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आरम्भिक बातें – 37
बपतिस्मों – 17
बपतिस्मा - उद्धार के लिए अनिवार्य? (2) - प्रेरितों 2:38
इब्रानियों 6:1-2 में दी गई आरम्भिक बात, “बपतिस्मों” पर विचार करते हुए, पिछले लेख से हमने बपतिस्मे से संबंधित कुछ आम विवादास्पद बातों को देखना आरंभ किया है। बाइबल की बातों को गलत समझने, उनकी गलत व्याख्या करने का सबसे आम कारण है उन बातों को उनके संदर्भ - तत्कालीन, अर्थात उस के साथ के पदों, और अन्य संबंधित बाइबल की बातों और तथ्यों के संदर्भ, से बाहर लेकर एक पूर्व-निर्धारित तरीके से देखना और समझना। इन विवादास्पद बातों को स्पष्ट करने का एक तरीका है अपने सामने लेख के तात्कालिक सन्दर्भ तथा बाइबल के सभी संबंधित तथ्यों को रख लेना, अर्थात हमारे वर्तमान विषय के लिए परमेश्वर के वचन में विभिन्न स्थानों पर बपतिस्मे से संबंधित बातों को रखना, उनके बारे में अपने आप को बाइबल के बातों को स्मरण करवाना, और फिर उन्हें ध्यान में रखते हुए आँकलन करना कि वह विवादास्पद बात उन सभी बातों के साथ कैसे बैठती है। दूसरा तरीका है इस बात को ध्यान में रखना कि जिन से वह बात सब से पहले कही गई या जिनको लिखी गई थी, उन्होंने उसे कैसे समझा, और उसका कैसे पालन किया। और तीसरा तरीका है, इस बात का ध्यान रखना कि जैसा हर भाषा के प्रयोग के साथ होता है, भाषा के शब्दों के एक से अधिक अर्थ भी हो सकते हैं तथा होते भी हैं, और सही अर्थ को उपरोक्त पहली दो बातों के आधार पर ही पहचाना और लागू किया जा सकता है।
हम पिछले लेख में बाइबल की कुछ बातों के द्वारा स्पष्ट देख चुके हैं कि बपतिस्मा न तो उद्धार देता है, और न ही उद्धार के लिए अनिवार्य है। इससे संबंधित कुछ अन्य बातें भी हैं, जिन्हें हम आने वाले लेखों में देखते रहेंगे। लेकिन आज, अभी तक हमने जो कुछ देखा है, उन्हें व्यवहारिक रीति से समझने के लिए, हम एक सामान्यतः दुरुपयोग किए जाने वाले पद, प्रेरितों 2:38 पर विचार करेंगे।
उद्धार के लिए बपतिस्मे को अनिवार्य दिखाने के लिए अकसर प्रेरितों 2:38 का गलत प्रयोग यह कहकर किया जाता है कि इस पद में लिखा है “तुम में से हर एक अपने अपने पापों की क्षमा के लिये यीशु मसीह के नाम से बपतिस्मा ले।” इस से यह तर्क दिया जाता है कि, प्रकट है कि पापों की क्षमा बपतिस्मे के द्वारा है। किन्तु यह इस वाक्य की गलत समझ है; यहाँ यह अर्थ नहीं है कि पापों की क्षमा प्राप्त करने के लिए बपतिस्मा ले - अन्यथा क्रूस पर पश्चाताप करने वाले डाकू को पापों की क्षमा नहीं मिली। वरन प्रेरितों 2:38 के इस वाक्य का सही अर्थ है कि “बपतिस्मा लेने के द्वारा तुम में से प्रत्येक अपने पापों की क्षमा प्राप्त कर लेने की गवाही को दे।”
इस वाक्य की रचना और उसमें लिखे गए शब्दों के क्रम के कारण इसका अर्थ भिन्न प्रतीत होता है, किन्तु है नहीं। हमें यहाँ पर यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि “के लिए” का तात्पर्य हमेशा यही “जिससे ऐसा हो जाए” नहीं होता है; “के लिए” का अर्थ “के कारण से” भी होता है। और यह दूसरा अर्थ इस पद के संदर्भ में ठीक बैठता है, और इसके उपयोग के द्वारा इस पद को समझने में कोई भी कठिनाई या विवादास्पद स्थिति उत्पन्न नहीं होती है। इसका “के कारण से” अर्थ कुछ बहुत सामान्य और अकसर होने वाली बातों के उदाहरण से समझते हैं:
· मान लीजिए किसी लोकप्रिय खेल के एक मैच में एक देश की दूसरे पर बहुत रोमांचकारी जीत हुई। अगले दिन इस जीत के विषय अखबारों में लिखा हुआ आया “देश की शानदार जीत के लिए लोगों ने जश्न मनाया, मिठाई बांटी।” तो क्या अखबारों में यह वाक्य पढ़ने वाले यही समझेंगे कि लोगों के जश्न मनाने और मिठाई बांटने से देश जीत गया? या पाठक स्वतः ही समझ जाएंगे कि जीत होने के कारण जश्न मनाया गया, मिठाई बांटी गई?
