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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 91
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (33)
परमेश्वर के वचन बाइबल के उदाहरणों और हवालों के आधार पर हम व्यावहारिक मसीही जीवन जीने से सम्बन्धित बातों के मूल स्वरूप और निर्वाह के बारे में देख, सीख, और समझ रहे हैं; यह जानने के लिए कि आरम्भिक मसीही विश्वासी इन बातों को किस तरह से जानते, समझते, और पालन करत थे। हम पहले के लेखों में देख चुके हैं कि व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें हमें वैसे तो सम्पूर्ण बाइबल में स्थान-स्थान पर दी गई हैं; लेकिन प्रेरितों 2 और 15 अध्याय में लिखी गई बातों के साथ यह भी लिखा गया है कि उनके पालन से मसीही विश्वासी सँख्या में, तथा अपने आत्मिक जीवन और मसीही विश्वास में बढ़ते चले गए, और साथ ही कलीसियाएं भी बढ़ती चली गईं। इसलिए हमने प्रेरितों 2 अध्याय में दी गई व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित सात बातों को देखना आरम्भ किया। इन सात में से पहली तीन बातें, प्रेरित पतरस के भक्त यहूदियों को किए गए प्रचार के अन्त की ओर प्रेरितों 2:38-41 में मिलती हैं। ये तीनों बातें मसीही विश्वास में आने और मसीही विश्वास का जीवन आरम्भ करने से सम्बन्धित हैं। शेष चार बातें प्रेरितों 2:42 में मिलती हैं; और जैसा कि इस पद में लिखा है, ये वे बातें हैं जिनका पालन आरम्भिक मसीही विश्वासी लौलीन होकर किया करते थे। परिणामस्वरूप, वे मसीही विश्वास में दृढ़ और स्थिर होते चले गए, सँख्या में बढ़ते गए, और कलीसियाएं भी बढ़ती चली गईं। यहाँ दी गई इन चार बातों को आज के मसीही भी मानते और पूरा करते हैं, किन्तु वे इन्हें एक रीति के समान लेते हैं, और औपचारिकता पूरी करने के लिए निभाते हैं; इसलिए ये बातें उनके जीवन में प्रभावी नहीं हैं, पहली कलीसिया के विश्वासियों के समान जीवनों में परिवर्तन और सामर्थ्य नहीं ला रही हैं। इन चार में से पहली तीन बातों को देख लेने के बाद, अब हम चौथी बात, प्रार्थना करने के बारे में देख रहे हैं, तथा मत्ती 6:5-15 से हम तथाकथित “प्रभु की प्रार्थना” के बारे में देख रहे हैं। इन पदों से हमने देखा है कि प्रभु ने अपने शिष्यों को सिखाया कि वे तीन मुख्य बातों का निर्वाह के बारे में परमेश्वर पिता से माँगें; पद 11, परमेश्वर पर पूर्णतः निर्भर रहना; पद 12, प्रभु परमेश्वर के समान औरों को हर कीमत पर सच्चे मन से क्षमा करने वाले होना; पद 13, में परीक्षा में न पड़ने और बुराई से बचे रहने को परमेश्वर से माँगना। हम इन तीन में से पहली दो बातों को देख चुके हैं, और आज पद 13 में परीक्षा और बुराई से सम्बन्धित बात को देखना आरम्भ करेंगे।
यहाँ, मत्ती 6:13 में लिखा है “और हमें परीक्षा में न ला, परन्तु बुराई से बचा; क्योंकि राज्य और पराक्रम और महिमा सदा तेरे ही हैं।” आमीन।” इस पद को पढ़ने से यही आभास होता है कि परमेश्वर अपने लोगों की परीक्षा लेता है, और उसमें वह बुराई का भी प्रयोग कर सकता है। आरम्भिक लेखों में हमने देखा था कि परमेश्वर के वचन की गलत व्याख्या करने, गलत समझ रखने का सबसे सामान्य कारण है किसी भी बात को उसके सन्दर्भ से बाहर लेकर उसकी व्याख्या करना, और धारणा बनाना। साथ ही हमने यह भी देखा था कि सन्दर्भ दो तरह के होते हैं, तात्कालिक - अर्थात उसके आगे-पीछे के अन्य पद और खण्ड; तथा दूर के - अर्थात परमेश्वर के वचन में अन्य स्थानों पर दी गई सम्बन्धित बातें। जो भी व्याख्या किसी भी सन्दर्भ में सही नहीं बैठती है, सन्दर्भ से असंगत रहती है, वह गलत है, अस्वीकार्य है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए हम मत्ती के इस पद पर विचार करने से पहले, आज हम परमेश्वर द्वारा अपने लोगों की परीक्षा लिए जाने, और उस सन्दर्भ में बुराई का प्रयोग करने के बारे में परमेश्वर के वचन से कुछ बातों को देख और समझ लेते हैं, ताकि हम किसी गलतफहमी में पड़कर कोई गलत व्याख्या न करें, कोई अनुचित धारणा न बना लें।
