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सोमवार, 6 जनवरी 2025

The Initial Christian Believers / आरंभिक मसीही विश्वासी -2

 

मसीही विश्वास एवं शिष्यता – 3 

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आरंभिक मसीही विश्वासी -2


पिछले लेख में हमने आरम्भिक मसीही विश्वासियों के जीवन और व्यवहार और मसीही मण्डलियों के स्थापित होने के आरंभिक इतिहास के विषय में बाइबल की प्रेरितों के काम पुस्तक में दिए गए कुछ तथ्यों को देखा था। हमने देखा था कि प्रभु यीशु ने न तो कोई धर्म बनाया, न ही अपने शिष्यों से किसी धर्म के प्रचार, प्रसार, परिवर्तन के लिए कहा। परमेश्वर का वचन हमें स्पष्ट दिखाता है कि प्रभु के शिष्य बनने का पहला आवाहन "भक्त यहूदियों" को था, जो धर्मी थे और धार्मिक रीतियों के निर्वाह के लिए यरूशलेम में एकत्रित थे। सुसमाचार प्रचार को सुनकर उन भक्त यहूदियों ने अपनी रीतियों के निर्वाह और पालन की इस धार्मिकता की व्यर्थता को समझा और उसके स्थान पर सही मार्ग को जानना चाहा। जिन लोगों ने सुसमाचार को स्वेच्छा से स्वीकार किया, प्रभु यीशु को उद्धारकर्ता ग्रहण किया, वे मसीही विश्वासी बने; और फिर वे वचन की शिक्षा पाने, संगति रखने, प्रभु-भोज में भाग लेने, तथा प्रार्थना करने में लौलीन रहने लगे। इस पूरी प्रक्रिया में कहीं पर भी किसी भी धर्म का, अथवा किसी धार्मिक प्रक्रिया का पालन करने का कोई उल्लेख नहीं है। क्योंकि उनका कोई "धर्म" होने की कोई भी संज्ञा उनके साथ जुड़ी हुई नहीं थी, बल्कि उन आरम्भिक मसीही विश्वासियों का जीवन, व्यवहार, और शैली संसार के अन्य सभी लोगों से बिल्कुल भिन्न थी, इसलिए उन्हें "पंथ के लोग" कहा जाता था। कुछ समय के बाद, स्वेच्छा और प्रभु के प्रति समर्पण से बने इन प्रभु के शिष्यों को, संसार के लोगों के द्वारा "मसीही" कहा जाने लगा। आज हम विचार करेंगे कि इन बातों से हम क्या निष्कर्ष एवं शिक्षा लेते हैं; अर्थात प्रभु यीशु के सच्चे अनुयायी, प्रभु के वास्तविक शिष्य होने की क्या पहचान है, क्या गुण हैं? 


* सर्वप्रथम, जो सच्चा मसीही विश्वासी होगा, उसमें प्रेरितों 2:42 की चारों आधारभूत बातें विद्यमान होंगी; वह उनके महत्व को समझेगा और मानेगा। 


* दूसरे, मसीह यीशु का शिष्य होना, जीवनपर्यंत और हर परिस्थिति में एक ऐसी गवाही का जीवन जीना है कि समाज के लोग स्वतः ही पहचान जाएं कि प्रभु यीशु के ये अनुयायी अन्य सभी से भिन्न हैं, एक विशिष्ट ‘मार्ग’ या जीवन शैली का पालन करते हैं, उसके अनुसार जीते, रहते, और चलते हैं। 


* तीसरे, बाइबल में दी गई परिभाषा के अनुसार मसीही वही है जो प्रभु यीशु मसीह का समर्पित शिष्य है, न कि किसी धर्म का पालन करने वाला, या किन्हीं धार्मिक विधि-विधानों का निर्वाह करने वाला, तथा कुछ विशेष दिन और त्यौहारों का मानने वाला है। 


* चौथी, यह सामान्य समझ एवं जानकारी की बात है कि कोई भी व्यक्ति, कभी भी, किसी का शिष्य बनकर जन्म नहीं लेता है; वरन वयस्क होकर, स्वेच्छा से, जाँच-परख कर, किसी की शिष्यता को ग्रहण करता है, उसकी आज्ञाकारिता में अपने आप को समर्पित करता है। यही बात मसीही विश्वासी होने पर भी ऐसे ही लागू होती है। 


