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मसीही विश्वासी - प्रभु को प्राथमिक स्थान देता है
सुसमाचारों में प्रभु यीशु मसीह द्वारा दिए गए मसीही विश्वासी के सात गुणों में से दूसरा गुण है कि वह प्रभु यीशु मसीह को अपने जीवन में प्राथमिक, सबसे उच्च स्थान देता है। प्रभु के शिष्य के लिए पारिवारिक एवं सांसारिक संबंधों से अधिक महत्वपूर्ण प्रभु के साथ उसका संबंध होना चाहिए:
- मत्ती 10:37 जो माता या पिता को मुझ से अधिक प्रिय जानता है, वह मेरे योग्य नहीं और जो बेटा या बेटी को मुझ से अधिक प्रिय जानता है, वह मेरे योग्य नहीं।
- लूका 14:26 यदि कोई मेरे पास आए, और अपने पिता और माता और पत्नी और लड़के बालों और भाइयों और बहिनों वरन अपने प्राण को भी अप्रिय न जाने, तो वह मेरा चेला नहीं हो सकता।
प्रभु ने इसका उदाहरण स्वयं अपने व्यवहार के द्वारा दिखाया; प्रभु के लिए उसके अपने परिवार जनों से अधिक महत्वपूर्ण वे लोग थे जो उसकी बात सुनते और मानते थे: “और उस की माता और उसके भाई आए, और बाहर खड़े हो कर उसे बुलवा भेजा। और भीड़ उसके आसपास बैठी थी, और उन्होंने उस से कहा; देख, तेरी माता और तेरे भाई बाहर तुझे ढूंढते हैं। उसने उन्हें उत्तर दिया, कि मेरी माता और मेरे भाई कौन हैं? और उन पर जो उसके आस पास बैठे थे, दृष्टि कर के कहा, देखो, मेरी माता और मेरे भाई यह हैं। क्योंकि जो कोई परमेश्वर की इच्छा पर चले, वही मेरा भाई, और बहिन और माता है” (मरकुस 3:31-35)।
किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि मसीही शिष्य को अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों के प्रति उदासीन या लापरवाह होना चाहिए। परमेश्वर के वचन और प्रयोजन में परिवार ही वह इकाई है जिसमें होकर हम परमेश्वर और उसके प्रेम को समझने पाते हैं। परमेश्वर ने हमारे लिए अपने आप को परिवार के सदस्यों, जैसे कि पिता, पुत्र, पति; और अपने लोगों के साथ अपने संबंध तथा उन लोगों के परस्पर संबंधों को भी पारिवारिक संबंधों जैसे कि पुत्र और पुत्रियों, पत्नी, भाई, आदि के द्वारा व्यक्त किया है। वचन परिवार के प्रति व्यक्ति की जिम्मेदारियों को भी सिखाता है:
- निर्गमन 20:12 तू अपने पिता और अपनी माता का आदर करना, जिस से जो देश तेरा परमेश्वर यहोवा तुझे देता है उस में तू बहुत दिन तक रहने पाए।
- लैव्यव्यवस्था 19:3 तुम अपनी अपनी माता और अपने अपने पिता का भय मानना, और मेरे विश्राम दिनों को मानना; मैं तुम्हारा परमेश्वर यहोवा हूं।
- 1 तीमुथियुस 5:8 पर यदि कोई अपनों की और निज कर के अपने घराने की चिन्ता न करे, तो वह विश्वास से मुकर गया है, और अविश्वासी से भी बुरा बन गया है।
प्रभु यीशु मसीह ने इस ज़िम्मेदारी को भी क्रूस की वेदना सहते हुए निभाया, जब उन्होंने अपनी माता मरियम की ज़िम्मेदारी अपने शिष्य यूहन्ना को सौंपी: “परन्तु यीशु के क्रूस के पास उस की माता और उस की माता की बहिन मरियम, क्लोपास की पत्नी, और मरियम मगदलीनी खड़ी थी। यीशु ने अपनी माता और उस चेले को जिस से वह प्रेम रखता था, पास खड़े देखकर अपनी माता से कहा; हे नारी, देख, यह तेरा पुत्र है। तब उस चेले से कहा, यह तेरी माता है, और उसी समय से वह चेला, उसे अपने घर ले गया” (यूहन्ना 19:25-27)।
साथ ही हम यह भी देखते हैं कि प्रभु की मण्डली के अगुवों को सबसे पहले परिवार की उचित देखभाल करने वाला होना चाहिए, तब ही वह मण्डली की देखभाल ठीक से कर सकेंगे:
- 1 तीमुथियुस 3:4-5 अपने घर का अच्छा प्रबन्ध करता हो, और लड़के-बालों को सारी गम्भीरता से आधीन रखता हो। जब कोई अपने घर ही का प्रबन्ध करना न जानता हो, तो परमेश्वर की कलीसिया की रखवाली क्योंकर करेगा?
