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सोमवार, 14 अक्टूबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 220

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 65


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (7) 


हम प्रेरितों 2:42 में दी गई व्यवहारिक मसीही जीवन जीने से सम्बन्धित बातों को देखते आ रहे हैं। इस पद में चार बातें दी गई हैं, जिनका आरम्भिक मसीही विश्वासी लौलीन होकर पालन किया करते थे। वर्तमान में हम इनमें से चौथी बात, प्रार्थना करने पर विचार कर रहे हैं। हम देख चुके हैं कि सामान्य समझ के विपरीत, प्रार्थना करना केवल परमेश्वर से कुछ माँगना, या उसे कुछ करने के लिए कहना नहीं है। बल्कि प्रार्थना करना, परमेश्वर से वार्तालाप करना है; और यह वार्तालाप परमेश्वर के लोगों को हर बात के लिए करना चाहिए ताकि हर बात के बारे में उन्हें परमेश्वर का मार्गदर्शन, सहायता, और निर्देश मिलते रहें, तथा वे किसी गलत निर्णय या अनुचित मार्ग में न भटक जाएं। साथ ही, परमेश्वर के वचन बाइबल में यह परमेश्वर का निर्देश भी है कि उसके लोग हर बात के लिए उसके साथ निरन्तर प्रार्थना में जुड़े रहें, अर्थात उससे बातचीत करते रहें। परमेश्वर से प्रार्थना करने, उससे माँगने से सम्बन्धित एक अन्य गलत धारणा यह भी है कि परमेश्वर प्रत्येक प्रार्थना का उत्तर हाँ में और तुरन्त देगा। और यदि ऐसा नहीं होता है तो इसका तात्पर्य है कि प्रार्थना में माँगने वाले के विश्वास में कुछ कमी है, जिस कारण परमेश्वर उसकी प्रार्थना का अपेक्षित उत्तर नहीं दे रहा है। पिछले लेख से हमने इसी विषय पर विचार करना आरम्भ किया है, और की गई प्रार्थना या मांगी गई बात के लिए सम्भव प्रतिक्रिया को एक पारिवारिक स्थिति से समझा है। आज हम इसी बात को आगे बढ़ाएंगे, और देखना आरम्भ करेंगे कि प्रार्थनाओं का सकारात्मक उत्तर प्राप्त करने के लिए परमेश्वर का वचन क्या कहता है। 


यह एक बहुत आम, किन्तु गलत शिक्षा है कि परमेश्वर ने अपने वचन में यह वायदा किया है, यह आश्वासन दिया है कि वह अपने लोगों की सभी प्रार्थनाओं का सकारात्मक उत्तर ही देगा। यह शिक्षा देने वाले, इस दावे को प्रमाणित करने के लिए बाइबल के कुछ पद दिखाते हैं, जो एक बार को उनके इस दावे की पुष्टि करने वाले प्रतीत होते हैं। लेकिन यदि हम इस दावे के बारे में थोड़ा सा भी विचार और विश्लेषण करें, तो यह प्रकट हो जाता है कि परमेश्वर का यह वायदा इस तरह से नहीं लिया जा सकता है। उदाहरण के लिए किसी खेल की स्पर्धा का एक बहुत साधारण सा उदाहरण लीजिए। स्पर्धा में भाग लेने वाली सभी टीमों के, खिलाड़ियों के, अपने-अपने समर्थक होते हैं; और सभी समर्थक चाहते हैं कि उनकी टीम ही जीते, उनकी पसन्द के खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन करें। लेकिन प्रत्येक खेल के लिए तय है कि एक जीत केवल एक टीम की होगी। अब दोनों ही टीमों के समर्थकों में मसीही विश्वासी भी होंगे; और वे परमेश्वर से अपनी-अपनी टीम को जिताने की प्रार्थना करेंगे। अब जो भी टीम हारेगी, क्या उसकी हार के लिए उसके समर्थकों के विश्वास की कमज़ोरी को ज़िम्मेदार माना जाए? ऐसे ही, यदि कोई विश्वासी साल भर अपनी पढ़ाई लिखाई ठीक से न करे, और फिर वार्षिक परीक्षा के समय वह और उसका परिवार, और मित्र आदि प्रार्थना माँगें कि वह अच्छे अंकों से पास हो जाए, तो क्या यह उचित प्रार्थना है? और यदि वह पास नहीं होता है तो क्या यह उसके और अन्य प्रार्थना करने वालों के विश्वास की स्थिति का सूचक है? इसलिए, यह प्रकट है कि परमेश्वर ऐसा कोई वायदा नहीं करेगा जो उपयुक्त और उचित नहीं है, जो उसके व्यक्तित्व, गुणों, और वचन से मेल नहीं खाता है।

 

