ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

मंगलवार, 9 जुलाई 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 125

 

Click Here for the English Translation


आरम्भिक बातें – 86


न्याय के अन्तिम होने के निहितार्थ – 2

 

पिछले लेख में हम ने इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छठी आरंभिक बात, “अंतिम न्याय” के बारे में देखा था कि परमेश्वर का वचन हमें बारम्बार यह कहता है कि न्याय अन्तिम है, अपरिवर्तनीय है। कुछ मतों और डिनॉमिनेशनों में देखी जाने वाली इन मन-गढ़न्त बातों का कोई आधार, कोई पुष्टि नहीं है कि मृतकों की आत्माओं की अन्तिम नियति बदली जा सकती है। न ही कुछ अन्य लोगों की इस धारणा का बाइबल से कोई समर्थन है कि क्योंकि परमेश्वर दयालु और क्षमा करने वाला है, इसलिए अन्ततः वह सभी को क्षमा कर के अपने पास स्वर्ग में ले लेगा। हम ने यह भी देखा था कि ये और अन्य ऐसी ही बातें किस प्रकार से शैतान की युक्तियाँ हैं, लोगों को बहका कर अनन्त काल के लिए नरक में भेजने के लिए, तथा परमेश्वर और उस के वचन पर आरोप लगाने और उन में अविश्वास उत्पन्न करने के लिए, कि उस में कहा और लिखा कुछ है, और होना कुछ और है; और इसलिए, उन्हें अटल और अपरिवर्तनीय मान कर उन पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। आज हम परमेश्वर के वचन से कुछ उदाहरण देखेंगे जो इन शैतानी धारणाओं के झूठ को उजागर करती हैं।

क्रूस पर चढ़ाए गए जिस डाकू ने पश्चाताप किया था, प्रभु ने उसे आश्वासन दिया था “तब उसने कहा; हे यीशु, जब तू अपने राज्य में आए, तो मेरी सुधि लेना। उसने उस से कहा, मैं तुझ से सच कहता हूं; कि आज ही तू मेरे साथ स्वर्गलोक में होगा” (लूका 23:42-43)। अब ध्यान कीजिए कि वह डाकू एक घोर अपराधी था, इतना बुरा कि रोमी शासन ने उसे सबसे निकृष्ट अपराधियों के लिए रखे गए मृत्यु-दण्ड के योग्य पाया था। क्रूस पर भी उस ने, उस के साथ क्रूस पर चढ़ाए गए दूसरे डाकू के साथ मिल कर प्रभु का ठट्ठा किया था (मत्ती 27:44; मरकुस 15:32)। लेकिन कुछ समय के बाद उस का हृदय-परिवर्तन हुआ, उसे एहसास हुआ कि प्रभु यीशु वास्तव में कौन है, और तब उस ने मन-फिराया और प्रभु से निवेदन किया कि उस पर दया-दृष्टि करे (लूका 23:40-41)। उस ने जैसे ही यह किया, तुरन्त ही प्रभु ने उसे आश्वासन दिया, “आज ही तू मेरे साथ स्वर्गलोक में होगा” किसी अन्तरिम स्थान पर नहीं, वरन सीधे स्वर्गलोक में प्रभु के साथ। उस डाकू के पास न तो कोई अवसर और न ही समय था कि ऐसा कुछ भी करे जो स्वर्ग में उस के प्रवेश को उचित ठहरा सके। उस ने तो किसी भी कलीसिया के किसी भी नियम और रीति को पूरा नहीं किया था; उसने कोई भला काम नहीं किया; उसका बपतिस्मा नहीं हुआ; उसने प्रभु-भोज में भाग नहीं लिया; उसने किसी प्रकार की कोई भी प्रार्थनाएं नहीं कीं। उसने बस इतना किया कि अपने जीवन के अन्तिम पलों में, सच्चे मन से पश्चाताप कर लिया, और उसके केवल यह करने से ही उसे प्रभु के साथ अनन्तकाल के लिए स्वर्ग में रहना प्राप्त हो गया। प्रभु ने न तो कहा, और न ही कोई संकेत किया कि उस के जीवन और कार्यों के कारण अभी तो उसे अंतरिम स्थान पर जाना होगा; और फिर वहां से, उस के लिए पृथ्वी पर लोग क्या करते हैं, उस के आधार पर, उसे स्वर्ग में लिया जा सकता है, और तब, उस समय प्रभु उस पर कृपालु रहेगा, उसे कुछ छूट दे देगा कि उसका का स्वर्ग में प्रवेश सहज हो सके। नहीं! प्रभु ने बिलकुल सीधे और स्पष्ट रीति से यह कह दिया कि तुरन्त ही उस की आत्मा प्रभु के साथ स्वर्ग में होगी। यह इस बात को स्पष्ट दिखाता है की कोई अन्तरिम स्थान नहीं है; और मृत्यु के बाद मनुष्य की आत्मा उस के अन्तिम स्थान – स्वर्ग अथवा नरक में पहुँच जाती है। हम ने पिछले लेख में इस बात की एक अन्य पुष्टि धनी व्यक्ति और लाज़रस के दृष्टान्त से भी देखी थी।

