरे लिये मत रोओ; परन्तु अपने और अपने बालकों के लिये रोओ” (लूका 23:27-28)। प्रभु को अपने नहीं, उन पर शीघ्र ही आने वाले दुख की चिंता थी।
कुल मिलाकर, परमेश्वर का वचन बाइबल यह स्पष्ट दिखाती है कि प्रभु यीशु ने स्वेच्छा से अपने आप को मारे जाने के लिए दे दिया। वह पापी मनुष्यों के बदले में उनके मृत्यु दण्ड को सहने के लिए तैयार था। उसने यह इसलिए स्वीकार किया ताकि मुझे और आपको अनन्त जीवन की आशीष दे सके - यदि मैं और आप उसके इस बलिदान पर विश्वास लाएं, उसे अपना प्रभु स्वीकार करें, और स्वेच्छा तथा सच्चे मन से अपना जीवन उसे समर्पित कर के, उसके शिष्य बन जाएं।
यदि आप ने अभी भी उद्धार नहीं पाया है, अपने पापों के लिए प्रभु यीशु से क्षमा नहीं मांगी है, तो अभी आपके पास अवसर है। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा।
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Understanding Sin and Salvation – 20
The Solution For Sin - Salvation - 17
The Lord Jesus Voluntarily Suffered for All (2)
Since the previous article, we are considering the Lord Jesus voluntarily becoming the substitute for all of mankind, to take their sins upon Himself, and suffer for them in place of mankind. Having taken all the sin of all of mankind upon Himself, He became sin and suffered the death penalty for those sins; Thereby He atoned for everyone’s sins, and provided the way to eternal life for everyone (2 Corinthians 5:21). Today we will continue considering the Lord Jesus voluntarily becoming the substitute for everyone.
We have seen in and earlier article that in Hebrews 10:7 and Philippians 2:6 it is written about the decision the Lord Jesus made at the time of coming into the world, that He had decided to come into the world in human form to fulfill all things that God had written in the Scriptures beforehand. On coming to earth in His human form, He emptied himself of all his glory, heavenly status, and honor as God, and came to earth as a common man. He remained and ministered as a humble, fully obedient servant of God while on earth, throughout His ministry.
When He spoke with his disciples about his coming sacrifice and sufferings then one of his disciples Peter, because of his love for the Lord, tried to stop the Lord from doing this, but the Lord immediately rebuked him “From that time Jesus began to show to His disciples that He must go to Jerusalem, and suffer many things from the elders and chief priests and scribes, and be killed, and be raised the third day. Then Peter took Him aside and began to rebuke Him, saying, "Far be it from You, Lord; this shall not happen to You!" But He turned and said to Peter, "Get behind Me, Satan! You are an offense to Me, for you are not mindful of the things of God, but the things of men."” (Mathew 16:21-23). Here take note of what the Lord says to Peter in verse 21 “From that time Jesus began to show to His disciples that He must go to Jerusalem, and suffer many things from the elders and chief priests and scribes, and be killed, and be raised the third day.” His going to Jerusalem to suffer all of this was His own decision. He had the opportunity to alter His decision, either Himself or because of Peter’s urging Him; but He did not do so. Instead, He immediately turned down Peter’s attempt to dissuade Him from doing this, and even addressed Peter as ‘Satan’, since, in suggesting this Peter was coming in the way of His being obedient to God.
This wasn't the only occasion when the Lord Jesus had talked with His disciples about his going to Jerusalem, being caught over there to be tortured and then killed. He had put this before His disciples on many other occasions as well (Matthew 17:21-22; 20:17-19; Mark 9:30-32; Luke 9:22, 44; 18:31-33; etc.). The implication is quite evident, that the Lord's going to Jerusalem and allowing himself to be caught was not something unexpected or unforeseen. He was very well aware of it all, and yet He allowed it voluntarily in the will of God.
When the time came, and Judas Iscariot was getting ready to leave the Passover feast to go and make arrangements for the Lord Jesus to be caught, the Lord Jesus neither prevented, nor stopped Judas from doing so rather urged him go and do what he wanted to do “Now after the piece of bread, Satan entered him. Then Jesus said to him, "What you do, do quickly."” (John 13:27).
After being caught and tortured when He was being taken to be crucified, some women looking at his condition started to weep and lament; the Lord ask them not to weep for him “And a great multitude of the people followed Him, and women who also mourned and lamented Him. But Jesus, turning to them, said, "Daughters of Jerusalem, do not weep for Me, but weep for yourselves and for your children”” (Luke 23:27-28). Even at that time the Lord was more worried about the torment that was going to come upon them in the near future; than He was of his own condition.
Overall, the Bible, the Word of God very clearly shows that the Lord Jesus gave himself up voluntarily to be sacrificed. He was willing to suffer the death penalty in lieu of the sinful and sinning mankind. He agreed to suffer all of this so that you and I could have the blessing of eternal life - provided you and I believe in His sacrifice, accept him as our Lord, and voluntarily with a sincere heart submit our lives to Him, to become His obedient disciples.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.