पाप और उद्धार को समझना – 36
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पाप का समाधान - उद्धार - 33
कुछ संबंधित प्रश्न और उनके उत्तर (3a)
हम पिछले दो लेखों से प्रभु यीशु मसीह द्वारा सेंत-मेंत उपलब्ध करवाए गए पापों की क्षमा और उद्धार से संबंधित कुछ सामान्यतः उठाए जाने वाले प्रश्नों को देख रहे हैं। पिछले लेख में हमने देखा था कि उद्धार अनन्तकालीन है, कभी खोया अथवा गंवाया नहीं जा सकता है। उद्धार गँवाने की बात परमेश्वर के वचन और उसके चरित्र तथा गुणों से कदापि मेल नहीं खाती है, वरन उनके विरुद्ध है। किन्तु कुछ लोग यह विचार रखते हैं कि यदि मनुष्य धार्मिकता का जीवन न जीए, और पाप करे, तो फिर उसका उद्धार जा सकता है। साथ ही वे यह भी तर्क भी देते हैं कि यदि उद्धार कभी नहीं जा सकता है, तब तो परमेश्वर ने मनुष्यों को पाप करने का लाइसेंस दे दिया है - एक बार उद्धार पा लो, और फिर उसके बाद जैसा चाहो वैसा करो, क्योंकि उद्धार तो जाएगा नहीं, स्वर्ग तो हर हाल में मिलेगा ही। किन्तु यह भी मनुष्यों को भरमाने के लिए, और प्रभु यीशु के सिद्ध और पूर्ण कार्य में मनुष्यों की अपने ही प्रयासों की धार्मिकता और कर्मों को मिलाने की शैतान द्वारा फैलाई जाने वाली एक गलत शिक्षा, एक गलत धारणा है, और आज हम इसी प्रश्न के विषय देखेंगे।
प्रश्न: क्या कभी गँवाए न जा सकने वाले अनन्त उद्धार के सिद्धांत में, बिना किसी भय के पाप करते रहने की स्वतंत्रता निहित नहीं है?
उत्तर: यदि परमेश्वर ने हमें अनन्त उद्धार का प्रावधान उपलब्ध करवाया है, तो अवश्य ही कुछ सोच-समझ कर, कुछ जानते-बूझते हुए ही करवाया होगा। उपरोक्त संभावना यदि हम सीमित बुद्धि और ज्ञान वाले मनुष्यों के मन में आ सकती है तो उस असीम ज्ञान और समझ रखने वाले परमेश्वर से भी छिपी हुई नहीं होगी, कि यदि पाप की प्रवृत्ति रखने वाले मनुष्य को अनन्त, कभी न गँवाया जा सकने वाला उद्धार प्रदान कर दिया, तो वह फिर निडर होकर मनमानी और पाप करने के लिए इसका दुरुपयोग अवश्य ही करेगा। इसीलिए परमेश्वर के विषय लिखा है, “क्योंकि परमेश्वर की मूर्खता मनुष्यों के ज्ञान से ज्ञानवान है; और परमेश्वर की निर्बलता मनुष्यों के बल से बहुत बलवान है” (1 कुरिन्थियों 1:25)। वास्तविकता यही है कि इस संभावना को उठाने और मानने वाले लोग, परमेश्वर के वचन के प्रति अपने अधूरे ज्ञान और अपूर्ण समझ के कारण शैतान द्वारा बहकाए और पथभ्रष्ट किए जा रहे हैं; जैसा कि यशायाह ने लिखा, “इसलिये अज्ञानता के कारण मेरी प्रजा बंधुआई में जाती है, उसके प्रतिष्ठित पुरुष भूखों मरते और साधारण लोग प्यास से व्याकुल होते हैं” (यशायाह 5:13)।
यदि लोग पाप और उसके कारण उत्पन्न परिस्थितियों, तथा परमेश्वर के वचन में दी गई अन्य संबंधित शिक्षाओं एवं उदाहरणों का ध्यान करें, तो उन्हें स्वतः ही स्पष्ट हो जाएगा कि अनन्त उद्धार के सिद्धांत में पाप करते रहने की स्वतंत्रता निहित नहीं है; वरन एक चेतावनी है कि मनुष्य अपने उद्धार की कीमत और महत्व को समझे अन्यथा परिणाम बहुत दुखदायी होंगे, इस लोक में भी और परलोक में भी। जैसा हम पहले देख चुके हैं, वास्तव में अपने पापों से पश्चाताप करने वाले, और प्रभु यीशु को सच्चे मन से जीवन समर्पित करने वाले व्यक्ति के अंदर परमेश्वर पवित्र आत्मा आकर निवास करने लगते हैं, जो उसे पाप के विषय कायल करते हैं। यदि उस व्यक्ति से जाने या अनजाने में किसी भी कारणवश कभी कोई पाप हो भी जाए, तो उसमें निवास करने वाले परमेश्वर पवित्र आत्मा उसे उस पाप में बने नहीं रहने देते