भजन 49 में, जो कोरह वंशियों का लिखा एक भजन है, पद 6 से 9 में लिखा है, “जो अपनी सम्पत्ति पर भरोसा रखते, और अपने धन की बहुतायत पर फूलते हैं, उन में से कोई अपने भाई को किसी भांति छुड़ा नहीं सकता है; और न परमेश्वर को उस के स्थान पर प्रायश्चित्त में कुछ दे सकता है, (क्योंकि उनके प्राण की छुड़ौती भारी है वह अन्त तक कभी न चुका सकेंगे)। कोई ऐसा नहीं जो सदैव जीवित रहे, और कब्र को न देखे।” इस प्रकार से पुराने नियम के समय भी परमेश्वर के लोग जानते थे कि परलोक में किसी के छुटकारे के लिए पृथ्वी पर कोई अपने सँसाधनों से कुछ नहीं कर सकता है। इसे इफिसियों 2:8-9, “क्योंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है, और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन परमेश्वर का दान है। और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्ड करे” तथा तीतुस 3:5, “तो उसने हमारा उद्धार किया: और यह धर्म के कामों के कारण नहीं, जो हम ने आप किए, पर अपनी दया के अनुसार, नए जन्म के स्नान, और पवित्र आत्मा के हमें नया बनाने के द्वारा हुआ” के साथ मिला कर विचार कीजिए, और हमारे सामने बाइबल का बिल्कुल स्पष्ट कथन है कि कोई भी व्यक्ति अपने आप किए हुए किसी भी प्रकार के धार्मिकता के कार्यों, या अन्य किसी बात के द्वारा बच नहीं सकता है। अब यदि कोई व्यक्ति अपने आप को ही नहीं बचा सकता है, अपने किसी भी प्रयास से स्वयं को ही परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी नहीं ठहरा सकता है, तो फिर वह किसी अन्य को कैसे करेगा? जब कि भजन 49:6-9 ने पहले ही कह दिया है कि किसी और को छुड़ाने के लिए कोई कुछ भी नहीं कर सकता है। इसलिए यह बिल्कुल स्पष्ट है कि लोगों के अन्तरिम स्थान पर भेजे जाने की धारणा, जहाँ से उन्हें उनके लिए पृथ्वी पर किए गए कार्यों के द्वारा छुड़ाया जा सकता है पूर्णतः झूठ है, बाइबल के बिल्कुल विरुद्ध है, और कदापि स्वीकार्य नहीं है।

पिछले लेख में हमने पहले ही बाइबल के पदों से देख लिया है कि न्याय और आत्मा का स्थान अन्तिम, अपरिवर्तनीय, और चिरस्थाई है। इसलिए, वे लोग जो इस भ्रम में जीवन जीते हैं कि वे पृथ्वी पर एक भ्रष्ट जीवन जी सकते हैं, क्योंकि अन्ततः परमेश्वर उन्हें स्वर्ग में ले ही लेगा, वे एक बहुत बड़े धोखे में जी रहे हैं, वास्तविकता की तथा परमेश्वर के वचन की सच्चाई की अनदेखी कर रहे हैं, और अन्ततः जब सत्य उन के सामने आएगा, तब समाधान का कोई अवसर, कोई तरीका उपलब्ध नहीं होगा। अगले लेख में हम न्याय से सम्बन्धित कुछ अन्य महत्वपूर्ण बातों को देखेंगे।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

