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बाइबल और जीव-विज्ञान - 1 - विज्ञान, विश्व-व्यापी जल-प्रलय तथा जीवाश्म
परमेश्वर के वचन बाइबल की पुस्तकों में परमेश्वर ने हजारों वर्ष पहले अनेकों प्रकार का वैज्ञानिक ज्ञान लिखवा दिया था; और वर्तमान में विज्ञान उन्हीं बातों को अपनी ही खोज और आविष्कारों के द्वारा उजागर कर रहा है, और बाइबल के ज्ञाता दिखाते रहते हैं कि ये बातें परमेश्वर ने पहले से ही साधारण, अशिक्षित, तथा अवैज्ञानिक मनुष्यों की समझ में आने वाली भाषा में लिखवा दी थीं।
साथ ही परमेश्वर ने यह भी लिखवा दिया था कि लोग बाइबल की बातों को अस्वीकार करेंगे, उनपर अविश्वास करेंगे; इस संदर्भ में बाइबल के कुछ पद देखिए:
2 पतरस 3:3-4 और यह पहिले जान लो, कि अन्तिम दिनों में हंसी ठट्ठा करने वाले आएंगे, जो अपनी ही अभिलाषाओं के अनुसार चलेंगे। और कहेंगे, उसके आने की प्रतिज्ञा कहां गई? क्योंकि जब से बाप-दादे सो गए हैं, सब कुछ वैसा ही है, जैसा सृष्टि के आरम्भ से था?
यहूदा 1:17-19 पर हे प्रियो, तुम उन बातों को स्मरण रखो; जो हमारे प्रभु यीशु मसीह के प्रेरित पहिले कह चुके हैं। वे तुम से कहा करते थे, कि पिछले दिनों में ऐसे ठट्ठा करने वाले होंगे, जो अपनी अभक्ति के अभिलाषाओं के अनुसार चलेंगे। ये तो वे हैं, जो फूट डालते हैं; ये शारीरिक लोग हैं, जिन में आत्मा नहीं।
न केवल परमेश्वर ने इस उपेक्षा किए जाने के बारे में लिखवाया, वरन ऐसे उदाहरण भी लिखवा दिए जिनको लेकर अविश्वासी लोग उपहास करेंगे। इन उदाहरणों में से एक ऊपर पतरस वाले पदों में दिया गया है प्रभु यीशु मसीह का दूसरा आगमन - जिसके विषय मसीही विश्वासियों में बहुत प्रत्याशा है, किन्तु अविश्वासियों में बहुत संशय और उपहास किया जाता है। इसी प्रकार दो अन्य उदाहरण है बाइबल में दिया गया पृथ्वी की रचना का वर्णन और नूह के समय में मनुष्यों में पाप के अत्यधिक बढ़ जाने से आए विश्व-व्यापी जल प्रलय और पापी मनुष्यों के विनाश का वृतांत। पतरस ने अपनी पत्री में लिखा: “वे तो जान बूझ कर यह भूल गए, कि परमेश्वर के वचन के द्वारा से आकाश प्राचीन काल से वर्तमान है और पृथ्वी भी जल में से बनी और जल में स्थिर है। इन्हीं के द्वारा उस युग का जगत जल में डूब कर नाश हो गया” (2 पतरस 3:5-6); और फिर सचेत किया कि जैसे नूह के समय में अविश्वासी और पापी जन जल के द्वारा नाश की गए थे, वैसे ही इस युग में पापी संसार और पापी मनुष्य आग के द्वारा भस्म किए जाएंगे “पर वर्तमान काल के आकाश और पृथ्वी उसी वचन के द्वारा इसलिये रखे हैं, कि जलाए जाएं; और वह भक्तिहीन मनुष्यों के न्याय और नाश होने के दिन तक ऐसे ही रखे रहेंगे” (2 पतरस 3:7)।
ऐसा नहीं है कि इस विश्व-व्यापी जल प्रलय के प्रमाण नहीं हैं; सारे संसार की सभी सभ्यताओं में इस विश्व-व्यापी जल प्रलय की पौराणिक कथाएं विद्यमान हैं; क्योंकि सारे संसार के लोग नूह के वंशज हैं, जो उस जल प्रलय में से परमेश्वर द्वारा सुरक्षित निकाले गए, और जैसे-जैसे संसार में फैलते चले गए, उस जल प्रलय की घटना की मौखिक स्मृतियाँ भी अपने साथ लेकर गए, जिन में समय के साथ कुछ-कुछ परिवर्तन आए, किन्तु मूल स्वरूप वही है कि जल प्रलय हुआ था, और सारी पृथ्वी पर से कुछ को छोड़ शेष मनुष्य नाश हो गए थे।
यह केवल पौराणिक बातों में ही नहीं है, किन्तु सारे संसार भर में इस जल प्रलय के प्रमाण जलचर जीव-जंतुओं के जीवाश्मों के रूप में विद्यमान हैं, उन ऊंचे हिमालय और ऐन्डीस जैसी ऊंची पर्वत-श्रंखलाओं पर भी, जिनके जल मगन होने की बात वैज्ञानिक न तो कल्पना करते हैं और न ही स्वीकार करते हैं। इसलिए इन जीवाश्मों के विद्यमान होने प्रमाणों को उजागर नहीं किया जाता है, प्रमुखता नहीं दी जाती है। किन्तु इंटरनेट पर “marine fossils, sea-shells, whale fossils on mountains” खोज करने से इसके विषय में बहुत सी जानकारी मिल सकती है। यद्यपि वैज्ञानिक इन्हें समझाने के भिन्न स्पष्टीकरण देते हैं, जो वास्तविकता से मेल नहीं खाती हैं।
