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शनिवार, 16 नवंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 253

 

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व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 98


मसीही जीवन और व्यवस्था का पालन (3) 


व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों को हम परमेश्वर के वचन बाइबल में से प्रेरितों 15 अध्याय से देख और सीख रहे हैं। पिछले लेखों में हमने देखा है कि शैतान ने प्रभु यीशु मसीह और कलवरी के क्रूस पर दिए गए उसके बलिदान, उसके मृतकों में से पुनरुत्थान में विश्वास और परमेश्वर के अनुग्रह द्वारा पापों की क्षमा तथा परमेश्वर से मेल-मिलाप के सुसमाचार को मसीही विश्वास के आरम्भ से ही भ्रष्ट करना और बदलना शुरू कर दिया था। शैतान ने यह काम मसीही विश्वासियों में ही होकर, उनसे पवित्र शास्त्र की गलत समझ रखने और उसके अनुचित प्रयोग करने द्वारा, “वचन की आज्ञाकारिता” के बहकावे और धोखे में डालने का उपयोग करते हुए करवाया। उसने सुसमाचार में परमेश्वर द्वारा दी गई व्यवस्था के पालन के द्वारा परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी ठहरने की बात को भी मिला देने के द्वारा यह करवाया। तब भी बहुत से लोग उसके इस बहकावे में पड़ कर सही मार्ग से भटक गए थे; और आज भी यही होता है। अधिकाँश मसीही यही मानते हैं कि अपने मत या डिनॉमिनेशन के बनाए और स्थापित किए गए नियमों, रीतियों, और परम्पराओं के पालन करने से वे परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और उसे स्वीकार्य हो जाते हैं; और यही उनके द्वारा सुसमाचार का पालन करना, उद्धार के लिए विश्वास करना भी है, जो कि उनकी एक बिलकुल गलत धारणा है। कुछ लोग इसके साथ ही फिर से व्यवस्था की बातों का पालन करने के महत्व पर भी ज़ोर देने लग गए हैं। किन्तु प्रेरितों 15 की चर्चा, उसका निष्कर्ष, और यरूशलेम में कलीसिया के अगुवों द्वारा पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में लिए गए और सभी स्थानों पर पहुंचाए गए निर्देश से यह प्रकट है कि सुसमाचार के मूल स्वरूप (1 कुरिन्थियों 15:1-4) के पालन के अतिरिक्त उद्धार का तथा परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी होने, उसे स्वीकार्य होने का अन्य कोई उपाय नहीं है। इस मूल सुसमाचार में अन्य जो कुछ भी जोड़ा जाएगा, वह सुसमाचार को भ्रष्ट करेगा, चाहे वह जोड़ी गई बात पवित्र शस्त्र से ही क्यों न ली गई हो, और जोड़ने वाले को धर्मी नहीं वरन श्रापित बनाएगा। साथ ही यरूशलेम के अगुवों ने, उन्हें जो मसीही विश्वास में आ गए थे, अब उद्धार पाकर विश्वास में आ जाने के बाद, उनके द्वारा मसीही विश्वास के जीवन से सुसंगत जीवन शैली अपनाने के लिए, अपने पिछले जीवन और व्यवहार की चार बातों को छोड़ देने के लिए भी कहा। आज से हम इन्हीं बातों को देखना आरम्भ करेंगे। 


