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आरम्भिक बातें – 115
परमेश्वर की क्षमा और न्याय – 21
प्रभु की मृत्यु और उसके निहितार्थ – 3
इब्रानियों 6:1-2 में दी गई आरम्भिक बातों में से छठी बात, “अन्तिम न्याय” के हमारे इस अध्ययन में, पिछले लेखों में हमने देखा है कि प्रथम पाप के साथ तीन और बातें मानवजाति में आ गईं – पहली, मृत्यु, दोनों आत्मिक तथा शारीरिक; दूसरी, मनुष्य के लिए जीवन भर दुःख और परेशानी उठाना और परिश्रम करना; और तीसरी, उनके लिए जो परमेश्वर की ओर मुड़ने और उसे जीवन समर्पित करने का निर्णय लेते हैं, परमेश्वर के साथ उनके बहाल किए जाने और अनन्तकालीन प्रतिफल प्राप्त करने की प्रतिज्ञा। पाप के दूसरे और तीसरे प्रभावों, अर्थात, आजीवन दुःख, परेशानी, और परिश्रम, तथा प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को प्रतिफल प्राप्त होने के बारे में देखने के पश्चात, पिछले कुछ लेखों से हम पाप के पहले प्रभाव, अर्थात, मृत्यु, और किस प्रकार से प्रभु यीशु के कलवरी के क्रूस पर दिए गए बलिदान के द्वारा हम मृत्यु से छुड़ाए गए हैं, उन बातों के बारे में देख रहे हैं। समस्त मानवजाति के सभी पापों को अपने ऊपर ले ले लेने, हमारे लिए स्वयं पाप बन जाने के बाद, प्रभु यीशु मसीह ने अपनी मृत्यु – उसके दोनों पक्षों, शारीरिक और आत्मिक, के द्वारा उन पापों की पूरी कीमत चुका दी। इस प्रकार से उसने उनके लिए, जो उसमें विश्वास लाते हैं, क्रूस पर दिए गए उसके बलिदान को स्वीकार करते हैं, और स्वेच्छा से अपने जीवन उसे समर्पित कर देते हैं, कि उसकी तथा उसके वचन की आज्ञाकारिता में बने रहें, पाप से छुटकारे और परमेश्वर से मेल-मिलाप कर लेने का मार्ग तैयार करके दे दिया है। आज हम क्रूस पर प्रभु के बलिदान और मृत्यु के कुछ अन्य पक्षों पर विचार करेंगे, जो पाप के साथ आने वाले प्रभावों तथा मसीही विश्वासियों के जीवनों से सम्बन्धित हैं।
जैसा कि हम आरम्भिक लेखों में देख चुके हैं, पाप के कारण मनुष्य परमेश्वर की संगति से अलग हो गया, अर्थात आत्मिक मृत्यु में आ गया; मनुष्य को अदन की वाटिका से बाहर निकाल दिया गया, और यह निश्चित कर दिया गया की मनुष्य कभी वाटिका में वापस घुसने न पाए। लेकिन जैसा कि, उत्पत्ति 4 अध्याय और आगे लिखी गई इसके बाद की घटनाएँ दिखाती हैं, तथा वर्तमान में हमारे अपने व्यक्तिगत अनुभव दिखाते हैं, इस टूटी हुई संगति और अदन की वाटिका में न लौट पाने की स्थिति के बावजूद, परमेश्वर ने मनुष्य से प्रेम करना और उसकी देखभाल करना, उसके लिए प्रावधान करना, विभिन्न तरीकों से उसकी सहायता करना, उसकी भलाई में संलग्न रहना, कभी नहीं छोड़ा। मनुष्य के प्रति उसके इस प्रेम ही के कारण ही परमेश्वर ने उपाय किया कि प्रभु यीशु मसीह में होकर मनुष्य के पाप का प्रायश्चित किया जाए, और वह उसके साथ संगति में बहाल किया जाए। लेकिन, इन सभी बातों के होते हुए भी, जैसा कि पहले भी कहा गया है, इनमें से किसी भी बात ने पाप के दूसरे प्रभाव, अर्थात, आजीवन दुःख, परेशानी, और परिश्रम को न तो मिटाया, और न ही थोड़ा सा भी कम किया। वरन, जैसा हमने देखा है कि यद्यपि यह परमेश्वर द्वारा हमारे लाभ के लिए दिया गया उपाय है, लेकिन मसीही विश्वासियों के लिए, परमेश्वर ने यह निर्धारित किया है कि वे बहुत क्लेष उठाकर उसके राज्य में प्रवेश करें (प्रेरितों 14:22; फिलिप्पियों 1:29; 2 तीमुथियुस 3:12)। इसी प्रकार से, अनन्तकालीन स्वर्गीय प्रतिफलों के लिए भी, यद्यपि प्रभु यीशु के क्रूस पर दिए गए बलिदान और मृत्यु ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि जो उसे स्वीकार करते हैं और उस पर विश्वास लाते हैं, वे स्वर्ग जाएँगे और प्रतिफल पाएँगे, लेकिन प्रभु की मृत्यु ने उनसे लेखा लिए जाने को किसी भी रीति से कम या हल्का नहीं किया है। जैसा पौलुस ने 2 कुरिन्थियों 5:10 में “हम” शब्द के प्रयोग के द्वारा दिखाया है, उसे और उसके समान के अन्य प्रभु के सेवकों, तथा अन्य सभी मसीही विश्वासियों को अपने जीवनों, कार्यों, और मन में रखी गई बातों का हिसाब, बिल्कुल समान रीति से, प्रभु को देना ही होगा। अर्थात, प्रभु यीशु की मृत्यु, किसी के लिए भी इस हिसाब देने में किसी भी प्रकार का कोई भी अन्तर नहीं लाती है।