इसलिए परमेश्वर ने अपने लोगों से यह भी कहा है कि उन्हें सांसारिक बातों को लेकर अधिक वाद-विवाद करने, या उन परमेश्वर विरोधी सांसारिक बातों को अपने जीवनों में अनावश्यक महत्व अथवा वरीयता देने की आवश्यकता नहीं है, “पर मूर्खता के विवादों, और वंशावलियों, और बैर विरोध, और उन झगड़ों से, जो व्यवस्था के विषय में हों बचा रह; क्योंकि वे निष्फल और व्यर्थ हैं। किसी पाखंडी को एक दो बार समझा बुझाकर उस से अलग रह। यह जानकर कि ऐसा मनुष्य भटक गया है, और अपने आप को दोषी ठहराकर पाप करता रहता है” (तीतुस 3:9-11)।
क्योंकि उस ज्ञान के पीछे भागने वाले फिर विश्वास से भटकाए जा सकते हैं “हे तीमुथियुस इस थाती की रखवाली कर और जिस ज्ञान को ज्ञान कहना ही भूल है, उसके अशुद्ध बकवाद और विरोध की बातों से परे रह। कितने इस ज्ञान का अंगीकार कर के, विश्वास से भटक गए हैं।। तुम पर अनुग्रह होता रहे” (1 तीमुथियुस 6:20-21)।
ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रभु यीशु मसीह में संसार के सभी लोगों के लिए सेंत-मेंत में उपलब्ध पापों की क्षमा और उद्धार का सुसमाचार मनुष्यों के ज्ञान और समझ पर नहीं, वरन उनके द्वारा उनमें बसे हुए पापों के एहसास और सच्चे विश्वास द्वारा इस सुसमाचार को स्वीकार करने पर आधारित है, जैसा कि पौलुस प्रेरित ने लगभग दो हज़ार वर्ष पहले लिखा था: “और हे भाइयों, जब मैं परमेश्वर का भेद सुनाता हुआ तुम्हारे पास आया, तो वचन या ज्ञान की उत्तमता के साथ नहीं आया। क्योंकि मैं ने यह ठान लिया था, कि तुम्हारे बीच यीशु मसीह, वरन क्रूस पर चढ़ाए हुए मसीह को छोड़ और किसी बात को न जानूं। और मैं निर्बलता और भय के साथ, और बहुत थरथराता हुआ तुम्हारे साथ रहा। और मेरे वचन, और मेरे प्रचार में ज्ञान की लुभाने वाली बातें नहीं; परन्तु आत्मा और सामर्थ का प्रमाण था। इसलिये कि तुम्हारा विश्वास मनुष्यों के ज्ञान पर नहीं, परन्तु परमेश्वर की सामर्थ पर निर्भर हो” (1 कुरिन्थियों 2:1-5)।
पिछले तीन सप्ताह से हम देखते चले आ रहे हैं कि परमेश्वर के वचन बाइबल को बदनाम करने और झूठा प्रमाणित करने के प्रयास तो बहुत किए गए, किन्तु बाइबल को गलत या झूठा कोई नहीं प्रमाणित कर सका; वरन बाइबल में ही उसके परमेश्वर का अटल और शाश्वत सत्य वचन होने के प्रमाण विद्यमान हैं। आगे भी हम कई और प्रकार के वैज्ञानिक तथ्यों की बाइबल में उपस्थिति, उनके मनुष्यों को ज्ञात होने से भी हजारों वर्ष पहले वहाँ लिखे जाने के संदर्भ में देखेंगे।
उस महान, प्रेमी सृष्टिकर्ता परमेश्वर के प्रति आज आपका विचार और निर्णय क्या है? क्या आप स्वेच्छा और सच्चे मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु, मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लेकर पापी संसार और पापी मनुष्यों पर आने वाले न्याय और भयानक विनाश से बचा लें” के द्वारा अपने पृथ्वी के शेष जीवन तथा अनन्तकाल को सुरक्षित करेंगे? साधारण विश्वास की इस प्रार्थना और समर्पण को अवसर देकर देखिए - आप निराश नहीं होंगे।
Bible and Bio-Sciences - 1 - Science, Global Flood, and Fossils
We have been seeing that God, thousands of years ago, had got written in the books of His Word the Bible, many things of scientific importance, which scientists and science are presently learning and realizing through their own discoveries and inventions. Biblical scholars continue to show that what science is saying today, God had already written those things through uneducated men and those without any knowledge of science, in a simple language understandable to ordinary people of those times.