हैं, वरन उसे उभारते और उकसाते हैं, उसके पाप को किसी न किसी रीति से उसके सामने लाते हैं, ताकि वह व्यक्ति अपने पाप के लिए पश्चाताप कर ले; अपने उस पाप को परमेश्वर के सम्मुख स्वीकार कर के उसके लिए क्षमा माँग ले, ताकि परमेश्वर उसे वापस क्षमा की स्थिति में बहाल कर दे “क्या ही धन्य है वह जिसका अपराध क्षमा किया गया, और जिसका पाप ढाँपा गया हो। क्या ही धन्य है वह मनुष्य जिसके अधर्म का यहोवा लेखा न ले, और जिसकी आत्मा में कपट न हो। जब मैं चुप रहा तब दिन भर कराहते कराहते मेरी हड्डियां पिघल गई। क्योंकि रात दिन मैं तेरे हाथ के नीचे दबा रहा; और मेरी तरावट धूप काल की सी झुर्राहट बनती गई। जब मैं ने अपना पाप तुझ पर प्रगट किया और अपना अधर्म न छिपाया, और कहा, मैं यहोवा के सामने अपने अपराधों को मान लूंगा; तब तू ने मेरे अधर्म और पाप को क्षमा कर दिया” (भजन संहिता 32:1-5); साथ ही 1 यूहन्ना 1:9 भी देखिए। इसलिए सच्चे मन से, और पूर्ण समर्पण से मसीह यीशु पर विश्वास लाने वाला व्यक्ति, जिसने प्रभु यीशु द्वारा उसके लिए चुकाई गई उसके पापों की कीमत को, प्रभु यीशु के बलिदान और पुनरुत्थान के मूल्य तथा महत्व को समझा है, वह कभी इस प्रवृत्ति के साथ कोई भी कार्य नहीं करेगा कि अब अनन्त उद्धार तो मिल ही गया है, इसलिए जैसा जी में आए कर लो, कोई हानि नहीं होगी। यह विचार और व्यवहार वही रखेगा जो अभी भी अपने पापों में ही है, जिसने वास्तव में उद्धार नहीं पाया है, और जो प्रभु द्वारा उसके उद्धार के लिए चुकाए गए दाम के मूल्य का एहसास नहीं करता है, जो प्रभु परमेश्वर के प्रति उसके इस महान अनुग्रह के लिए कृतज्ञ एवं दीन और नम्र नहीं है; वरन इसे अपने स्वार्थ और साँसारिकता की अभिलाषाओं के लिए प्रयोग करना चाहता है।
उद्धार पाए हुए व्यक्ति की उसे पाप करने से रोकने वाली इस कृतज्ञता और समर्पण, तथा पवित्र आत्मा द्वारा उसे गलती से भी हुए पाप के लिए कायल करने के अतिरिक्त भी कुछ और संबंधित बातें हैं, जिनको समझने के लिए हमें वापस अदन की वाटिका में, प्रथम पाप के साथ घटी हुई घटनाओं का पुनःअवलोकन करके देखना होगा। जैसा हम पहले देख चुके हैं, पाप करने के बाद प्रथम मनुष्यों के साथ दो बातें हुईं - (i) वे तुरंत ही आत्मिक और शारीरिक मृत्यु के अंतर्गत आ गए - परमेश्वर से उनकी संगति टूट गई, और उनका शरीर क्षय होना आरंभ हो गया, जो अन्ततः शारीरिक मृत्यु में पहुँच गया; (ii) परमेश्वर ने उन्हें दंड दिया - स्त्री को आदम की अधीनता में कर दिया, उसकी प्रसव की पीड़ा बढ़ा दी, और आदम को दुख के साथ परिश्रम की रोटी खाने के अधीन कर दिया, उसके परिश्रम के बावजूद धरती उनके लिए कांटे और ऊंटकटारे उगाएगी; (iii) और उन दोनों को उस आशीष की विशिष्ट वाटिका के बाहर निकाल दिया गया। अर्थात पाप के कारण मनुष्य की परमेश्वर से संगति तो टूट ही चुकी है, किन्तु साथ ही मनुष्य जब भी पाप करता है उस पाप का दंड भी उसके जीवन में जुड़ जाता है, जिसे उसे इस पृथ्वी पर भुगतना ही होता है। साथ ही परलोक में उस पाप का प्रतिफल भी उसके नाम पर अर्जित हो जाता है, जिसे उसे परलोक में जाकर भुगतना होगा।
पृथ्वी पर, तथा परलोक में पाप के दण्ड को भुगतने से सम्बन्धित चर्चा कुछ लंबी है, इसलिए हम इसे भागों में विभाजित करके, आने वाले लेखों में देखेंगे।
अभी के लिए, यदि आपने अभी तक अपने पापों से पश्चाताप नहीं किया है, परलोक का अपना अनन्त जीवन सुनिश्चित और सुरक्षित नहीं किया है, तो अभी आपके पास यह कर लेने का अवसर है। आपके द्वारा स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ आपके द्वारा की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को आशीषित तथा स्वर्गीय जीवन बना देगा। अभी अवसर है, अभी प्रभु का निमंत्रण आपके लिए है - उसे स्वीकार कर लीजिए।