इसलिए संक्षेप में, मसीह सभी के लिए मरा (2 कुरिन्थियों 5:15; इब्रानियों 2:9), और उसकी मृत्यु और पुनरुत्थान के द्वारा, उसने सभी मसीही विश्वासियों का मेल-मिलाप परमेश्वर के साथ करवा दिया है (रोमियों 5:1-2, 10; 2 कुरिन्थियों 5:18; इफिसियों 2:16), उसने सभी के पापों की पूरी कीमत चुका दी है, और यह उनके जीवनों में कार्यान्वित हो जाती है जो उसके बलिदान को स्वीकार करके उसमें विश्वास लाते हैं (रोमियों 6:23)। उसकी मृत्यु और पुनरुत्थान कभी भी, किसी के भी लिए, कोई सरल, आरामदेह, समृद्धि और सम्पन्नता का जीवन प्रदान करने के लिए नहीं थे, उनके लिए भी नहीं जो उसमें विश्वास लाते हैं और उसे अपना उद्धारकर्ता और प्रभु स्वीकार कर लेते हैं। इसलिए, बहुतेरों के द्वारा और बहुधा किया जाने वाला यह प्रचार, कि प्रभु यीशु को स्वीकार कर लेने से सभी समस्याओं का अन्त हो जाएगा, जो किसी भी परेशानी में हैं, उनकी समस्याओं का समाधान हो जाएगा, वे समृद्ध और सम्पन्न हो जाएँगे, आदि, बाइबल के अनुसार नहीं है, झूठा है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि प्रभु परमेश्वर ने यह प्रतिज्ञा की है कि वह उनकी परेशानियों में भी अपने लोगों के साथ रहेगा, उन्हें शान्ति और सान्त्वना देगा, उनकी सहायता करेगा, परेशानियों से निकलने में उनका मार्गदर्शन करेगा, और हर परिस्थिति में उनकी शान्ति को बनाए रखेगा। लेकिन कहीं पर भी, कभी भी, प्रभु ने उन्हें एक सरल, आरामदेह, और समृद्धि तथा सम्पन्नता का जीवन देने का कोई वायदा नहीं किया है; जैसा कि बहुतेरे प्रचार करते और सिखाते हैं, प्रभु को स्वीकार करने के लिए लोगों को साँसारिक बातों का लालच देते हैं, जो कि याकूब 4:4 और 1 यूहन्ना 2:15-17 के विरुद्ध है।
इसलिए, वे लोग जो ऐसा करते हैं, उन्हें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि यद्यपि प्रभु ने हमारे पापों को अपने ऊपर लेकर उनकी पूरी कीमत चुका दी है, लेकिन उसने उन पापों के परिणामों को, अर्थात पाप के दूसरे और तीसरे प्रभावों को अपने ऊपर नहीं लिया है, और न ही किसी के भी लिए उन्हें सहा है। जैसा कि परमेश्वर का वचन बाइबल बहुत स्पष्ट यह दिखा देती है, प्रत्येक मसीही विश्वासी को इन दोनों प्रभावों में से होकर व्यक्तिगत रीति से स्वयं ही निकलना होगा। परमेश्वर ने जो कहा नहीं है, वह उसे कभी स्वीकार नहीं करेगा, न उसका कोई आदर करेगा, और न ही उसे कभी पूरा करेगा। प्रभु के नाम में प्रचार की जाने वाली गलत शिक्षाएं और बातें, कभी किसी का कोई लाभ नहीं करेंगी, बल्कि समस्याओं को बढ़ाएंगी, हानि करेंगी।
अगले लेख में हम प्रभु के क्रूस और उस की मृत्यु से सम्बन्धित कुछ और प्रचलित, किन्तु गलत धारणाओं को देखेंगे जिनका बाइबल से कोई समर्थन नहीं है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 115
God’s Forgiveness and Justice – 21
Lord’s Death and its Implications - 3
In this study on “Eternal Judgement,” the sixth elementary principle given in Hebrews 6:1-2, in the previous articles we have seen that along with the first sin, came three things – first, death, spiritual as well as physical; second, life-long suffering, problems, and toil for mankind; and third, a promise of restoration and eternal rewards for those who turn back to God and submit themselves to Him. Having seen about the second and third effects of sin, i.e., life-long suffering, problems, and toil, and about determining and giving of eternal rewards to each truly Born-Again Christian Believer, for the past few articles we have been seeing about the first effect of sin, i.e., death, and how the sacrifice of the Lord Jesus on the Cross of Calvary has delivered us from death. Having taken all the sins of all of mankind upon Himself, having become sin for us, the Lord paid in full for those sins through His death, in both its, physical and spiritual aspects. Thereby, He prepared the way of redemption from sins and re-conciliation with God for all those who believe in Him, accept His sacrifice on the Cross, and willingly submit their lives to Him, to live in obedience to Him and His Word. Today we will consider some aspects of the sacrificial death of the Lord on the Cross, related to the other two things that came with sin and the lives of Christian Believers.
