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व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 101
मसीही जीवन और व्यवस्था का पालन (6)
व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों के इस अध्ययन में हमने पिछले लेखों में प्रेरितों 15 अध्याय से देखा है कि प्रभु यीशु में और कलवरी के क्रूस पर दिए गए उसके बलिदान तथा मृतकों में से पुनरुत्थान पर विश्वास करने से परमेश्वर के अनुग्रह से मिलने वाली पापों की क्षमा और उद्धार के सुसमाचार में किसी भी अन्य बात के जोड़े जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। किसी को भी परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी तथा उसे स्वीकार्य होने के लिए खतना करवाने या मूसा की व्यवस्था की बातों में से किसी भी बात का पालन करने की कोई आवश्यकता नहीं है। चाहे वह मूसा की व्यवस्था हो, अथवा आज के समय में डिनॉमिनेशनों और मतों के नियमों, रीतियों, और परम्पराओं का पालन हो, इनमें से किसी के भी द्वारा धर्मी और परमेश्वर को स्वीकार्य बनने के प्रयास, विश्वास के स्थान पर कर्मों के द्वारा धर्मी बनने पर भरोसा रखने को दिखाते हैं, मूल सुसमाचार के विरुद्ध हैं, अस्वीकार्य हैं। साथ ही हमने देखा था कि यरूशलेम की कलीसिया के अगुवों ने, सभी मसीही विश्वासियों के पालन के लिए सुसमाचार से सम्बन्धित इस निर्णय को लेने के बाद, अन्यजातियों से मसीही विश्वास में आए लोगों के लिए यह तय किया था कि उन्हें मसीही विश्वास में आने से पूर्व के अपने जीवनों में से चार बातें, मूरतों की अशुद्धता (अर्थात मूरतों को बलि किए हुओं के मांस), व्यभिचार, गला घोंटे हुओं का माँस, और लहू को खाना, इनको छोड़ना होगा।
इन चार बातों को छोड़ने के निर्देश से यह आभास हुआ था कि एक तरह से यह उनसे व्यवस्था की कुछ बातों का पालन करवाने के समान है; जो फिर सुसमाचार और व्यवस्था के पालन के विषय लिए गए निर्णय में विरोधाभास को दिखाएगा। पिछले दो लेखों में हमने देखा और समझा है कि किस प्रकार से इन चार बातों को मना करने के निर्देश का पालन करना, परमेश्वर के वचन में किसी प्रकार के विरोधाभास को नहीं लाता है, क्योंकि इन चार बातों को मना करना मूसा के द्वारा दी गई व्यवस्था का भाग नहीं हैं; वरन व्यवस्था के दिए जाने से पहले परमेश्वर द्वारा दी जा चुकी थीं। साथ ही वचन के हवालों से हमने देखा था कि परमेश्वर द्वारा दी गई दस आज्ञाएँ भी व्यवस्था का भाग नहीं हैं, व्यवस्था के दिए जाने से पहले ये दस आज्ञाएँ अलग से दे दी गई थीं, और स्वयं परमेश्वर ने इन दस आज्ञाओं को व्यवस्था से अलग दिखाया है। इस पूरे विश्लेषण और निष्कर्ष ने हमारे सामने बाइबल की हर बात की सही समझ और व्याख्या के लिए, उसे उसके सही सन्दर्भ में, उससे सम्बन्धित बाइबल में दी गई अन्य बातों के साथ उसे मिलाकर देखने की अनिवार्यता को भी प्रकट किया। साथ ही हमारे सामने इस बात की भी पुष्टि हुई कि परमेश्वर के वचन में कोई त्रुटि अथवा विरोधाभास नहीं है; जो भी त्रुटि अथवा विरोधाभास प्रतीत होता है, वह अनुचित व्याख्या और गलत समझ के कारण होता है, और उसे वचन की अन्य बातों के साथ मिलाकर देख लेना चाहिए, वचन की बातों से उसे सही कर लेना चाहिए।
इस विश्लेषण के दौरान हमने देखा था कि इन चारों बातों का निषेध करना व्यवस्था का पालन करना नहीं, बल्कि परमेश्वर से भटके हुए अन्यजाति लोगों को मसीही विश्वास में आने से परमेश्वर के पास वापस लौट आने पर, परमेश्वर द्वारा व्यवस्था से पहले ही दी गई बातों के पालन की ओर लौटा लाना था। यहूदियों में से मसीही विश्वास में आए हुए लोग पहले से ही इन चारों बातों का पालन करते आ रहे थे; अब अन्यजातियों में से मसीही विश्वास में आए हुए लोगों को भी उन्हीं बातों का पालन करना था। इससे, सभी मसीही विश्वासी, वे चाहे यहूदियों में से हों अथवा अन्यजातियों में से, एक समान व्यावहारिक जीवन जीने वाले होंगे, उनमें किसी प्रकार की कोई भिन्नता नहीं रहेगी। इन चार बातों में से मूरतों की अशुद्धता (अर्थात मूरतों को बलि किए हुओं के मांस को खाना) की बात के लिए हमने देखा था कि यह बात ठीक इसी रूप में, इन्हीं शब्दों में दस आज्ञाओं अथवा व्यवस्था में नहीं लिखी है; किन्तु तात्पर्य और समझने के आधार पर दस में से पहली दो आज्ञाओं के उल्लंघन के समान है। जबकि शेष तीनों बातें दस आज्ञाओं अथवा व्यवस्था में भी दी गई हैं। और इसीलिए यहूदी इन चारों का पहले से पालन करते चले आ रहे थे।