यरूशलेम की कलीसिया, जो उस समय की सभी कलीसियाओं में सर्वप्रथम, तथा एक तरह से अन्य कलीसियाओं की “जननी” थी, में ही प्रभु के शिष्य, प्रेरित, तथा अन्य अगुवे और प्राचीन रहा करते थे। उनकी प्राथमिकता प्रार्थना और वचन का अध्ययन तथा सेवकाई थे (प्रेरितों 6:4); तथा मसीही विश्वास का जीवन जीने से सम्बन्धित विवाद और कठिनाइयाँ, अन्तिम निवारण के लिए उन्हीं के पास लाई जाती थीं। इसीलिए, व्यावहारिक मसीही जीवन में व्यवस्था के पालन का मुद्दा भी, जब स्थानीय स्तर पर सुलझाया नहीं जा सका, तब उसे निवारण के लिए उनके सामने प्रस्तुत किया गया। इसके निवारण के बाद कलीसिया के उन अगुवों ने अन्यजातियों में से मसीही विश्वास में आए हुए लोगों को चार बातों को छोड़ने के लिए कहा। ये चार बातें थीं, मूरतों की अशुद्धता (अर्थात मूरतों को बलि किए हुओं के माँस), व्यभिचार, गला घोंटे हुओं का माँस, और लहू (प्रेरितों 15:20, 29)। उनके द्वारा वर्जित की गई ये बातें, पतरस के पहले प्रचार में दी गई व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित तीन में से तीसरी बात - अपने आप को ‘इस टेढ़ी जाति’ अर्थात संसार की बातों से अलग करना (प्रेरितों 2:40) को स्मरण दिलाती है। प्रेरित पौलुस ने भी कुरिन्थुस की मण्डली को लिखी अपनी दूसरी पत्री में मसीही विश्वासियों के लिए अनिवार्य इस अलगाव और परिवर्तन के बारे में लिखा “सो यदि कोई मसीह में है तो वह नई सृष्टि है: पुरानी बातें बीत गई हैं; देखो, वे सब नई हो गईं” (2 कुरिन्थियों 5:17)। प्रेरित यूहन्ना ने मसीही विश्वासियों को लिखी अपनी पहली पत्री में स्पष्ट और दो टूक कहा “तुम न तो संसार से और न संसार में की वस्तुओं से प्रेम रखो: यदि कोई संसार से प्रेम रखता है, तो उस में पिता का प्रेम नहीं है” (1 यूहन्ना 2:15)। अर्थात, मसीही विश्वास में आ जाने का दावा करने के बाद फिर भी संसार और संसार की बातों से, अपने पुराने मनुष्यत्व की बातों और व्यवहार से प्रेम बनाए रखना दिखाता है कि वह व्यक्ति अभी भी परमेश्वर पिता से प्रेम नहीं करता है। तात्पर्य यह कि सम्भवतः वास्तव में उसका उद्धार नहीं हुआ है। और प्रभु के भाई याकूब ने अपनी पत्री में इसे और भी तीखे शब्दों में कहा “हे व्यभिचारिणयों, क्या तुम नहीं जानतीं, कि संसार से मित्रता करनी परमेश्वर से बैर करना है सो जो कोई संसार का मित्र होना चाहता है, वह अपने आप को परमेश्वर का बैरी बनाता है” (याकूब 4:4)। कुल मिलाकर प्रकट निष्कर्ष यही है कि मसीही विश्वास में आने के बाद, मसीही विश्वासी के जीवन शैली में एक परिवर्तन दिखना चाहिए, उसका जीवन और व्यवहार संसार और संसार के लोगों के व्यवहार से भिन्न होना चाहिए, और इस भिन्नता का एक स्पष्ट और सहज माप है, “सो तुम चाहे खाओ, चाहे पीओ, चाहे जो कुछ करो, सब कुछ परमेश्वर की महिमा के लिये करो” (1 कुरिन्थियों 10:31)। और जैसा प्रभु यीशु मसीह ने अपने जीवन के उदाहरण के द्वारा दिखाया और कहा, परमेश्वर की महिमा उसकी आज्ञाकारिता, उसके वचन के पालन के द्वारा ही होती है (यूहन्ना 17:4)।


प्रेरितों 15:20, 29 में दी गई चार बातों पर, जिनसे मसीही विश्वासियों को अलग रहना था, अर्थात, मूरतों की अशुद्धता (अर्थात मूरतों को बलि किए हुओं के माँस), व्यभिचार, गला घोंटे हुओं का माँस, और लहू, पर ध्यान करने से प्रकट है कि पहली और दूसरी बात (मूरतों की अशुद्धता, व्यभिचार) परमेश्वर द्वारा दी गई दस आज्ञाओं का उल्लंघन हैं; और तीसरी तथा चौथी बात (गला घोंटे हुओं का माँस, और लहू) भी एक ही बात के दो स्वरूप हैं, अर्थात लहू को खाना। परमेश्वर द्वारा मूसा में होकर इस्राएलियों को दी गई व्यवस्था में भी लहू और लहू लगा हुआ माँस खाना वर्जित था (लैव्यव्यवस्था 3:17; 7:26; 17:10, 14; 19:26)। गला घोंट कर मारे गए पशु में से उसके लहू का बह जाना सम्भव नहीं होगा, इसलिए इस प्रकार से घात किए गए पशु का माँस खाने में, लहू के साथ उसको खा लेने की सम्भावना बनी रहेगी, इसलिए यह वर्जित है।

 

अब यहाँ पर एक प्रश्न उठता है कि एक ओर तो विवाद और चर्चा करके पवित्र आत्मा की अगुवाई में यह कहा जा रहा है कि व्यवस्था की बातों का पालन करने की कोई आवश्यकता नहीं है। किन्तु साथ ही व्यवस्था की कुछ बातों का पालन करना अनिवार्य करके उससे सम्बन्धित निर्देश भी सभी के पालन के लिए दिए जा रहे हैं। क्या यह वचन में, परमेश्वर की बातों में, एक विरोधाभास को, मनमानी बात को लागू करने को नहीं दिखाता है?


हम पहले के लेखों में देख चुके हैं कि परमेश्वर के वचन की किसी भी गलत व्याख्या और अनुचित समझ से बचने के लिए, हमेशा ही हर बात को उसके तात्कालिक और दूरस्थ, दोनों ही सन्दर्भों में देखना आवश्यक है। तब ही बात की वास्तविकता प्रकट होती है। साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि परमेश्वर का वचन स्वयं ही अपना सर्वोत्तम स्पष्टीकरण देता है। अगले लेख में इन्हीं बातों के आधार पर हम प्रतीत होने वाले विरोधाभास को समझेंगे, और देखेंगे कि परमेश्वर का वचन कितना सही और सटीक है। 

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


Things Related to Practical Christian Living – 98


Christian Living and Observing the Law (3)

 