As we had said in the earlier articles on this series, sin brought in separation of man from fellowship with God, i.e., spiritual death; man was sent out of the Garden of Eden, and God ensured that man could never return there. But as the subsequent events, from Genesis chapter 4 onwards, and presently our own experiences show, despite this broken fellowship, and permanent banishment from the Garden of Eden, God did not stop loving and caring for man, providing for him, helping him in various ways, and being involved in his welfare. It was because of this love for man that God made the provision for man’s sins to be atoned and his being restored to fellowship with Him, through the Lord Jesus Christ. But despite all this, as has been pointed out earlier, none of this ever took away or even lessened, the second effect of sin, i.e., life-long suffering, problems, and toil. Rather, as we have seen that though it is a God given mechanism for our benefit, but for the Christian Believers, it has also been ordained by God that we enter His kingdom through much suffering (Acts 14:22; Philippians 1:29; 2 Timothy 3:12). Similarly, for the eternal rewards in heaven, although the sacrificial death of the Lord has ensured that all who accept His sacrifice and believe in it, will get to heaven and be rewarded, yet, the Lord’s death has not in any way decreased the accountability of the Christian Believers to God in any manner. As Paul, through the use of “we” in 2 Corinthians 5:10, has indicated, even he and the likes of him, besides all other Christian Believers, will be giving an account of his life, works, and things in their heart to the Lord in just the same manner as anyone else. Therefore, the death of the Lord does not in any manner alter this accounting to make it any different for anyone else.
So, to summarize, Christ died for all (2 Corinthians 5:15; Hebrews 2:9), and through His death and resurrection, He has reconciled His Believers with God (Romans 5:1-2, 10; 2 Corinthians 5:18; Ephesians 2:16), He has paid the wages of sin for everybody, and this becomes effective in the lives of those who cares to believe and accept His sacrifice (Romans 6:23). His death and resurrection were never meant to provide an easy going, comfortable, and prosperous life to those who come to faith in Him and accept Him as their Savior Lord. Therefore, all the preaching and teaching, done by many, and done very frequently, that accepting the Lord Jesus will bring an end to all troubles, and sort things out for those who are in any kind problems, make them prosperous, is unBiblical and false. No doubt that the Lord God has promised that He will be with His people in all their troubles, comfort them, help them, guide them through their problems, will stand by them, and keep them at peace in all situations. But nowhere has He said that He has ensured them a trouble-free, comfortable, prosperous life; as many preach and teach, to entice people to accept the Lord, through perishable worldly inducements, contrary to James 4:4 and 1 John 2:15-17.
Those who do so, should remember that while the Lord has taken our sins upon Himself and paid for them through His life; He has not taken upon Himself the consequences of those sins, i.e., the second and third effects of sin, and has not gone through these two effects for anyone. As God’s Word the Bible very clearly demonstrates, every Believer has to face them, and live through these two effects individually in his life. What God has not said, He will neither accept, nor honor, nor do; and any wrong preaching and teaching in His name will only create problems and harm, never benefit anyone, in any manner.
In the next article we will look at some other popular, but wrong notions related to the crucifixion and death of the Lord, that have no Biblical support.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.