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Understanding Sin and Salvation – 36
The Solution For Sin - Salvation - 33
Some Related Questions and their Answers (3a)
In the previous two articles we have been seeing questions that are commonly raised regarding the salvation freely provided by the Lord Jesus. In the last article we had seen that salvation is eternal, it cannot be lost or taken away. The notion of losing salvation is not just inconsistent with the Word of God and with the attributes and character of God, it actually is contrary to them. But some people resolutely believe that if a saved, i.e., a Born-Again person does not live a life or righteousness, commits sins, then he can lose his salvation. They also give this argument that if salvation cannot be lost, then getting saved or Born-Again is tantamount to getting a license to sin and lead a wayward life, because no matter the kind of kind of life a person then lives, no matter what he does, his entry to heaven is assured, so why should he worry about how he lives after receiving salvation. But this too is a result of a wrong understanding of God's Word, is another satanic attempt at adulterating the concept of righteousness by faith in the Lord Jesus Christ with the unBiblical concept of righteousness works. Today we will start looking into this question.
Question: In the doctrine of eternal salvation, one that cannot ever be lost, isn’t the freedom to continue to sin with impunity implied?
Answer: If God has made available eternal salvation to us, surely it would only be after considering the various implications, the pros and cons associated with this provision, the manner it can be used and misused, etc. If we fallible humans with a very limited knowledge and wisdom can see the possibility of misuse of this provision, then why wouldn’t the omniscient God with a limitless knowledge and wisdom, one who knows the end from the beginning, not have foreseen this possibility, when making available eternal salvation to sinful man, having a sin nature and tendency to fall into sin? How could God, for whom it is written in His Word, “Because the foolishness of God is wiser than men, and the weakness of God is stronger than men” (1 Corinthians 1:25) not have known about the possibility that this would make man prone to sin with impunity and misuse this provision without any fear? The fact of the matter is that those who raise this question and possibility, because of their incomplete knowledge and understanding of God’s Word, are being deceived and led onto a wrong path, as Isaiah has said, “Therefore my people have gone into captivity, Because they have no knowledge; Their honorable men are famished, And their multitude dried up with thirst” (Isaiah 5:13).