- 1 तीमुथियुस 3:12 सेवक एक ही पत्नी के पति हों और लड़के बालों और अपने घरों का अच्छा प्रबन्ध करना जानते हों।
पारिवारिक संबंधों से बढ़कर प्रभु को प्राथमिकता देने का अर्थ परिवार की अनदेखी करना नहीं है, वरन पारिवारिक जिम्मेदारियों की आड़ लेकर, प्रभु के कार्य की अनदेखी नहीं करना है। हमने मरकुस 3:14-15 में से शिष्य के लिए प्रभु के प्रयोजनों में से दूसरे प्रयोजन में देखा था कि प्रभु के शिष्य को जब और जहाँ प्रभु भेजे, तब और वहाँ जाने के लिए तैयार रहना चाहिए। हम यह भी देख चुके हैं कि प्रभु जब भी किसी व्यक्ति को अपने किसी कार्य के लिए भेजता है, तो उससे संबंधित सारी तैयारियों को पूरा कर लेने के बाद ही ऐसा करता है। इसलिए प्रभु के शिष्य को प्रभु में इस बात के लिए भरोसा रखना चाहिए कि यदि प्रभु उसे कहीं जाने या कुछ करने के लिए कह रहा है, तो प्रभु ने उसके परिवार से संबंधित जिम्मेदारियों के बारे में भी कुछ प्रयोजन कर के रखा होगा, और उस शिष्य की अनुपस्थिति में परिवार को कोई हानि नहीं होगी। साथ ही, शिष्य द्वारा अपने परिवार को प्रभु के हाथों में सौंप कर, प्रभु के कहे के अनुसार करने के लिए जाना, इस बात का अभी सूचक है कि वह शिष्य यह मानता और निभाता है कि उसके परिवार की देखभाल भी प्रभु ही करता है, न कि वह स्वयं; जो कि उसके विश्वास की परिपक्वता का सूचक एवं चिह्न है।
जो प्रभु को महत्व देते हैं, प्रभु उनको भी बहुत महत्व और प्रतिफल देता है: “यीशु ने कहा, मैं तुम से सच कहता हूं, कि ऐसा कोई नहीं, जिसने मेरे और सुसमाचार के लिये घर या भाइयों या बहिनों या माता या पिता या लड़के-बालों या खेतों को छोड़ दिया हो। और अब इस समय सौ गुणा न पाए, घरों और भाइयों और बहिनों और माताओं और लड़के-बालों और खेतों को पर उपद्रव के साथ और परलोक में अनन्त जीवन” (मरकुस 10:29-30)।
यदि आप मसीही विश्वासी हैं, अपने आप को प्रभु यीशु मसीह का अनुयायी कहते हैं, तो प्रभु के सच्चे शिष्य की इस दूसरी पहचान की कसौटी पर आप कहाँ खड़े हैं? प्रभु, उसकी आज्ञाकारिता, और उस का वचन आपके जीवन में क्या महत्व रखता है; क्या स्थान पाता है? क्या आपने प्रभु को अपने जीवन में प्राथमिक तथा सर्वोच्च स्थान दिया है? वह राजाओं का राजा, प्रभुओं का प्रभु, सृष्टि का रचयिता एवं स्वामी और सर्वशक्तिमान परमेश्वर है; उसको उसकी महिमा और हस्ती के उपयुक्त स्थान न देना, उसका अपमान करना है। इसलिए यदि आप प्रभु के जन हैं, तो प्रभु को अपने जीवन में उसका सही आदर और स्थान भी प्रदान करें।
और यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 10-12
प्रेरितों 19:1-20
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Christian Believer – Accords Primary Place to the Lord
The second of the seven characteristics of a Christian Believer given by the Lord is that he accords the primary, the highest place in his life to the Lord Jesus Christ. For a disciple of the Lord, his relationship with the Lord should be of paramount importance, over and above his family and worldly relationships:
Matthew 10:37 “He who loves father or mother more than Me is not worthy of Me. And he who loves son or daughter more than Me is not worthy of Me.”