· कमर दर्द के पीड़ित व्यक्ति से कहा जाता है “अपने कमर दर्द के लिए आराम करो, यह तेल लगाओ, और सिकाई करो।” अर्थ स्पष्ट है कि आराम करना, तेल लगाना, और सिकाई करना कमर में दर्द उत्पन्न करने के लिए नहीं, कमर में दर्द होने के कारण दिया गया इलाज है।
· एक शिक्षक किसी विद्यार्थी से कहता है “कक्षा में तुम्हारे व्यवहार के लिए तुम्हें जाकर प्रिंसिपल से मिलना होगा।” एक बार फिर, अर्थ स्पष्ट है, उस विद्यार्थी को अपने व्यवहार के कारण प्रिंसिपल से मिलन है, न कि प्रिंसिपल से मिलने से उसमें वह व्यवहार आएगा।
ठीक इसी प्रकार से प्रेरितों 2:38 में जो “के लिए” प्रयोग किया गया है, वह “के कारण” अर्थ के साथ किया गया है; और यह इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि जब इस पद को “के कारण” अर्थ के साथ समझा जाता है तो न तो संदर्भ के साथ और न ही परमेश्वर के वचन के अन्य तथ्यों के साथ कोई कठिनाई, कोई विरोधाभास रहता है। किन्तु इस पद की केवल एक ही व्याख्या और अर्थ दिखाने के द्वारा, जान-बूझ कर परमेश्वर के वचन में अनावश्यक और अनुचित समझ लाई जाती है, विरोधाभास दिखाए जाते हैं, लोगों को सीधे स्पष्ट सत्य से भटकाया जाता है।
जिन 3,000 उद्धार पाए हुए यहूदियों से पतरस ने यह बात कही थी, उन्होंने भी इसे इसी अभिप्राय से समझा और इसका पालन किया; कि मसीह यीशु के नाम में उद्धार पा लेने के कारण वे बपतिस्मा लें; न कि बपतिस्मा लेने के द्वारा उद्धार प्राप्त करें। अन्यथा पतरस उनसे प्रभु यीशु में विश्वास (2:36) और पश्चाताप (2:38) करने के लिए क्यों कहता? वे तो पहले ही भक्त यहूदी थे (प्रेरितों 2:5), जो परमेश्वर को आदर देने और व्यवस्था के पालन के लिए एकत्रित हुए थे। तो फिर पतरस ने उन से बस इतना ही क्यों नहीं कह दिया कि “अब जाकर बपतिस्मा भी ले लो, और तुम उद्धार पा लोगे”; उनसे पहले पश्चाताप करने और प्रभु में विश्वास करने, और उसके बाद ही बपतिस्मा लेने के लिए क्यों कहा? जब हम गलत शिक्षाओं और गलत व्याख्या को स्पष्ट कर लेने के बाद पतरस की कही बात को उसके सीधे, सामान्य, व्यवहारिक रूप में लेते हैं, तो उसका सही अर्थ भी प्रकट हो जाता है, वही अर्थ जिसे उन लोगों ने समझा और पालन किया, जब पतरस ने उन से यह बात लगभग दो हजार वर्ष पहले कही थी। हम इसी विषय पर आगे के लेखों में भी देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 37
Baptisms - 17
Is It Necessary for Salvation? (2) – Acts 2:38
In considering the third elementary principle of “Baptisms” given in Hebrews 6:1-2, from the previous article we have started looking at some common controversies related to baptism. The commonest cause of misinterpretations and misunderstandings about Biblical texts is taking them out of context - the immediate context of the passage as well as, the remote context of other related Biblical facts; and then interpreting the controversial text in one particular manner. One way of settling these controversies is to lay out before ourselves the proper immediate and remote contexts, i.e., for our current topic, the various facts related to baptism that have been mentioned in God’s Word at various places, so that we refresh our memories about them, and then see how those controversial interpretations stand up to these collective facts. The second way is to see how those, to whom that was first said or written, understood it and acted upon it. The third way is to understand that as in common usage of words in any language, one word can and does have more than one meaning, and the correct meaning to be applied for interpretation by us today, can only be determined by the application of the first two methods.