मूरतों को बलि चढ़ाए हुए पशुओं के मांस को खाने से सम्बन्धित स्थिति को पवित्र आत्मा ने पौलुस प्रेरित के द्वारा कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों को लिखी पहली पत्री में समझाया है; कृपया 1 कुरिन्थियों 8 और 10 अध्याय को देखिए। उस समय के अन्यजातियों में यह प्रथा थी कि उनके उपासना के स्थानों में जो पशु देवी-देवताओं की मूर्तियों को बलि चढ़ाए जाते थे, उनके मांस को बाहर बाजार में लाकर बेचा जाता था। लोग उस बलि किए हुए पशु के मांस को दो प्रकार की समझ के साथ लेते और खाते थे। जो लोग उन देवी-देवताओं को मानते थे, वे उन्हें श्रद्धा और आदर देते हुए, उनकी कृपा और आशीष का पात्र बनने के लिए उसे खाते थे। जो उन देवी-देवताओं को नहीं मानते थे, वे उसे बाजार में बिकने वाले साधारण मांस के समान लेकर, बिना किसी धार्मिक भावना या अभिप्राय के उसे साधारण भोजन के समान खा लेते थे। कई मसीही विश्वासी भी इसी अधार्मिक दृष्टिकोण से उस मांस को लेकर साधारण भोजन के समान खा लेते थे। किन्तु इससे अन्यजातियों में से मसीही विश्वास में आने वाले नए विश्वासियों के लिए एक दुविधा उत्पन्न हो गई थी। उन नए विश्वासियों को लगता था कि उन देवी-देवताओं को बलि किए हुए पशुओं का मांस खाने से, ये मसीही विश्वासी उन देवी-देवताओं के प्रति श्रद्धा और आदर व्यक्त कर रहे हैं। उनके लिए तात्पर्य यह कि केवल प्रभु यीशु मसीह ही परमेश्वर नहीं है, किन्तु वे देवी-देवता भी अस्तित्व रखते हैं, और उन्हें भी ईश्वर के समान आदर देना है। इससे नए मसीही विश्वासियों के विश्वास को भी ठोकर लग रही थी, उनके मनों में फिर से उन्हीं देवी देवताओं को आदर और श्रद्धा देने की भावना आ रही थी, जिन्हें छोड़कर वे मसीह यीशु की ओर मुड़े थे। ताकि उनको ठोकर न लगे, वे इस गलतफहमी में न पड़ें, 1 कुरिन्थियों 8 में इस विषय पर चर्चा करने के बाद, पौलुस ने लिखा “सो भाइयों का अपराध करने से ओर उन के निर्बल विवेक को चोट देने से तुम मसीह का अपराध करते हो। इस कारण यदि भोजन मेरे भाई को ठोकर खिलाए, तो मैं कभी किसी रीति से मांस न खाऊंगा, न हो कि मैं अपने भाई के ठोकर का कारण बनूं” (1 कुरिन्थियों 8:12-13)। अर्थात, यदि उसके मांस खाने से किसी को ठोकर लग रही थी, वह मसीही विश्वास में कमज़ोर पड़ रहा था, तो उसकी इस गलतफहमी के निवारण के लिए पौलुस कैसा भी मांस खाना ही छोड़ने को तैयार था।
इसके साथ ही बलि किए हुए पशुओं के मांस को खाने से सम्बन्धित एक समस्या और थी, जिसे हम पहले कह चुके हैं, कि यह दस में से पहली दो आज्ञाओं का उल्लंघन करना था। इसके बारे में हम अगले लेख में 1 कुरिन्थियों 10:14 से देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Practical Christian Living – 101
Christian Living and Observing the Law (6)
In this study on things related to practical Christian living, in the previous articles we have seen from Acts chapter 15 that there is no need to add anything to the gospel of forgiveness of sins and salvation through the grace of God by coming into faith in the Lord Jesus, in His sacrifice on the Cross of Calvary and in His resurrection from the dead. No one needs to be circumcised or follow the Law to be righteous in God’s eyes and acceptable to Him. Whether it is the Law of Moses, or today, the following of the laws, rituals, and traditions of the sects and denominations; any attempts to be righteous and acceptable to God by following and fulfilling them, is to replace the righteousness by faith with the righteousness by works; it is contrary to the original gospel, and is unacceptable. We had also seen that the leaders of the Church in Jerusalem, after taking this decision related to the gospel, for all the Christian Believers, had after that instructed the Believers who had come into the Christian faith from the Gentiles, that they should put away four things that they had been doing before coming into the Christin faith; these were things polluted by idols (things offered to idols), sexual immorality, things strangled, and eating blood.