बाइबल यह बहुत स्पष्ट दिखाती है कि परमेश्वर अपने लोगों की परीक्षा लेता है; नीतिवचन 17:3 में लिखा है कि यहोवा अपने लोगों के मनों को जाँचता है। हम उत्पत्ति 22:1 और इब्रानियों 11:17 में देखते हैं कि परमेश्वर ने इसहाक के सन्दर्भ में अब्राहम की परीक्षा ली; परमेश्वर ने मिस्र के दासत्व से निकल कर कनान जा रहे इस्राएलियों की परीक्षा ली (निर्गमन 15:25; 16:4; व्यवस्थाविवरण 8:2, 16); उन्हें कनान देश में बसाने के बाद भी इस्राएलियों की परीक्षा ली (न्यायियों 3:4); उसने राजा हिजकिय्याह की परीक्षा ली (2 इतिहास 32:31); परमेश्वर मसीही विश्वासियों के विश्वास की वास्तविकता की परीक्षा लेता है (यूहन्ना 6:6; याकूब 1:3; 1 पतरस 1:7), आदि। इन सभी, तथा वचन में दिए गए अन्य हवालों से हम देखते हैं कि परमेश्वर अपने लोगों के उसके प्रति विश्वास की, उसकी बातों के प्रति उनकी आज्ञाकारिता की, और उसके प्रति उनकी मनसा की वास्तविकता की परीक्षा लेता है। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर लोगों के विश्वास, आज्ञाकारिता, और मनसा की वास्तविक दशा को, वास्तविक स्थिति को जानता नहीं है। 1 कुरिन्थियों 10:13 में लिखा है कि परमेश्वर अपने लोगों को उनकी सामर्थ्य से बाहर किसी परीक्षा में पड़ने नहीं देता है, वरन परीक्षा के साथ निकास भी करता है। परमेश्वर तब ही किसी व्यक्ति की सामर्थ्य और क्षमता की सीमा के अन्दर परीक्षा ले सकता है, जब उसे उसकी परीक्षा सहने की क्षमता और सीमा पहले से ही पता होगी; अन्यथा यह पद गलत हो जाएगा। मसीही विश्वासियों की सामर्थ्य और क्षमता की सीमा जानते हुए भी परमेश्वर उन्हें परीक्षा में जाने देने के द्वारा उनके विश्वास और आज्ञाकारिता की दशा उनपर प्रकट करता है, ताकि वे अपने विश्वास और आज्ञाकारिता की स्थिति से अवगत होकर, उचित कदम उठाएं और अपने आप को सुधारें। जो परीक्षा में स्थिर रहता है, वह परमेश्वर से बहुत बड़ा प्रतिफल भी पाता है (याकूब 1:12)।
किन्तु परमेश्वर द्वारा इस परीक्षा के लिए जाने के साथ एक अन्य बहुत महत्वपूर्ण बात भी जुड़ी हुई है, जिसे हमें ध्यान रखना भी आवश्यक है, और जो याकूब 1:।3 में लिखा है “जब किसी की परीक्षा हो, तो वह यह न कहे, कि मेरी परीक्षा परमेश्वर की ओर से होती है; क्योंकि न तो बुरी बातों से परमेश्वर की परीक्षा हो सकती है, और न वह किसी की परीक्षा आप करता है।” परमेश्वर परीक्षा अवश्य लेता है, किन्तु कभी भी बुराई से किसी की परीक्षा नहीं लेता है। यहाँ पर शब्द “बुराई” को समझना आवश्यक है। जिस मूल यूनानी भाषा के शब्द का अनुवाद यहाँ पर “बुराई” किया गया है वह दुष्टता, बुरे स्वभाव या विचार, या वह जो परमेश्वर से सुसंगत नहीं है के लिए प्रयोग किया जाता है, न कि उसके लिए जो हमें अच्छा न लगे या पसन्द न आए। अर्थात ऐसी बातें जो परमेश्वर से नहीं वरन शैतान से सम्बन्धित हैं। अर्थात इस पद के अर्थ को हम अपने शब्दों में कुछ इस प्रकार भी व्यक्त कर सकते हैं - न तो शैतानी बातों से परमेश्वर की परीक्षा होती है, और ना ही वह ऐसी किसी भी बात से किसी की परीक्षा लेता है।
अगले लेख में मत्ती 6:13 को समझने के लिए, हम परीक्षा और बुराई के इन अर्थों का उपयोग करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 91
The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (33)
We have been looking at the original form and observance of things related to practical Christian living from the examples and references of God’s Word the Bible, to learn and understand how the initial Christian Believers used to knew, understood, and followed them. We have seen in the earlier articles that although we find things related to practical Christian living given throughout the Bible, but in the things written in Acts chapters 2 and 15, it has also been said that by obeying them the Christian Believers increased in their numbers, in their spiritual lives and Christian faith, and the churches also continued to grow. Therefore, we have begun by looking at the seven things related to practical Christian living, given in Acts chapter 2. Of these seven things, the first three are related to coming into the Christian faith, and are found towards the end of Peter’s sermon to the devout Jews, in Acts 2:38-41. The remaining four things are given in Acts 2:42; and as is written in this verse, the initial Christian Believers observed them steadfastly. Consequently, they continued to grow and be established in their Christian faith, continued to increase in numbers, and the churches also grew. The four things given here are also followed by the Christians today, but as a ritual, to fulfill a formality. Therefore, these four are not bringing the changes and power, and are not effective in their Christian lives, as they were in the lives of the initial Christians. Having considered the first three of these four, we are now considering about the fourth, i.e., prayer; and from Matthew 6:5-15 are considering about the so-called “Lord’s Prayer.” From these verses we have seen that the Lord taught His disciples to pray and ask God the Father mainly for three things; verse 11, to be fully dependent on God; verse 12, like the Lord God be those who forgive others truly from the heart; verse 13, to ask being kept safe from temptations and evil. Of these three, we have seen the first two, and today will begin to consider from verse 13 about being kept safe from being tempted and evil.