At the same time, God had also got it written beforehand that people would reject and disbelieve the words of the Bible. See some Bible verses in this context:
2 Peter 3:3-4 “knowing this first: that scoffers will come in the last days, walking according to their own lusts, and saying, "Where is the promise of His coming? For since the fathers fell asleep, all things continue as they were from the beginning of creation.”
Jude 1:17-19 “But you, beloved, remember the words which were spoken before by the apostles of our Lord Jesus Christ: how they told you that there would be mockers in the last time who would walk according to their own ungodly lusts. These are sensual persons, who cause divisions, not having the Spirit.”
Not only did God get written about this willful neglect, but He also had stated the things that would be ridiculed by unbelievers. One of them is stated in the quote from Peter above — the second coming of the Lord Jesus Christ — of which there is great anticipation among Christians, but much unbelief and ridicule among unbelievers. Two other similar examples are the Biblical description of the creation of the earth and the account of the worldwide flood for the destruction of sinful people, which happened in Noah's time because of the great increase in sin amongst mankind. Peter wrote in his letter: “For this they willfully forget: that by the word of God the heavens were of old, and the earth standing out of water and in the water, by which the world that then existed perished, being flooded with water” (2 Peter 3:5-6); And then cautioned that just as unbelievers and sinners were destroyed by water in the time of Noah, so in this age the sinful world and the sinful mankind will be consumed by fire “But the heavens and the earth which are now preserved by the same word, are reserved for fire until the day of judgment and perdition of ungodly men” (2 Peter 3:7).
It's not that, outside of the Bible, the evidence of this world-wide deluge isn't present. The story of this world-wide deluge exists in the mythology of all the civilizations of the whole world. And quite naturally, because the people of the whole world are the descendants of Noah, who were rescued by God from that flood, and as they spread through the world, they also took with them oral accounts of the memories of those times, including those of the flood. With the passage of time there were some changes in the accounts, but the basic form is the same, that the flood took place all over the earth, and except a few from whom the earth was repopulated, all the rest of mankind perished.
The evidence of a world-wide flood is not only seen in mythological accounts, but all over the world, the evidence of this deluge is present in the form of fossils of aquatic animals, abundantly found even in higher regions of mountain ranges like Himalayas and Andes, whose ever being submerged under water, scientists can neither imagine nor believe. Therefore, since there is no other tenable explanation about them, the evidence for the existence of these fossils is suppressed, it is not given its due prominence in scientific reporting. But by searching "marine fossils, sea-shells, whale fossils on mountains" on the Internet, a lot of information can still be found about it. Although scientists give various explanations to explain the presence of fossils of sea animals in high mountainous regions, the explanations do not go along with the facts.
That's why God also told His people that they don't need to argue too much about worldly things, nor to give unnecessary importance or priority to those anti-God and “scientific” arguments, "But avoid foolish disputes, genealogies, contentions, and strivings about the law; for they are unprofitable and useless. Reject a divisive man after the first and second admonition, knowing that such a person is warped and sinning, being self-condemned” (Titus 3:9-11).
For those who chase after that knowledge can then be led astray from the faith "O Timothy! Guard what was committed to your trust, avoiding the profane and idle babblings and contradictions of what is falsely called knowledge -- by professing it some have strayed concerning the faith. Grace be with you. Amen" (1 Timothy 6:20-21).
God’s people don’t need to argue about this, because the gospel of forgiveness of sins and salvation by faith in the Lord Jesus has been made freely available to all the people of the world, not based upon the knowledge and understanding of men, but on the realization of their sin present in them and their acceptance of salvation by faith. As the apostle Paul wrote about two thousand years ago: “And I, brethren, when I came to you, did not come with excellence of speech or of wisdom declaring to you the testimony of God. For I determined not to know anything among you except Jesus Christ and Him crucified. I was with you in weakness, in fear, and in much trembling. And my speech and my preaching were not with persuasive words of human wisdom, but in demonstration of the Spirit and of power, that your faith should not be in the wisdom of men but in the power of God" (1 Corinthians 2:1-5).
For the last three weeks, we have been seeing that many attempts have been made to discredit and prove the Bible as false, but to date none has been able prove the Bible to be false or wrong. Rather, in the Bible itself there is enough evidence of it being the infallible, eternal, and verifiably true Word of God. In the days ahead, we will see the presence of many more kinds of scientific facts in the Bible, all written in there thousands of years ago, before men knew, or even had any idea about them.
Today, in context of all that we have seen so far, what are your thoughts and your decision about the great, loving Creator God? Would you willingly and sincerely, with a heartfelt repentance of your sins, say a short prayer, “Lord Jesus, forgive my sins, take me under your care and save me from the judgment and terrible destruction that will be coming upon the sinful world and sinful men.” Your one sincere, voluntary prayer of faith will not only safeguard the rest of your earthly life but your eternity as well. Give this prayer of simple faith and willing surrender to the Lord Jesus an honest chance - you won't be disappointed.
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