We have already seen a few points in the last article that clearly show that baptism does not save, and it is not necessary to be saved. There are some other points also to further affirm this, which we will be seeing in the subsequent articles. But today, to illustrate what we have seen so far, we will consider one very commonly misused verse that people use to say that baptism is necessary for salvation, and the verse is Acts 2:38.
Acts 2:38 is often used to impress that baptism is necessary for salvation by arguing that the verse reads "Then Peter said to them, Repent, and let every one of you be baptized in the name of Jesus Christ for the remission of sins; and you shall receive the gift of the Holy Spirit." From this it is argued that, it is apparent that the forgiveness of sins is through baptism. But this is a wrong understanding of this sentence. Here, Peter is not asking people to be baptized to receive the forgiveness of sins - otherwise the robber who repented on the cross would not have received the forgiveness of sins. Rather, the correct meaning of this sentence of Acts 2:38 is, "By getting baptized every one of you should testify that you have received the forgiveness of your sins".
Due to the construction of this sentence, i.e., the order of the words written in this sentence, its meaning seems to be different from what it actually is. But we should remember that the English word “for” does not always mean “in order to;” it can also mean “because of,” and this latter meaning fits the context of this verse, as well as avoids bringing in contradictions and difficulties in interpretation of the Bible.
Let us understand this with the help of a couple of examples:
Suppose a national team achieves a very thrilling victory over another in a popular sports event. The next day the headline in the newspapers about this victory is, "The people celebrate, distribute sweets for the thrilling victory of the team." So, will those who read this sentence in the newspapers think that the team has won the victory because of the people celebrated and distributed sweets? Or, will it be clear to the readers that because of the victory of the team, the celebrations and distribution of sweets was done?
A person with backache is advised, “Take rest, apply this oil, and do warm fomentations for your backache.” The meaning is clear that the rest, oil application, and warm fomentation are to be used as treatment, because the person already has a backache; and not to get a backache.
A teacher tells a student of the class, “You need to go and meet the Principal for your behavior in class.” Again, the meaning is clear, the student is to go and meet the Principal because of the behavior he has shown; and not that meeting the Principal will cause him to behave in that particular manner.
In the same way in Acts 2:38, the word “for” is used with the meaning “because of;” this is affirmed by the fact that when it is understood with this meaning, then there are no difficulties or contradictions with the context, i.e., the other parts of God’s Word. By insisting on interpreting and showing it with the meaning “in order to,” unnecessary and deliberate contradictions in God’s Word are brought in, and people are misled from the simple straightforward truth.
The 3,000 saved Jews to whom Peter spoke this sentence, also understood and acted upon this sentence with this very understanding; that they should get baptized for their salvation in the name of Christ Jesus; i.e., not in order to be saved, but because of being saved. Else why would Peter have to ask them to repent and believe in the Lord Jesus? They already were devout Jews (Acts 2:5), who had gathered to fulfil the Law and honor God. Why then did Peter not simply say, “now also go and get baptized, and you will be saved” instead of asking the devout Jews to first repent and believe in the Lord Jesus, and then get baptized? After clearing up the wrong teaching and misunderstanding, when we look at that sentence with the practical, normal sense and application, then its actual meaning becomes apparent, which is the meaning which those people understood when Peter said this sentence about two thousand years ago. Salvation is not by baptism; but baptism is for the saved. We will continue on this topic in the articles ahead.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.