Here, in Matthew 6:13 it is written “And do not lead us into temptation, But deliver us from the evil one. For Yours is the kingdom and the power and the glory forever. Amen.” The impression one gets on reading this verse is that God tempts or tests His people, and for this, He can use evil also. In the earlier articles we had seen that the commonest reason for wrong interpretations and having wrong understandings of Biblical texts is taking them out of their context, and forming concepts. We had also seen that contexts are of two kinds, the immediate - i.e., the verses given before and after the verse under consideration; and remote - i.e., the related things given at other places in God’s Word. Any interpretation that is inconsistent with any of the contexts, is wrong, is unacceptable. Keeping this in mind, today, before beginning to consider this verse from Matthew, we will see and understand about God testing or tempting His people and about evil in this context, so that we do not fall into any misunderstandings, and form any wrong concepts.
The Bible shows very clearly that God does test His people. It says in Proverbs 17:3 that the Lord tests the hearts. We see from Genesis 22:1 and Hebrews 11:17 that God tested Abraham about Issac; God tested the Israelites coming out of slavery from Egypt and journeying to Canaan (Exodus 15:25; 16:4; Deuteronomy 8:2, 16); even after settling them in Canaan, God tested them (Judges 3:4); He tested King Hezekiah (2 Chronicles 32:31); God tests the faith of the Christian Believers (John 6:6; James 1:3; 1 Peter 1:7), etc. In all of these, and in the other references given in the Word, we see that God tests His people for their faith, for their obedience, their hearts towards Him. He does not do it because He does not know the true state of the people’s faith, obedience, and hearts towards Him. It is written in 1 Corinthians 10:13 that God does not allow His people to be tested or tempted beyond their strength and abilities, and arranges for ways of escape from the temptation. God can test or tempt a person within his strength and capacity, only when He knows about it beforehand; else this verse will become false. Although knowing about the strengths and capabilities of a person, God still allows him to go into temptations and testing to make them aware of the state of their faith and obedience towards Him, so that they take the proper steps to correct themselves. Those that endure the temptations, will receive a great reward from God (James 1:12).
But there is another very important thing associated with being tempted or tested by God, and we need to keep it in mind. It is written in James 1:13 “Let no one say when he is tempted, "I am tempted by God"; for God cannot be tempted by evil, nor does He Himself tempt anyone.” God surely tests, but never through any evil. Here it is necessary to understand the word “evil.” The word used in the original Greek language, that has been translated as “evil” here is for things that are not consistent with God, are bad or devious, are of devilish nature and thinking; it is not about anything that we do not like or approve and therefore consider it to be ‘bad.’ Therefore, to understand the meaning of this verse, we can express it something like this - neither is God ever tested by satanic or devilish things, nor does He use any such thing to test or tempt anyone.
In the next article, to understand Matthew 6:13, we will use these meanings about being tested or tempted and evil.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.