Luke 14:26 “If anyone comes to Me and does not hate his father and mother, wife and children, brothers and sisters, yes, and his own life also, he cannot be My disciple.”
Mark 3:31-35 “Then His brothers and His mother came, and standing outside they sent to Him, calling Him. And a multitude was sitting around Him; and they said to Him, "Look, Your mother and Your brothers are outside seeking You." But He answered them, saying, "Who is My mother, or My brothers?" And He looked around in a circle at those who sat about Him, and said, "Here are My mother and My brothers! For whoever does the will of God is My brother and My sister and mother."” Through this example, the Lord practically demonstrated that for Him those who heard and obeyed Him were more important than His immediate family.
But this does not mean that a Christian Believer should be unconcerned about his family responsibilities. In God’s Word and purpose, family is the unit through which we get to understand God and His love. God has expressed Himself towards us through various family relationships, e.g., Father, Son, Husband. God has also expressed the mutual relationships of His people between themselves and also with Him through familial relationships, e.g., being sons and daughters, wife or bride, brothers, etc., God’s Word also teaches about a person’s familial relationships and responsibilities:
Exodus 20:12 “Honor your father and your mother, that your days may be long upon the land which the Lord your God is giving you.”
Leviticus 19:3 “Every one of you shall revere his mother and his father, and keep My Sabbaths: I am the Lord your God.”
1 Timothy 5:8 “But if anyone does not provide for his own, and especially for those of his household, he has denied the faith and is worse than an unbeliever.”
The Lord Jesus fulfilled this responsibility even while suffering the torment of the Cross, when He handed over the responsibility of His mother, Mary, to His disciple John, “Now there stood by the cross of Jesus His mother, and His mother's sister, Mary the wife of Clopas, and Mary Magdalene. When Jesus therefore saw His mother, and the disciple whom He loved standing by, He said to His mother, "Woman, behold your son!" Then He said to the disciple, "Behold your mother!" And from that hour that disciple took her to his own home” (John 19:25-27).
We also see that the Assemblies of God’s people have been instructed that the Elders are to be those who firstly manage their own household well, only then can they be considered worthy of managing the responsibility of the Assembly:
1 Timothy 3:4-5 one who rules his own house well, having his children in submission with all reverence (for if a man does not know how to rule his own house, how will he take care of the church of God?).
1 Timothy 3:12 Let deacons be the husbands of one wife, ruling their children and their own houses well.
To give the primary place to the Lord instead of familial relationships and responsibilities is not being careless or unconcerned about earthly families. We have seen from the second purpose given in Mark 3:14-15 that the disciple of the Lord should be willing and prepared to go whenever and wherever the Lord sends him. We have also seen that whenever the Lord appoints and sends someone for His work, he first does all that is necessary for that person to accomplish that work. Therefore, the disciple of the Lord should have faith and be confident that if the Lord is asking him to go somewhere and do something for Him, then the Lord has also made the necessary provisions and prepared for the requirements, so that in the absence of the disciple, his family should not suffer any harm. Moreover, the disciple’s handing over his family into the hands of the Lord and going when and where the Lord sends him, is an indicator that the disciple believes in and follows the fact that it is actually the Lord who looks after him and his family and meets their needs, and not the disciple, also a sign of the maturity in the faith of that person.
Whoever give importance and primacy to the Lord, the Lord too gives him importance and rewards: “So Jesus answered and said, "Assuredly, I say to you, there is no one who has left house or brothers or sisters or father or mother or wife or children or lands, for My sake and the gospel's, who shall not receive a hundredfold now in this time--houses and brothers and sisters and mothers and children and lands, with persecutions--and in the age to come, eternal life” (Mark 10:29-30).
If you are a Christian Believer, if you call yourself a disciple of Christ, then where do you find yourself according to this second characteristic of the true disciple of the Lord? What place do the Lord, His Word, and obedience to them have in your life? Have you accorded the primary and highest place to the Lord in your life? He is the King of Kings and Lord of Lords, the Creator and Owner of the creation, the omnipotent God. To not accord Him a status according to His glory and status is in fact insulting Him, demeaning Him. Therefore, if you are a Christian Believer, truly a disciple of the Lord Jesus, then the Lord should have His proper place and status in your life.
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 10-12
Acts 19:1-20
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