परमेश्वर के वचन की गलत समझ और गलत व्याख्या का सबसे आम कारण है उसके वचन की बातों को उनके सन्दर्भ में नहीं देखना। बल्कि अपनी पसन्द, इच्छा, और आवश्यकता के अनुसार किसी पद या वाक्य को उसके सन्दर्भ के बाहर लेकर, उसे अपनी समझ और व्याख्या में बैठाना और सिखाना। बाइबल के प्रत्येक खण्ड, या पद, या वाक्य अथवा वाक्यांश के दो तरह के सन्दर्भ होते हैं - तात्कालिक या स्थानीय, और दूरस्थ। तात्कालिक या स्थानीय सन्दर्भ उस खण्ड, वाक्य, या पद के पहले और बाद में लिखी गई बातें हैं, जिनके अनुसार उसे देखना और समझना चाहिए, अन्यथा सही समझ और व्याख्या नहीं की जा सकेगी। दूरस्थ सन्दर्भ उस बात या विषय से सम्बन्धित वचन में अन्य स्थानों पर लिखी गई बातें हैं। क्योंकि परमेश्वर के वचन में कोई त्रुटि, कोई विरोधाभास नहीं है, इसलिए यह अनिवार्य है कि, किसी भी व्यक्ति के द्वारा की जाने वाली प्रत्येक व्याख्या, प्रत्येक शिक्षा, वचन के अन्य किसी भी भाग के विरुद्ध न जाए, उसे न काटे। चाहे वह भाग तात्कालिक या स्थानीय सन्दर्भ का हो, अथवा किसी दूरस्थ सन्दर्भ का। यदि कोई भी व्याख्या और शिक्षा, वचन के किसी भी अन्य भाग के साथ सुसंगत नहीं बैठती है, किसी भाग के साथ कोई विरोधाभास उत्पन्न करती है, तो फिर वह व्याख्या या शिक्षा सही नहीं है, चाहे उसे देने वाला कोई भी क्यों न हो। ऐसी हर व्याख्या और शिक्षा को कदापि स्वीकार नहीं करना चाहिए, तुरन्त ही उसका तिरस्कार किया जाना चाहिए, उसे फैलने नहीं देना चाहिए।


परमेश्वर ने अपने वचन में अनेकों स्थानों पर, पुराने और नए नियम दोनों में, यह स्पष्ट लिखवाया है कि वह किन लोगों की और कैसी प्रार्थनाएं स्वीकार करता है। लेकिन प्रार्थना के बारे में गलत शिक्षाएं देने वाले परमेश्वर के वचन की इन बातों की अनदेखी करके, केवल कुछ पदों या वाक्यों को उनके सन्दर्भ से बाहर लेकर, ये गलत और अनुचित दावे करते हैं कि परमेश्वर हर प्रार्थना का उत्तर हाँ में और तुरन्त देता है। अगले लेख में हम परमेश्वर के वचन के कुछ पदों को देखेंगे, जो हमें परमेश्वर द्वारा प्रार्थना के उत्तर दिए जाने के बारे में समझाएंगे।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Things Related to Christian Living – 65


The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (7)


We have been considering from Acts 2:42 the things related to practical Christian living. In this verse, four things have been given, which the initial Christian Believers followed steadfastly. Presently we are looking at the fourth of these things, praying. We have seen that contrary to the popular misconception, prayer is not just asking God to give or do something. Rather, praying is conversing with God; and God’s people should be talking about everything with God, so that they will keep receiving guidance, help, and instructions from God, and not be misled through some incorrect decision or into some wrong way. Moreover, there is another instruction given in God’ Word, that God’s people should continually remain joined to Him in prayer, i.e., keep conversing with Him. There is another misconception related to prayer, that God will answer all prayers in “yes” and answer immediately. And if this does not happen, then it means that there is something lacking in the faith of the one praying, therefore, God has not given the expected answer to the prayer. Since the last article, we have started to consider this topic, and have understood the possible responses to a prayer or a request through a family setting. Today we will proceed further on this, and will start looking up what the Word of God says about receiving a positive answer to prayers.


It is a very common, but incorrect teaching that God has assured in His Word that He will answer favorably all the prayers made by His people. Those who give this teaching, to substantiate their claim show some verses from the Bible, which seem to affirm their claim. But if we ponder over and analyze even a little about this claim, then it becomes apparent that this promise from God cannot be taken as is claimed about it. As an example, take a very simple example about some sports competition. Every competing team and their players have their own supporters; and every supporter wants that their team should win and their favorite player should perform well. But it is only possible for only one team to be the winner. Now, there will be Christian Believers amongst the supporters of the two playing teams; and they will be praying for their team to win. Now, whichever team loses, will the faith of their Christian supporters be held responsible for their loss? Similarly, suppose a Believer does not study properly throughout the year, and then at the time of the annual examinations, he, his family, his friends, etc. all start praying that he should pass with good marks, then would it be an appropriate prayer? And if he does not pass, then is it indicative of the state of the faith of those praying for him? Therefore, it is apparent that God will never give any promise that is inappropriate and incorrect, that which does not conform to His personality, attributes, and Word.


The most common reason for misunderstanding and misinterpreting God’s Word is not considering what is written, in its context. Instead, taking that verse or sentence out of its context, and according to one's own understanding, desire, and necessity, try to fit it into a particular interpretation and teach the same. With every passage, or verse, or phrase of the Bible, there are always two kinds of contexts, the immediate or local, and the distant. The immediate or local context are the things written before and after that passage, sentence, or verse, and should be seen and interpreted according to it, else a correct understanding and interpretation cannot be arrived at. The distant context are the other related passages and teachings related to that topic or thing, at other places in the Bible. Since there is no error, or contradiction in God’s Word, therefore, it is essential that every interpretation, and teaching should never be at a variance or contradict any other portion of God’s Word, whether of immediate and local, or of a distant context.  If any interpretation or teaching does not conform to any other part of God’s Word, or contradicts it in any way, then it cannot be a correct interpretation or teaching, no matter who is expounding it. It should never be accepted, it should immediately be rejected, and should not be allowed to spread.


God, at many places in His Word, in both the Old as well as the New Testaments, has very clearly written what kind of prayers and whose prayers He accepts. But those who give wrong teachings about prayers, ignore these things given in God’s Word, take only a few verses or sentences out of their context, and then make these false and inappropriate claims that God gives an affirmative answer to every prayer, and does so immediately. In the next article we will look at some verses from God’s Word, which will explain to us about prayers being answered by God.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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