If people would take time to consider about the entry of sin, the situations that came about because of this, and put together the other related teachings given elsewhere in God’s Word about sin, then it will automatically become clear and evident to them that the notion of freedom to sin is not implied in the doctrine of eternal salvation. Rather, there is a serious warning that those who take this salvation lightly, do not respect the price paid for providing it to mankind, they will have to pay a very heavy price, in this world as well as the next, for their ignorance and misuse of God’s Word and God’s provision. As we have seen earlier, those who have sincerely repented of their sins and have truly submitted their lives to the Lord Jesus, their bodies have also become the temples of the Holy Spirit, who comes to reside in them, and convicts them of sin. A saved or Born-Again person, if he happens to sin due to any reason, knowingly or unknowingly, then the Holy Spirit residing in that person does not allow him to remain in the condition of sin; He prods, encourages, and provokes him to recognize his sin, somehow, in some way, brings that sin before him so that he may confess it, and ask for God’s forgiveness for it, and be restored back to the state of forgiveness from God, “Blessed is he whose transgression is forgiven, Whose sin is covered. Blessed is the man to whom the Lord does not impute iniquity, And in whose spirit there is no deceit. When I kept silent, my bones grew old Through my groaning all the day long. For day and night Your hand was heavy upon me; My vitality was turned into the drought of summer. Selah I acknowledged my sin to You, And my iniquity I have not hidden. I said, "I will confess my transgressions to the Lord," And You forgave the iniquity of my sin” (Psalm 32:1-5); also see 1 John 1:9. Moreover, any person who has with a sincere heart repented of his sins and believed in the atoning work of the Lord Jesus Christ, who has truly understood and realized the price the Lord Jesus has paid for redeeming him of his sins, has understood the value and importance of the sacrifice, death, and resurrection of the Lord Jesus, can never live or function with this tendency, that now that I have got salvation, I can live life any way I want to live, without fear of any loss. This thought and tendency will only be seen in a person who is still in his sins, has not actually been saved. Those not-saved have no understanding of the price the Lord has paid for their sins, they have no awe and reverence for the Lord and His work, and they have not been humbled by the indescribable grace shown by God in forgiving their sins, have no sense of gratitude for the deliverance made available by the Lord; therefore, they only wants to use this provision for their selfish motives and to fulfill their desires for worldly things.
Besides this sense of gratitude, the commitment of obedience and submission to the Lord, and the presence of the Holy Spirit within the saved person, which prevent him from sinning, or remaining in sin, there are some other things as well, that need to be understood, and for them we will need to go back to the time of the first sin, and review the events in the Garden of Eden at the time of the first sin. As we have seen earlier, immediately after sinning, two things happened to the first two humans - (i) They immediately came under spiritual and physical death, i.e., they lost fellowship with God, and their bodies started to decay towards death, and eventually they died; (ii) God punished them - the women was brought under subjection of Adam, her birth pains were greatly multiplied, and Adam was condemned to eating bread out of the sweat of his brow, and despite his labor and efforts, the earth was to bring forth thorns and thistles for him; (iii) they were made to go and stay out of the place of blessings and fellowship with God, the Garden of Eden. So, we see that because of sin, not only does man come under death, i.e., his fellowship with God is broken and his body dies, but punishment for his sin is also added into his life, which he has to suffer in this world itself while he is alive. Sin also affects his heavenly rewards, and he has to pay for the sin in the afterlife as well.
The discussion related to suffering the consequences of sin is a bit long, so we will consider it in parts, in the coming articles.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.