Because of the instruction to stop doing these four things, an impression was created that it was like asking them to obey the Law; which then is in contradiction to the decision taken to not go for following the Law in relation to the gospel. In the last two articles we have seen and understood how the forbidding of following these four practices does not bring any contradiction in God’s Word, since these instructions are not a part of the Law of Moses, but had been given before the Law was given through Moses. We had also seen through the references from the Word, that the Ten Commandments given by God are also not a part of the Law; the Ten Commandments had been given separately and before the giving of the Law, and God Himself had shown the Ten Commandments to be separate from the Law. This analysis and conclusion had brought before us the necessity that to come to a correct understanding and interpretation of the things of the Bible, they must be understood and interpreted in their correct context, and along with the other related things given at other places in the Bible. It also confirmed to us the fact that there is no error or contradiction in God’s Word. Any apparent error or contradiction, is because of having an incorrect understanding and misinterpretation. It should be seen along with other related things given in the Bible, and corrected with their help.
During the analysis of these things, we had seen that the instructions forbidding these four things did not imply following the Law; rather, it was asking the Gentiles who had gone astray from God, but now through coming into the Christian faith had been reconciled with God, they should also return to following God’s instructions given prior to giving the Law. The Jews had already been following these four things; now the Gentiles too, who were coming into the Christian faith had to follow the same. By this, all the Christian Believers, whether from the Jews or the Gentiles, will start living a similar practical Christian life, there will be no difference between them. From these four things, we had seen concerning the things polluted by idols (eating of things offered to idols), that this has not been written in these words or this form in either the Ten Commandments, or the Law; but on understanding the implication it is evident that it violates the first two of the Ten Commandments. Whereas the other three things have also been mentioned in either the Law of the Ten Commandments. That is why the Jews had been observing them beforehand.
The situation arising from the eating of the meat of animals sacrificed to idols has been clarified by the Holy Spirit through the Apostle Paul in his first letter written to the Christian Believers in Corinth; please see 1 Corinthians chapters 8 and 10. It was the practice amongst the Gentiles at that time that animals that were sacrificed to the idols of gods and goddesses in their places of worship, their meat was brought out into the market to be sold for eating. People partook of the meat of those sacrificed animals with two perspectives. Those who believed in those gods and goddesses, they ate the meat in reverence and honor towards those deities, to receive their blessings. Those who did not believe in those deities, they considered it as any ordinary meat sold in the market, and ate it without any religious considerations, as an ordinary food item. Many Christian Believers also ate that meat without giving it any religious significance. But this had created a confusion amongst the new Christian Believers coming into the Christian faith. Those Believers felt that by eating the meat of the animals sacrificed to the gods and goddesses, the Christian Believers were expressing reverence and honor towards those deities. To them the implication was that Lord Jesus is not the only God, but those deities also had a divine existence, and they should also be given the honor due to a deity. This was also placing a stumbling block before these new Believers, and in their hearts the feelings of giving reverence to the deities they had left and turned to Christ Jesus, had started to come up once again. So that they would not stumble and not fall into any misunderstanding, after discussing the matter in 1 Corinthians 8, Paul wrote “But when you thus sin against the brethren, and wound their weak conscience, you sin against Christ. Therefore, if food makes my brother stumble, I will never again eat meat, lest I make my brother stumble” (1 Corinthians 8:12-13). In other words, if his eating meat was making anyone stumble, making them weak in their Christian faith, then to correct the misunderstanding, Paul was willing to give up eating meat altogether.
Along with this, there was another problem associated with eating the meat of sacrificed animals, which we have mentioned earlier, that it was against the first two of the Ten Commandments. We will see about this in the next article from 1 Corinthians 10:14 onwards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.