We are considering and learning things related to practical Christian living from Acts chapter 15. In the previous articles we have seen that Satan had started to corrupt and change the gospel of salvation and reconciliation with God through believing in the sacrifice of the Lord Jesus made on the Cross of Calvary, His resurrection from the dead, and the forgiveness of sins through the grace of God. Satan did this through the Christian Believers, by making them misunderstand and misuse the Scriptures, beguiling and deceiving them about being “obedient to the Word.” Satan also deceived them into adding the observance of the God given Law to the gospel to be righteous and acceptable to God. At that time many people fell into this deception and got misled into the wrong way, and today also many others are doing the same. Most Christians believe that by observing and fulfilling the rules, rituals, and traditions made and established by their sect or denomination, they become righteous in the eyes of God and acceptable to Him; and according to their understanding, this is obeying the gospel and believing to be saved, but it is an absolutely wrong belief. Along with this, some people have started to revert to emphasizing on obeying and fulfilling the Law. But the discussion given in Acts 15, its conclusion, and the decision taken by the Elders in the Church at Jerusalem under the guidance of the Holy Spirit, which was then conveyed to all the other churches makes it clear that other than obeying and following the gospel in its original form (1 Corinthians 15:1-4), there is no other way of being righteous in the eyes of God and acceptable to Him. Whatever else is added to this original gospel will only corrupt it, even if that which is being added has been taken from the Scriptures, and will make the one doing the addition cursed, not blessed. Along with this, the Elders in Jerusalem, gave instructions for those who had come into the Christian faith from the Gentiles, to adopt a behavior and life-style consistent with the Christian living, and leave four things which they had been doing till coming into the Christian faith. From today, we will start considering these four things.


The Church in Jerusalem, which was the first Church, and in a way the “mother-Church” was where the disciples of the Lord, the Apostles, and other Elders and church leaders were. Their priority was to pray and the ministry of the Word (Acts 6:4); and the things related to disputes, misunderstandings and difficulties related to Christian faith and living were brought to them for resolution. Therefore, the issue of obeying the Law in practical Christian living was also brought to them, when it could not be resolved at the local level. After the issue had been resolved, those Elders asked the Gentile converts in the churches to give up on four things which they had been doing since before. These four things were, to abstain from things polluted by idols (things offered to idols), from sexual immorality, from things strangled, and from blood (Acts 15:20, 29). These things forbidden by the Elders, bring to mind the third of the three things said by Peter in his first sermon – to save themselves from this perverse generation, i.e., to separate themselves from the world and the things of the world (Acts 2:40). The Apostle Paul also wrote about the necessity of this separation and change in his second letter to the Corinthians “Therefore, if anyone is in Christ, he is a new creation; old things have passed away; behold, all things have become new” (2 Corinthians 5:17). The Apostle John, in his first letter said to the Christian Believers “Do not love the world or the things in the world. If anyone loves the world, the love of the Father is not in him” (1 John 2:15). In other words, after claiming to have come into the Christian faith, still continuing to love the world, the things of the world, things related to the ‘old man’ is an indicator that the person does not love God. The implication is that possibly he might not really be Born Again. James, the brother of the Lord Jesus said it in even sharper words in his letter “Adulterers and adulteresses! Do you not know that friendship with the world is enmity with God? Whoever therefore wants to be a friend of the world makes himself an enemy of God” (James 4:4). The overall evident conclusion is that having come into Christian faith, there should be an evident change in the behavior and living of the Christian Believer, that shows him separate from the world and the people of the world, and a clear and easy measure of this change is “Therefore, whether you eat or drink, or whatever you do, do all to the glory of God” (1 Corinthians 10:31). As the Lord Jesus has shown from His example and has said, God is glorified by being obedient to Him, by following His Word (John 17:4).


Of the four things given in Acts 15:20, 29, from which the Christian Believers are to separate themselves, i.e., from things polluted by idols (things offered to idols), from sexual immorality, from things strangled, and from blood, it is apparent that the first two (things polluted by idols and sexual immorality) are a disobeying of part of the Ten Commandments, and the third and fourth things (things strangled, and blood) are two forms of one things, i.e., eating blood. In the Law given by God through Moses, eating of blood and anything with blood has been forbidden (Leviticus 3:17; 7:26; 17:10, 14; 19:26). In an animal strangled to death, it would not be possible for its blood to flow out, therefore in eating an animal killed in this manner the possibility of eating something with the blood will remain, therefore, it was forbidden.


Now, this raises a question here that on the one hand after a lot of debate and discussion, under the guidance of the Holy Spirit, it has been decided and instructed that there is no need to observe and follow the Law. But then, on the other hand, some things from the Law are being stated as mandatory and everyone is to observe and follow the related instructions. Does this not show a contradiction, an arbitrariness in implementing God’s Word?


We have seen in the earlier articles that to avoid any misinterpretations and misunderstandings related to God’s Word, it should always be considered in its immediate as well as remote, both contexts. Only then the reality of the thing becomes clear. We should also take note that the best clarification of an issue related to God’s Word always comes from within God’s Word itself. On the basis of these things, in the next article we will see about this apparent contradiction and arbitrariness, and see how correct and precise God’s Word is.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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