जैसा हम पहले के लेखों में विस्तार से देख चुके हैं, बाइबल के अनुसार, कोई भी व्यक्ति, कभी भी किसी परिवार विशेष में जन्म लेने से, या किसी धर्म विशेष के पालन करने से, किसी रीति-रिवाज़ या परम्परा अथवा अनुष्ठान को पूरा करने से प्रभु यीशु का शिष्य नहीं हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने पापों के लिए पश्चाताप करके, प्रभु यीशु को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता स्वीकार करके, और उसकी शिष्यता में अपने आप को स्वेच्छा तथा सच्चे मन से समर्पित करने के द्वारा ही व्यक्ति के जीवन में यह संभव होने पाता है; और इसी को ‘नया जन्म’ पाना, अर्थात नश्वर सांसारिक स्थिति से निकलकर अविनाशी आत्मिक जीवन में परमेश्वर की संतान बनकर जन्म लेना और प्रवेश करना कहते हैं। इसके अतिरिक्त मसीही विश्वासी बनने का अन्य कोई तरीका नहीं है। 


कल हम मसीह यीशु में विश्वास करने के अर्थ को समझेंगे, उसका विश्लेषण करेंगे; और फिर उसके पश्चात बाइबल में दिए गए मसीही विश्वासी, या प्रभु यीशु मसीह के शिष्य के गुणों को कुछ विस्तार से देखना आरंभ करेंगे। यदि आपने अभी तक अपने आप को प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में समर्पित नहीं किया है, और आप अभी भी अपने जन्म अथवा संबंधित धर्म तथा उसकी रीतियों के पालन के आधार पर अपने आप को प्रभु का जन समझ रहे हैं, तो उन ‘भक्त यहूदियों’ के समान आपको भी अपनी इस गलतफहमी से बाहर निकलकर सच्चाई को स्वीकार करने और उसका पालन करने की आवश्यकता है। 


आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।  

 

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 Christian Faith & Discipleship – 3

English Translation

The Initial Christian Believers - 2


In the previous article, we had seen from the historical account given in the Book of Acts of the Bible about the initial establishment of Christian assemblies, and about the life, behavior, and manner of living of the initial Christin Believers. We had seen that the Lord Jesus neither established any religion, nor did He ever ask His disciples to preach and propagate any religion, or to convert people to a religion. The Word of God very clearly shows us that the first call to become the disciples of the Lord Jesus was made to "devout Jews" who were religious, and had gathered in Jerusalem to fulfil religious rites and rituals. On hearing the gospel, those devout Jews realized the vanity of their gathering in Jerusalem to fulfil religious obligations, and wanted to know the correct way instead. Those who accepted the gospel, accepted the Lord Jesus as their savior, they were the Christian Believers; and then they began to steadfastly learn God's Word, be in fellowship, partake in the Holy Communion, and gather for prayer. There is no mention anywhere in the whole of this activity of any religion or of observing any religious rituals. Since there was no name of any religion associated with them, but since the life, behavior, and manner of living of those initial Christian Believers was entirely different from the other people of the world, therefore, they were known as "people of the way." After some time, the people of the world started calling these voluntary disciples of the Lord "Christians." Today we will consider what conclusions and lessons can we learn from these things, i.e., what are the characteristics of the actual disciples of the Lord Jesus, how can we identify them


* Firstly, if a person is truly a Christian Believer, in his life the sincere and diligent observance of the four fundamental characteristics of Acts 2:42 will be seen; he will understand their significance and necessity in his life.


* Secondly, to be a disciple of the Lord implies living a life that witnesses for the Lord and His teachings, so that the people of the community automatically realize that he is different from the others; he lives and walks according to a special ‘way’ as a follower of Christ Jesus.


* Thirdly, as per the definition given in the Bible, only he, who is a committed disciple of the Lord Jesus is a Christian; being the follower of a religion or one who fulfills certain religious rites-rituals-ceremonies and observes certain days and festivals does not make anyone a Christian.


* Fourthly, this is a matter of general knowledge and understanding that no one is ever born as someone’s disciple; rather, the person accepts being someone’s disciple – as an adult, voluntarily, after careful evaluation and examination of the life and teachings of the one whose discipleship is under consideration. Only then does a person accept to become another’s disciple; the same thing is applicable, in just the same manner, in becoming a Christian Believer - a disciple of the Lord Jesus Christ.


As we have already seen in detail in the previous articles, according to the Bible, no one ever becomes a disciple of the Lord Jesus by being born in a particular family or by fulfilling the requirements of a particular religion. Every person has to individually repent of his sins, has to personally accept the Lord Jesus as His savior and Lord, and has to voluntarily submit himself with a sincere and committed heart into discipleship of the Lord Jesus; only then does this become possible in a person’s life. This is what is known as being ‘Born-Again’ or saved, i.e., being born out of the perishing worldly condition, into an imperishable eternal spiritual life as a child of God.


In the next article we will look into and understand the meaning of being a disciple of the Lord Jesus Christ; subsequently, we will start looking in some detail into the characteristics of the disciples of Christ from the Bible. If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family, and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then like those ‘devout Jews’ you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts, and start living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.

 

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