******************************************************************

English Translation


The Elementary Principles – 86


The Implications of Judgment Being Eternal – 2

 

    In the previous article on “Eternal Judgment,” the sixth elementary principle given in Hebrews 6:1-2 we have seen that God’s Word the Bible repeatedly says that the judgment is final and unchangeable. There is no Biblical basis or affirmation for the concocted stories seen amongst some sects and denominations that the final fate of the souls of the dead can be altered. Nor is there any support from the Bible for the belief of many others who think that since God is merciful and forgiving, therefore, eventually He will forgive everyone and take them to be with Him in heaven. We also saw how these and other such unBiblical concepts are satanic attempts to send people into eternal hell by misguiding them, and to discredit God and His Word by making people believe that they are fickle, and therefore should not be believed in. Today we will see some examples from God’s Word that show the fallacy of these satanic notions.

    The thief on the cross, who repented, was assured by the Lord Jesus, “Then he said to Jesus, "Lord, remember me when You come into Your kingdom." And Jesus said to him, "Assuredly, I say to you, today you will be with Me in Paradise” (Luke 23:42-43). Now, remember that he was a heinous criminal, one who was worthy of the worst kind of death penalty that the Romans used to give to worst of the criminals. Even while on the cross, he was reviling the Lord Jesus, with the other thief who had also been crucified with him (Matthew 27:44; Mark 15:32). But after sometime he had a change of heart and realized who Jesus actually was, he then repented and requested the Lord to look favorably upon him (Luke 23:40-41). When he did this, the Lord immediately assured him, “Assuredly, I say to you, today you will be with Me in Paradise” not to some intermediate place but straightaway to paradise, with the Lord. This thief had no time or opportunity to do anything to justify his entry to paradise and be with the Lord. He had not fulfilled any rules or rituals of any Church or denomination; he had not done any good works; he had not been baptized; he had not taken part in the Holy Communion; he had not said any kind of prayers. All he had done was repent of his sins in his dying moments, and that alone had assured him his place in paradise with the Lord for eternity. The Lord never said or implied that because of his life and deeds, for now he will have to go to the intermediate place; and from there, based on what others do on his behalf, he will be taken from there to heaven, and in that situation, the Lord will be considerate and give him some concessions to make his transit easier. No! The Lord simple assured that after death, his soul will be with the Lord in paradise. This clearly shows that there is no intermediate place; and after death the soul reaches its final unchanging destination – heaven or hell. We have already seen another affirmation of this in the last article, through the parable of the Rich man and Lazarus.

    In Psalm 49, a Psalm of the sons of Korah, is written in verses 6 to 9, “Those who trust in their wealth And boast in the multitude of their riches, None of them can by any means redeem his brother, Nor give to God a ransom for him-- For the redemption of their souls is costly, And it shall cease forever-- That he should continue to live eternally, And not see the Pit.” So, even in the Old Testament, the people of God knew that no one can do anything to redeem anyone in the next world, through his resources on earth. Combine this with Ephesians 2:8-9, “For by grace you have been saved through faith, and that not of yourselves; it is the gift of God, not of works, lest anyone should boast” and Titus 3:5 “not by works of righteousness which we have done, but according to His mercy He saved us, through the washing of regeneration and renewing of the Holy Spirit” and we have a clear Biblical statement before us that no man can save himself through any kind of works of righteousness, or anything else they may do. Now, if a person cannot save himself and be righteous before God through his own efforts of any kind, how can he do anything to save someone else? More so, when Psalm 49:6-9 has already declared that there is nothing that any man can do to redeem someone else. Hence it is quite clear that this concept of people being sent to a temporary place, from where they may be redeemed through things done on their behalf on earth, is completely false, totally unBiblical, absolutely untenable.

    In the last article we have already seen through the Biblical verses that the judgement and state of the soul of the dead is final, unalterable, and permanent. Therefore, those who think they can live a wayward life while on earth, and will eventually be taken by God into heaven, are living under a gross misconception, are ignoring reality and the truth of God’s Word; and when they will come to face the truth, then at that time they will have no remedy to rectify their state. We will consider some other important things related to judgment in the next article.

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well